21 अगस्त 1949 को अहमद पटेल का जन्म गुजरात में हुआ था। वे तीन बार लोकसभा के लिए चुने गए। इसके अलावा 5 बार राज्यसभा के सांसद भी रहे। अहमद पटेल 1977 में 26 साल की उम्र में पहली बार भरूच से लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे, लेकिन 1989 के चुनाव ने करारा झटका दिया। तो वे फिर कभी सीधे मैदान में नहीं उतरे
अहमदाबाद: देश की राजनीति में 1977 वह साल था, जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई थी। उस चुनाव में भारतीय लोकदल के प्रत्याशी राजनारायण ने रायबरेली में इंदिरा गांधी को हराकर सनसनी पैदा कर दी थी। इंदिरा गांधी लोगों की नाराजगी को भांपने में विफल रही थीं। इसका नतीजा की कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा था। राजनीतिक विमर्श आज भी इस हार का जिक्र होता है। 1977 में चुनाव में इंदिरा गांधी कांग्रेस के तमाम दिग्गज चुनाव हारे थे तो वहीं गुजरात से 26 साल के अहमद पटेल ने चुनाव जीतकर अपने संसदीय जीवन की शुरुआत की थी। इसके चलते वे कांग्रेस नेतृत्व की नजर में आ गए थे। इसके बाद अहमद पटेल 1980 और फिर 1984 में फिर चुने गए और लोकसभा में पहुंचे। 1977 में अहमद पटेल जब युवा थे तो उनके टिकट लिए सुपर स्टार एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन ने सिफारिश की थी। बच्चन के साथ-साथ हरी सिंह मैदा ने भी इंदिरा गांधी से 26 साल के युवा को टिकट देने के लिए कहा था। 1977 में उन्होंने न सिर्फ जीत दर्ज की थी, बल्कि जनता पार्टी के प्रत्याशी को बड़े अंतर से हराया था और यह अंतर 62 हजार वोटों का था। उनकी यह जीत कांग्रेस विरोधी लहर उलट थी। कांग्रेस सत्ता से वंचित हुई थी लेकिन अहमद पटेल एक सितारे के तौर चमके थे। अहमद पटेल 1989 तक भरूच के सांसद रहे।
चंदू देशमुख ने हराया
एहसान जाफरी के बाद अहमद पटेल दूसरे ऐसे मुस्लिम थे, जो गुजरात से चुनकर लोकसभा पहुंचे थे, लेकिन 1989 के चुनाव में हार लिखी हुई थी, तीन बार से जीतते आ रहे अहमद पटेल फिर से मैदान में थे। तो इस बार उनका मुकाबला चंदू भाई देशमुख से था। हिन्दुत्व पर सवार हो रही बीजेपी ने भरूच के कांग्रेसी गढ़ को भेदने के लिए पूरी घेरेबंदी की हुई थी। हुआ भी ऐसा ही, चौथी बार मैदान में उतरे अहमद पटेल को हार का सामना करना पड़ा। चंदूभाई देशमुख को 3 लाख 60 हजार से अधिक वोट मिले तो वहीं अहमद पटेल को सिर्फ 2 लाख 45 हजार वोट मिले। इसके बाद तीन और चुनाव हुए लेकिन कांग्रेस वापसी नहीं कर पाई। बीजेपी के चंदूभाई जीतते रहे और नौ साल तक भरूच का लोकसभा में नेतृत्व किया। आखिरकार अहमद पटेल को राज्यसभा जाना पड़ा। 1998 में चंदूभाई देशमुख का निधन हुआ। तो उपचुनाव की स्थिति बनी। इस चुनाव में अहमद पटेल ने कांग्रेस को जिताने की रणनीति बनाई, लेकन वे सफल नहीं हो पाए। त्रिकोणीय संघर्ष में फिर से यह सीट फिर बीजेपी के पाले में चली गई और मनसुख वसावा यहां से विजयी हुए। पिछले छह लोकसभा चुनावों से भरूच में कमल खिल रहा है। यूपीए-1 और यूपीए-2 कार्यकाल में भी अहमद पटेल इस सीट पर कांग्रेस को नहीं जिता पाए।
बदल गई थीं परिस्थितियां
गुजरात के जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक डॉ. जयेश शाह कहते हैं 1989 का चुनाव पहला चुनाव था। जब बीजेपी ने हिन्दुत्व नहीं बल्कि प्रखर हिंदुत्व को अपनाया था। इसकी अगुवाई उस समय के बीजेपी नेता नलिन भट्ट ने की थी। उन्होंने भरूच में खुलकर आक्रामक तौर प्रचार किया था, और लोगों से नारे जरिए पूछा था कि आपको शांति चाहिए या फिर अशांति। बीजेपी की यह रणनीति कारगर हुई थी और अहमद पटेल को कारारी हार का सामना करना पड़ा था। शाह कहते हैं इस हार के बाद अहमद पटेल फिर चुनाव नहीं लड़े और सीधे केंद्र की राजनीति में चले गए। शाह कहते हैं अगर बीजेपी के लिए गुजरात अगर हिंदुत्व की प्रयोगशाला है। तो भरूच वो जगह है जहां से इसकी शुरुआत हुई थी।
पटेल के बिना पहला चुनाव
अहमद पटेल 1993 से नवंबर 2020 तक राज्यसभा सांसद रहे। यह पहला मौका होगा जब गुजरात के चुनावों में वे दिखाई नहीं देंगे। अगर विधानसभा की बात करें तो सात विधानसभा सीटें आती हैं। इनमें से सिर्फ सीट जंबुसर पर कांग्रेस का कब्जा है। बाकी सीटों पर बीजेपी काबिज है। अहमद पटेल की हार के बाद कांग्रेस को गुजरात से कोई सांसद नहीं मिला। 2017 के राज्यसभा चुनाव में काफी मुश्किल से अहमद पटेल राज्यसभा पहुंच पाए थे। इस चुनाव काफी हाई-वोल्टेज ड्रामा भी सामने आया था।
भरुच बना गया भगवा किला
कांग्रेस में अच्छा रसूख रखने वाले अहमद पटेल ने हमेशा पर्दे के पीछे की राजनीति की। उन्हें 1996 में कोषाध्यक्ष बनाया गया, हालांकि विरोध और विवाद के बीच उन्होंने यह पद छोड़ दिया। 2001 में वे सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार बने और आखिर तक इसी ओहदे के साथ काम करते रहे। ताजुब्ब की बात यह कि पिछले नौ चुनावों से कोई भी मुस्लिम कांग्रेस की टिकट गुजरात से लोकसभा नहीं पहुंच पाया है। राजनीति विश्लेषक कहते हैं कि 1989 में अहमद पटेल भ्रम थे, कि वे जीत जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। उनकी हार के साथ भरूच भगवा किला में तब्दील हो गया। इस असर विधानसभा सीटों पर पड़ा। धीरे-धीरे विधानसभा की सीटें भी भाजपा के पास चली गईं। अब देखना दिलचस्प होगा कि अहमद पटेल की विरासत को कौन आगे बढ़ाता है।