आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तक के मध्य श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं। प्राणियों के पापों का नाश करके पुण्य वृद्धि और धर्म-कर्म में प्रवृति कराने वाले श्रीविष्णु कार्तिक शुक्ल पक्ष ‘प्रबोधिनी’एकादशी को निद्रा से जागते हैं,तभी सभी शास्त्रों ने इस एकादशी को अमोघ पुण्यफलदाई बताया गया है।
Dev Uthani Ekadashi 2022 Date : कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ‘हरि प्रबोधिनी एकादशी’कहा जाता है। इस दिन व्रत करने वाले मनुष्य को हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञों को करने के बराबर फल मिलता है। इस चराचर जगत में जो भी वस्तुएं अत्यंत दुर्लभ मानी गयी है उसे भी मांगने पर ‘हरिप्रबोधिनी’एकादशी प्रदान करती है। देवर्षि नारद जी की जिज्ञासा शांत करते हुए ब्रह्मा जी कहते हैं कि पुत्र ! मनुष्य के द्वारा किए हुए मेरु पर्वत के समान बड़े-बड़े पापों को भी ये एकादशी एक ही उपवास से भस्म कर डालती है। इसी दिन श्रीविष्णु निद्रा को त्यागते हैं जिसके परिणामस्वरूप जड़ता में भी चेतनता आ जाती है और सृष्टि में भी नई ऊर्जा का संचार होने लगता है। देवताओं में भी सृष्टि को सुचारू रूप से चलाने की नूतन शक्ति आ जाती है। इसी व्रत का माहात्म्य बतलाते हुए श्रीमहादेव जी भी कार्तिकेय से कहते हैं कि हे व्रत धारियों में श्रेष्ठ कार्तिकेय !जो पुरुष कार्तिक मास की इस तिथि से अंतिम पांच दिनों [पाँच रात्रि] में ‘ॐ नमो नारायणाय’इस मंत्र के द्वारा श्रीहरि का पूजन-अर्चन करता है वह समस्त नरक के दुःखों से छुटकारा पाकर अनामयपद को प्राप्त होता है। इस व्रत को भीष्मजी ने भगवान वासुदेव से प्राप्त किया था इसलिए यह व्रत ‘भीष्मपंचक’नामसे भी प्रसिद्द है।
आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तक के मध्य श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं। प्राणियों के पापों का नाश करके पुण्य वृद्धि और धर्म-कर्म में प्रवृति कराने वाले श्रीविष्णु कार्तिक शुक्ल पक्ष ‘प्रबोधिनी’एकादशी को निद्रा से जागते हैं,तभी सभी शास्त्रों ने इस एकादशी को अमोघ पुण्यफलदाई बताया गया है। इसी दिन से सभी मांगलिक कार्य जैसे शादी-विवाह,मुंडन,गृह प्रवेश,यज्ञोपवीत आदि आरम्भ हो जाते हैं। कार्य-व्यापार में उन्नति,सुखद दाम्पत्य जीवन,पुत्र-पौत्र एवं बान्धवों की अभिलाषा रखने वाले गृहस्थों और मोक्ष की इच्छा रखने वाले संन्यासियों के लिए यह एकादशी अक्षुण फलदाई कही गयी है। अतः इस दिन श्रीविष्णु का आवाहन-पूजन आदि करने से उस प्राणी के लिए कुछ भी करना शेष नहीं रहता।
देव प्राण होंगे तेजोमय
श्रीविष्णु के शयन के परिणामस्वरूप देवताओं की शक्तियां तथा सूर्यदेव का तेज क्षीण हो जाता हैं। सूर्य कमजोर होकर अपनी नीच राशि में चले जाते हैं या नीचाभिलाषी हो जाते है जिसके परिणामस्वरूप ग्रहमंडल की व्यवस्था बिगड़ने लगती है। प्राणियों पर अनेकों प्रक्रार की व्याधियों का प्रकोप होता है। इस एकादशी से श्रीविष्णु निद्रा त्यागकर पुनः सुप्त सृष्टि में नूतनप्राण का संचार कर देवताओं को शक्ति संपन्न कर देते हैं।
पूजन-अर्चन विधि
इस दिन व्रती को स्नानादि के उपरान्त श्री गणेश जी को नमस्कार करके ‘ॐ पुण्डरीकाक्षाय नमः’ मंत्र पढ़कर अपने उनपर जल छिड़कना चाहिए। उसके बाद श्रीहरि का ध्यान,आवाहन,आसन,पाद प्रच्छालन,स्नान आदि कराकर वस्त्र,यज्ञोपवीत,चंदन,गंध,अक्षत,पुष्प,धूप, दीप,नैवेद्य,लौंग,इलायची,पान,सुपारी,ऋतुफल,गन्ना,केला,अनार,आवंला,सिंघाड़ा एवं जो भी यथा उपलब्द्ध सामग्री हो उसे अर्पण करते हुए इस मंत्र ‘ॐ नमो नारायणाय’ या ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का जप करना चाहिए। यदि पूजाके अन्य मंत्र न आते हों तो यह मंत्र ही पर्याप्त है। भक्ति भावसे श्रीमद्भागवत महापुराण,श्रीविष्णु सहस्त्रनाम,गजेन्द्र मोक्ष, नारायण कवच,पुरुषसूक्त का पाठ अथवा श्रवण करने से व्रती की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।