हड़िया: ‘लिकर ऑफ झारखंड’ जिसने दुनिया को चखाया ‘राजस बियर’ का स्वाद

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34वें राष्ट्रीय खेल में कराटे चैंपियन रहीं जांबाज खिलाड़ी विमला मुंडा का एक वीडियो इन दिनों सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हो रहा है. असल में इस खिलाड़ी की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गई है कि उसे हड़िया (राइस बियर) बेचकर गुजारा करना पड़ रहा है. इस वीडियो पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं.

 

कुछ लोग विमला की मदद करने के लिए आगे भी आए हैं. मगर कुछ ऐसे हैं जो ये नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर यह हड़िया है क्या? हड़िया कोई छोटी मोटी चीज नहीं. बल्कि “लिकर ऑफ झारखंड” कहलाती है. जिसे शहर के महंगे बार में बैठकर आप राइस बियर के नाम से ऑर्डर करते हैं. हमें विमला से पूरी सहानुभूति है. उम्मीद है कि जैसे “बाबा का ढाबा” का जीवन चल पड़ा है. वैसे ही विमला की जिंदगी भी पटरी पर आ जाएगी. हालांकि,  हमारी कहानी असल में हड़िया या यानि के राइस बियर या फिर यूं कहें कि ‘लिकर ऑफ झारखंड’ के बारे में हैं.

आदिवासियों ने रखा है पोषण का ख्याल

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सबसे पहले तो यह समझ लीजिए ​कि लिकर ऑफ झारखंड का मतलब अल्कोहल से कतई नहीं है. बल्कि इसे झारखंड के मूल आदिवासियों ने बहुत सोच समझ कर इजाद किया है. हड़िया एक मादक पेय होते हुए भी आदिवासियों की परम्परा और सांस्कृतिक​ विरासत का एक हिस्सा रहा है. यह खास पेय तैयार होता है चावल और रानू नाम की जंगली जड़ी से. 

जंगली बूटी चैली कंदा की जड़ में पाई जाने वाले इस खास जड़ी को अरवा चावल के आटे में कूट कर मिलाया जाता है और गोलियां तैयार कर ली जाती हैं. हड़िया चावल के भात से बनता है और इसमें चावल के अतिरिक्त गेहूँ और मडु़वा को भी मिलाया जाता है. वैसे आदिवासियों में करैनी धान के चावल से बने हड़िया को ज्यादा पसंद ​किया जाता है. 

सबसे पहले चावल को पकाया जाता है जिसे आदिवासी सिंझाने की विधि कहते हैं. इसके बाद चावल को ठंडा किया जाता है, जिसे भात ‘जुड़ाना’ कहा जाता है. जब यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है तो एक बड़े बर्तन या डलिया में भात का उड़ल देते हैं, जिस भात पसारना कहा जाता है. अब इस पसरे हुए न गर्म न ठंडे भात में रानू की गोली पाउडर बनाकर मिलाई जाती है. 

उसके बाद इस भात पर कोई बर्तन ढांककर फर्मेेन्टेशन के लिए रख दिया जाता है. कुछ लोग चावल के साथ गेहूं को भी उबालते हैं. अगर मौसम सर्दियों का है तो कम से कम 4 दिन और अगर ​गर्मियां हैं तो कम से कम दो दिन तक चावलों को ऐसे ही रखे रहने देते हैं. समय पूरा होने के बाद चावल को घोटकर कर उसमें पानी मिलाया जाता है.

बस हड़िया तैयार. आदिवासियों ने हड़िया के मूल रूप में पोषण का ध्यान रखा है. जिस रानू की बात की जा रही है उस जड़ी में हाई कैलोरी होती है साथ ही यह प्रोटीन का भी अच्छा सोर्स है. चावल और गेहूं के कारण फाइबर और कार्बोहाइड्रेट भी भरपूर मात्रा में मिलता है.

स्वागत का एक प्रचलित तरीका था हड़िया

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असल में आदिवासियों का यह खास पेय रोजमर्रा की जरूरतों या फिर नशे के लिए नहीं बनाया गया. बल्कि हड़िया खासतौर पर घर में किसी धार्मिक आयोजन के लिए या फिर मेहमानों के लिए बनाया जाता रहा है. जो आदिवासी खेती करते हैं या मेहनत का काम करते हैं उन्हें तंदरुस्त बनाएं रखने के लिए भी हड़िया दिया जाता रहा है. 

आदिवासी परिवारों में कुल देवता की पूजा के लिए हड़िया सबसे प्रथम भोज्य पदार्थ है. शादी-ब्याह, जन्म-मरण के अवसरों पर भी हड़िया का सेवन किया जाता है. अगर किसी को पीलिया है तो उस व्यक्ति को दिन में तीन बार हड़िया पिलाया जाता है, जानकार बताते हैं कि इससे केवल 3 दिन के भीतर की स्वास्थ्य में बेहतर सुधार दिखाई देता है. 

इसके अलावा हड़िया पीने से कब्ज से राहत, डायरिया से बचाव और ब्लड प्रेशर कंट्रोल में भी मदद मिलती है. गर्मियों में डिहाइड्रेशन से बचने के लिए दिन में दो बार हड़िया पिया जा सकता है.चावल, गेहूँ या मडुवा के भात से एक बार बना हड़िया 15 दिन तक इस्तेमाल किया जा सकता है. आदिवासी परिवारों में महीनें में दो बार हड़िया बनाने का चलन रहा है. 

पर जब झारखंड के आदिवासी काम की तलाश में बाहर निकले तक उनके साथ हड़िया की यह रेसिपी भी प्रदेश के बाहर पहुंची. वैसे तो इसमें किसी प्रकार का नशा नहीं है, यह बस एक तरह का एनर्जी ड्रिंक है पर बदलाव के दौर से गुजरते हुए आदिवासियों का हड़िया राइस बियर में तब्दील हो गया.

आज जो हो रहा है वो गलत है!

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अब आप कहेंगे कि जब यह पौष्टिक है तो इसे लिकर की कैटेगिरी में डाल कर “लिकर ऑफ झारखंड” क्यों कहा जाता है? असल में हड़िया में लिकर वाली कोई बात नहीं रही, वह नशे के लिए नहीं बल्कि तंदुरूस्ती के लिए पिया जाने वाला एक साधारण पदार्थ था. पर इसे बनाने की विधी ठीक वैसी ही है जैसे बियर बनाने की होती है. 

हडिया की रेसिपी में कुछ बदलाव कर शराब निर्माता कंपनियों ने इसमें एल्कोहल की मात्रा मिलाना शुरू की. हड़िया के रंग को भी काफी साफ किया गया, जिसके बाद हमें उसका बदला हुआ स्वरूप यानि राइस बियर मिली. राइस बियर की मांग भारत से ज्यादा पश्चिमी देशों में हैं. लेकिन जितनी इसकी पॉपुलर​टी है उतना ही विरोध भी होता है. 

असल में झारखंड के युवा हड़िया के नाम पर आज जो पी रहे हैं वह एक तरह का नशा है. हड़िया को नशीला बनाने के लिए इसमें लोकल स्तर पर यूरिया मिलाया जाता है. यूरिया शरीर के लिए बहुत नुकसानदायक है पर यह सस्ते नशे का एकमात्र साधन है. जो लोग महंगी शराब नहीं ले पाते हैं वे यूरिया मिलाकर बने हड़िया का सेवन करते हैं, जो कई बार खतरनाक साबित हुआ है.

यूरिया मिलाने के बाद अब शहरों-बाजारों में जहाँ-तहाँ रोड किनारे हड़िया की भी खुलेआम ब्रिक्री शुरू हो गई है. कोल माइन्स में काम करने वाले युवा इसे नशे के तौर पर पीने के आदि हो चले हैं और इसलिए अब झारखंड में हड़िया को बंद करने की मांग शुरू हो गई है. वैसे कोरोना काल में एक नया तथ्य ये भी सामने निकलकर आया है.

तथ्य यह है कि  जिन परिवारों में पारंपरिक बिना मिलावट वाला हड़िया पीने की आदत रही है, उनकी इम्युनिटी काफी सख्त रही. इसलिए वे कोरोना से काफी हद तक बचे रहे. इस तथ्य में कितनी सच्चाई है ये तो नहीं कहा जा सकता पर इतना जरूर है कि जिस हड़िया को आदिवासियों ने “लिकर ऑफ झारखंड” बनाया है उसका असली स्वरूप में मिलना मुश्किल हो चला है.