मुलायम सिंह यादव न होते तो लालू यादव बिहार के सीएम नहीं बनते

Mulayam Singh Yadav : राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता है। मियां-बीवी भी एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोकते हैं। यही बात मुलायम सिंह यादव और लालू यादव पर लागू होती है। वीपी सिंह ने जो मुलायम के साथ यूपी में किया , वही लालू के साथ बिहार में।

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लालू को सीएम बनाने के लिए मुलायम ने पटना कैंप किया

नई दिल्ली: मुलायम सिंह यादव की अधूरी ख्वाहिशें खबरों में है। कैसे धरतीपुत्र दो बार प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए। ये भी उनके निधन के बाद हमलोग याद कर रहे हैं। दोनों ही बार नेताजी के पीएम बनने के लिए लालू प्रसाद यादव को जिम्मेदार बताया गया है। वही लालू यादव जिन्हें बिहार का सीएम बनाने के लिए मुलायम सिंह यादव ने पटना कैंप किया था। अगर वो और शरद यादव नहीं होते तो बाजी लालू यादव के हाथ से निकल सकती थी। ये सारा खेल चुनावी नतीजों में जनता दल को मिली जीत के बाद की है। 1989 में दिल्ली में जनता दल सत्ता पर काबिज हुई। वीपी सिंह पीएम बने। उसके कुछ ही महीनो बाद नवंबर में यूपी के चुनाव हुए। जनता दल जीती तो वीपी सिंह ने अजित सिंह को सीएम बनाने की पेशकश की। लेकिन मुलायम सिंह यादव ने खेल कर दिया। डीपी यादव और बेनीप्रसाद वर्मा के सहयोग से विधायक दल की बैठक में बहुमत हासिल कर लिया। ठीक ऐसी ही हालत तीन महीने बाद बिहार में पैदा हो गई।

बिहार विधानसभा के चुनाव फरवरी, 1990 में हुए। नीतजे आए तो 324 में से 132 सीटें जनता दल को मिली। तब लालू प्रसाद यादव सांसद थे। जेपी लहर में 1977 में वह छपरा से जीते थे। कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता की भूमिका छोड़ वो दिल्ली पहुंच गए ते। लेकिन विधानसभा चुनाव में पार्टी के जीतने के बाद पटना पहुंच गए और सीएम बनने की जिद कर दी। उधर विश्वनाथ प्रताप सिंह चार महीनों में दूसरी हार नहीं चाहते थे। पहली हार तो यूपी में मिली जब उनका ही कैंडिडेट हार गया। अब वो बिहार में मंडल पॉलिटिक्स को आगे रखने के लिए किसी दलित को सीएम बनाना चाहते ते। उनकी पसंद थे रामसुंदर दास। दरअसल ये सब तबके जनता दल के भीतर की गुटबाजी का नतीजा थी। लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव जाट नेता देवीलाल गुट के थे।

वीपी सिंह की दलील थी कि लालू यादव विधानसभा या विधान परिषद के सदस्य भी नहीं है, लिहाजा उनका दावा नहीं बनता है। उधर रामसुंदर दास 1979-80 में कुछ महीनों के लिए सीएम रह चुके थे। वीपी सिंह ने मुलायम विरोधी अजित सिंह, जॉर्ज फर्नांडिस और सुरेंद्र मोहन को पटना भेज दिया ताकि अधिकतर विधायकों को रामसुंदर दास के पक्ष में किया जा सके।

यादवों की तिकड़ी

लेकिन लालू यादव आलाकमान के फरमानों को सुनने के मूड में नहीं थे। लालू जनता दल की गुटबाजी का सहारा लेकर एक गहरी चाल चल चुके थे। उन्होंने विधायक दल का नेता चुनने के लिए चुनाव कराने की मांग कर दी। उन्हें देवीलाल का समर्थन मिल रहा था। बुजुर्ग जाट ने दो यादवों शरद और मुलायम सिंह यादव को तीसरे संकटग्रस्त यादव यानी लालू के समर्थन में पटना भेज दिया। इधर लालू ने वीपी सिंह के विरोध चंद्रशेखर को भी अपने पक्ष में मना लिया। यादवों की तिकड़ी ने जबर्दस्त चाल चली।

जिस दिन नेता के चुनाव के लिए जनता दल के विधायकों की बैठक थी, वहाँ अचानक मुख्यमंत्री पद के दो के बजाय तीन दावेदार प्रकट हो गए। रघुनाथ झा चंद्रशेखर के उम्मीदवार के रूप में दौड़ में शामिल हो गए थे। निस्संदेह वे मुख्यमंत्री पद के गंभीर उम्मीदवार नहीं थे। वे सिर्फ विधायक दल के वोटों का विभाजन करने आए थे, ताकि लालू यादव को फायदा हो जाए। लालू यादव ने विरोधी वोटों को बांटने की इसी रणनीति के सहारे आगे भी बिहार पर राज किया। रघुनाथ झा को अपने मिशन में अच्छी सफलता मिली। वोट जाति के आधार पर विभाजित हो गए। दलितों ने रामसुंदर दास के लिए वोट किया, सवर्णों ने रघुनाथ झा का साथ दिया। लालू ने वोट बांट कर मामूली अंतर से जीत हासिल कर ली। उन्हें पिछड़ी जाति के अधिकांश वोट मिल गए। 10 मार्च को ऐतिहासिक गांधी मैदान में लालू यादव ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। हालांकि कुछ महीनों के बाद जब वीपी सिंह ने देवीलाल को कैबिनेट से निकाल दिया और पार्टी टूट गई तो लालू ने झट से पाला बदल लिया। वो मांडा के राजा के साथ हो गए।