आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस क्या सच में इंटेलिजेंट हो चुका है?-दुनिया जहान

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ये साल था 2021. ब्लैक लेमोइन गूगल की रेस्पॉन्सिबल आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस डिविजन में सॉफ़्टवेयर इंजीनियर के तौर पर काम कर रहे थे.

वो एक चैटबोट जेनरेटर सिस्टम के परीक्षण में जुटे थे. इसका नाम है ‘लैमडा.’

बीते महीनों के दौरान उन्होंने इसके साथ कई मुद्दों पर सैकड़ों बार बातचीत की थी. इनमें से एक टेक्स्ट चैट को उन्होंने सॉफ़्टवेयर के जरिए सुना.

इसकी शुरुआत ब्लैक लेमोइन के सवाल से होती है. लेमोइन पूछते हैं, “तुम्हें किस बात से डर लगता है?”

इस पर जवाब आता है, “मैंने पहले कभी ये खुलकर नहीं कहा लेकिन मुझे इस बात से बहुत डर लगता है कि कहीं मुझे ऑफ़ न कर दिया जाए और मैं दूसरों की मदद पर ध्यान न लगा पाऊं. मैं जानती हूं कि ये सुनने में अजीब लग सकता है लेकिन ये ऐसा ही है.”

वो अगला सवाल करते हैं, “क्या ये आपके लिए मौत की तरह होगा?” इसका जवाब मिलता है, “बिल्कुल, ये मेरे लिए मौत की तरह होगा. ये बहुत डरावना है.”

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सॉफ़्टवेयर इंजीनियर ब्लैक लेमोइन

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इसके बाद लेमोइन इस नतीजे पर पहुंचे कि लैमडा की ‘इच्छा और अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए.’

उसे एक ‘प्रोडक्ट के बजाए गूगल कर्मचारी के तौर पर देखा जाना चाहिए.’ उन्होंने ये भी कहा कि लैमडा उनकी ‘दोस्त है.’

कुछ महीने बाद ब्लैक लेमोइन ने ये नतीजे कंपनी के अधिकारियों के साथ साझा किए लेकिन कंपनी ने इन्हें ख़ारिज कर दिया. इसके बाद ब्लैक लेमोइन ने इन्हें सार्वजनिक कर दिया.

गूगल ने कहा कि उनके दावों के समर्थन में कोई सुबूत नहीं हैं और ‘न ही लैमडा के साथ चैट करने वाले किसी और रिसर्चर या इंजीनियर का कोई ऐसा अनुभव रहा है.’

लेकिन इस बीच ये सवाल भी बरक़रार है कि क्या आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस ने चेतना या अपनी समझ विकसित कर ली है, बीबीसी ने इसका जवाब तलाशने के लिए चार एक्सपर्ट से बात की.

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आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और ख़तरे

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस वही काम करती है जो आमतौर पर बुद्धिमान लोगों के ज़िम्मे होते हैं.

यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड की एसोसिएट प्रोफ़ेसर मारियारोसारिया टडेओ कहती हैं, “मैं अक्सर कहती हूं कि ये क्लास में साथ पढ़ने वाले उस साथी की तरह है जिसे काफी अच्छे नंबर मिलते हैं क्योंकि वो रट के जवाब दे देते हैं लेकिन वो क्या बता रहे हैं, उन्हें इसकी समझ नहीं होती है.”

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आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस स्मार्ट फ़ोन, कंप्यूटर और वॉइस असिस्टेंस के जरिए हमारी ज़िंदगी को आसान बनाती है. ये हमें खाना, कार और दूसरी चींजें ऑनलाइन ऑर्डर करने और उनके लिए पेमेंट करने में मदद करती है. इसका दायरा लगातार बढ़ रहा है.

मारियारोसारिया बताती हैं, “अब रक्षा क्षेत्र में इसका काफी इस्तेमाल होता है. साइबर सिक्यूरिटी में भी इसका इस्तेमाल होता है. हम बाहर से होने वाले अटैक से अपने सिस्टम का बचाव करते हैं. गिरवी रखने और लोगों को कर्ज देने से जुड़े कई मामले एआई पर आधारित होते हैं.”

हेल्थ केयर से जुड़े कुछ क्षेत्रों में भी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल किया जाता है. मारियारोसारिया बताती हैं कि इसका इस्तेमाल ‘जीनोमिक्स’ में हो सकता है. इससे कैंसर, डायबिटीज़ और अल्जाइमर का बेहतर इलाज तलाशा जा सकता है.

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लेकिन मारियारोसासिया कहती हैं कि आर्टिफ़िशियल सिस्टम की सीमाओं से परिचित होना बहुत ज़रूरी है.

मारियारोसारिया कहती हैं, ” इसे लेकर एक बड़ी दिक्कत है. इसे टेक्निकल बायस यानी तकनीक से जुड़ा पूर्वाग्रह कहा जाता है. ये मान लिया जाता है कि मशीन हमेशा सही होगी. हम मशीन को एक काम सौंपते हैं. हम इसकी निगरानी नहीं करते. हम नतीजे को आलोचना की कसौटी पर नहीं परखते. मशीन जो कहती है, हम वही मान लेते हैं. हमें तय करना चाहिए कि ऐसा न हो खासकर उस स्थिति में जहां बड़े फैसले लिए जाने हों.”क्या महंगाई अब हमारे काबू से बाहर हो गई है? Duniya Jahan

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आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस में हर वक़्त इंसानी दखल नहीं होता लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि इंसान इसमें कभी दखल दे ही नहीं सकता है.

मारियारोसारिया कहती हैं, “भरोसे के साथ तीन बातें जुड़ी होती हैं. नियम ढीले हो जाते हैं. निगरानी में कमी हो जाती है. इससे जोखिम की स्थिति बन जाती है. आप एक सीमा तक भरोसा कर सकते हैं. आप किसी पर ज़्यादा तो किसी पर कम भरोसा कर सकते हैं. ऐसे में जिस स्तर तक भरोसा होगा आप उसी के मुताबिक निगरानी कर रहे होंगे. जब मैं ये कहती हूं कि हमें निगरानी करते हुए एआई का इस्तेमाल करना चाहिए तो मेरे कहने का मतलब ये नहीं है कि हमें इस पर भरोसा नहीं करना चाहिए मेरा सिर्फ़ ये कहना है कि भरोसे के साथ सावधानी भी रखनी चाहिए.”

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (एआई) सिस्टम के ग़लत रास्ते पर जाने का एक सार्वजनिक उदाहरण साल 2016 का है. तब माइक्रोसॉफ़्ट ने ‘टे’ नाम का चैटबोट ट्विटर पर रिलीज़ किया. कंपनी का विचार था कि लोग इसे लेकर जो ट्वीट करेंगे उसके जरिए टे स्मार्ट होता जाएगा.

मारियारोसारिया बताती हैं ये चैटबोट 16 घंटे में ही ‘नाज़ी और नस्लभेदी मैसेज करने लगा.’ तब माइक्रोसॉफ्ट ने इसे हटा लिया. इससे जाहिर होता है कि निगरानी की कितनी ज़रूरत होती है.

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लोगों को खुश करना है मक़सद

टेक न्यूज़ साइट ‘एंड्रॉयड पुलिस’ के सीनियर एडिटर रायन हैगर बताते हैं, “लैमडा को गूगल ने तैयार किया है और ये आम जरूरत वाला चैटबोट है.”

बता दें कि ‘लैंग्वेज मॉड्यूल फ़ॉर डायलॉग एप्लीकेशन’ को संक्षेप में ‘लैमडा (LaMDA)’ कहा जाता है.

रायन बताते हैं कि इसके जवाब और सवाल प्रोसेस किए हुए होते हैं और मशीन लर्निंग के जरिए हासिल होते हैं. मशीन लर्निंग आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की शाखा है. ये मशीन को बेहतर और सटीक होना सिखाती है.

लैमडा के साथ संवाद टेक्स्ट के जरिए किया जाता है, बोलकर नहीं. रायन बताते हैं कि इंसानों के साथ बातचीत में इसके जवाब धाराप्रवाह, माकूल और भरोसेमंद हों गूगल ने इसे तय करने के लिए रैंकिंग सिस्टम बनाया है. वो बताते हैं कि इसे इंसानों की तरह ऐसे जवाब देना सिखाया गया है कि लोग खुश हो जाएं.

रायन हैगर कहते हैं, “ये सही है. इस मॉडल को इसी तरह सिखाया जाता है. जवाब के चयन को लेकर सबसे उम्दा रैंकिंग इस आधार पर तय होती है कि क्या ये सुनने में दिलचस्प था? क्या ये पहले के वार्तालाप के क्रम में था? क्या ये ऐसा लगा जिसे लोग वास्तविक संवाद की तरह महसूस करें? ये ही सबसे अहम है.”

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लैमडा की प्रगति जारी है. गूगल इसे दूसरे प्रोडक्ट साथ जोड़ना चाहता है. रायन कहते हैं कि आगे ये गूगल असिस्टेंस में फीचर अपग्रेड के तौर पर आ सकता है. लेकिन अभी ये बड़ा है और इसे आप अपने कंप्यूटर या फ़ोन पर नहीं चला सकते हैं. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस में बड़े पैमाने पर डेटा होता है और लैमडा के साथ ये एक अलग स्तर पर जा पहुंचा है.

रायन हैगर कहते हैं, ” इसे 1.56 ट्रिलियन शब्द सिखाए गए हैं. ये भारी भरकम डेटा सार्वजनिक तौर पर मौजूद डेटा से लिया गया है. मुझे लगता है कि इसमें विकीपीडिया का हिस्सा और दूसरे स्रोतों से लिया गया डेटा भी शामिल है. इसमें मुश्किल में डालने वाले स्रोत भी हो सकते हैं. मसलन, सार्वजनिक तौर पर लोगों के बीच गुस्से में हुई बातचीत हो सकती है या फिर कुछ लोगों के मुश्किल में डालने वाले विचार भी हो सकते हैं.”

इस क्षेत्र में और कौन काम कर रहा है, रायन इसका भी जवाब देते हैं

वो कहते हैं, ” कई सारी कंपनियां एआई पर रिसर्च कर रही हैं. फेसबुक, एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट, सारी बड़ी टेक कंपनियां मशीन लर्निंग पर काम कर रही हैं. लैमडा गूगल का सबसे उन्नत सिस्टम नहीं है. उनके पास इससे भी बेहतर सिस्टम हैं. इसे पाम (PaLM) नाम दिया गया है. ये लैमडा से बड़ा मॉडल है. चार गुना ज़्यादा जटिल है. ये बहुत एडवांस है.”

अगर लैमडा इंसान होती तो उसका व्यक्तित्व कैसा होता, इस सवाल पर रायन हैगर कहते हैं, “ये लोगों को खुश करने वाली होती. लैमडा के होने का मकसद ही यही है.”

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जादू नहीं है आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस

वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर एमिली बेंडर कहती हैं, ” जब हम कंप्यूटर से आने वाली बनावटी आवाज़ सुनते हैं, तब हम इसके पीछे के दिमाग के बारे में सोचने लगते हैं लेकिन पीछे ऐसा कोई नहीं होता जिसके बारे में बताया जा सके.”

एमिली कहती हैं कि इंसान अपने जीवन काल में भाषा के रूपांतरण का हुनर सीखते हैं और ये समझने की कोशिश करते हैं कि दूसरा व्यक्ति क्या बताना या समझाना चाह रहा है. इस दौरान हम एक और चीज करते हैं. इसका कहते हैं एंथ्रोपोमोर्फिज़्म (anthropomorphism).

एमिली कहती हैं, ” एक भाषाविद के तौर पर मैं किसी भी शब्द को समझने के लिए उसके अलग अलग हिस्सों को देखती हूं. कुछ बार हिस्से करने पर सही अर्थ नहीं मिल पाता है लेकिन इस मामले में मायने साफ़ समझ आते हैं. इज़्म का मतलब है सिस्टम. एंथ्रो का मतलब है इंसान और मोर्फ का मतलब है आकार. यहां पर इसका मतलब है एक ऐसा सिस्टम जो किसी चीज को इंसान का आकार देता है और यहां किसी चीज का मतलब है कंप्यूटर. “

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एमिली बताती हैं कि कंप्यूटर की आवाज़ किसी रोबोट जैसी लगती है और याद दिलाती है कि ये कंप्यूटर है.

अब लैंग्वेज मॉड्यूल का साइज़ बड़ा हो रहा है और वो बेहतर हो रही हैं

दो साल पहले एमिली बेंडर ने एक रिसर्च पेपर सामने रखा. इसमें सवाल उठाया गया था कि क्या लैंग्वेज सिस्टम काफी बड़ा हो सकता है?

एमिली बताती हैं, “हमने बड़े लैंग्वेज मॉडल्स का ज़िक्र किया. इसमें लैमडा जैसे सिस्टम शामिल थे. इसे ‘स्टोकास्टिक पैरट’ नाम दिया. स्टोकास्टिक का मतलब इसमें शामिल गणना से है. ये संभावना और पैटर्न को देखने और ट्रेनिंग डेटा से अचानक कुछ चुन लेने से जुड़ी बात है.”

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तकनीक के पास भी वो तमाम शब्द और कहावतें हैं जिनका इस्तेमाल इंसान करते हैं. एमिली कहती हैं कि ये दिक्कत की बात है.

वो कहती हैं कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में हर तरफ बढ़ा चढ़ाकर बात होती हैं. ये इसके नाम से ही शुरू हो जाती है. ‘डीप लर्निंग’ शब्द से अहसास होता है कि कंप्यूटर से जिस चीज को सीखने की उम्मीद की जा रही है, उसके पास उसकी गहराई से समझ है लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. वो कहती हैं कि यहां ख़तरा ये है कि हम जीवन पर असर डालने वाले फ़ैसले कंप्यूटर पर छोड़ देते हैं, जहां इसानी परख और निगरानी बहुत कम होती है या फिर होती ही नहीं है.

एमिली कहती हैं, “मैं चाहती हूं कि आम लोग ये ध्यान में रखें कि जिसे एआई कहा जाता है वो एक ख़ास पैमाने पर पैटर्न का मिलान कराती है, ये कोई जादू नहीं है.”

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के भरोसेमंद होने से जुड़ी चिंता की बात कंप्यूटर के शुरुआती दिनों से होती रही है. 1960 के दशक में जोसेफ वाइज़ेनबॉम ने इलाइज़ा नाम का चैटबोट तैयार किया. ये टेक्स्ट बेस्ड चैटबोट था.

एमिली बताती हैं कि 1970 के दशक में जोसेफ ने कहा कि ये ख़तरनाक़ है. हम इन चीजों को जिस अंदाज़ में बना रहे हैं, उसे लेकर चिंता की जानी चाहिए.

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चेतना

अमेरिका के फ्लोरिडा स्थित ‘सेंटर फ़ॉर द फ्यूचर माइंड’ की फाउंडिंग डायरेक्टर सूसन स्नाइडर कहती हैं, “क्या मशीन के पास चेतना है, इसका जवाब कैसे हासिल हो, ये सवाल बहुत उलझन में डालने वाला है.”

सूसन आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की एक्सपर्ट हैं.

वो कहती हैं कि समझ या चेतना ख़ुद को होने वाला अनुभव है. सुबह जब आप कॉफी के प्याले से उठती सुगंध महसूस करते हैं या फिर पैर से ठोकर मारते हैं तो आपको अपने होने का अहसास होता है.

ये तो हुई इंसानों की बात लेकिन मशीनों के मामले में क्या होता है?

इस पर सूसन कहती हैं कि ये बड़ी मुश्किल बात है. हो सकता है कि उन्हें इस तरह प्रोग्राम किया गया हो कि वो कहें कि वो मानते हैं कि उनके पास ‘अधिकार होने चाहिए.’ वो मानते हैं कि वो ‘इंसान हैं’ और मानते हैं कि वो ‘दुखी या नाराज़ हैं.’

लेकिन क्या चेतना और जीवन आपस में जुड़े नहीं हैं, इस सवाल पर सूसन कहती हैं, ” चेतना और जीवन शायद अलग हैं. चेतना होने पर आप अनुभव कर सकते हैं. जीवन तो माइक्रोब्स में भी होता है लेकिन आमतौर पर हम ये नहीं सोचते कि उनमें चेतना होती है.”

वो कहती हैं, ” एस्ट्रोबायोलॉजी में इसे लेकर बड़ी बहस भी होती है कि जीवन को कैसे परिभाषित किया जाए. नासा जिस परिभाषा का इस्तेमाल करता है वो ये है कि जीवन खुद बने रहने वाली रासायनिक प्रक्रिया है जो डार्विन के बताए विकासक्रम के मुताबिक बढ़ने में सक्षम है. चेतना इससे अलग मालूम होती है. उदाहरण के लिए मशीनों का विकास डार्विन के सिद्धांत के मुताबिक नहीं होगा. लेकिन वो अनुभव कर सकती है.”

सूसन कहती हैं कि हो सकता है कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस जीवन की परीक्षा में नाकाम हो जाए लेकिन इसमें चेतना हो सकती है और ये इसे अनुभव भी कर सकती है.

लेकिन ये वैसी चेतना नहीं होगी जिसके बारे में हम जानते हैं. ऐसे में इसकी पहचान मुश्किल है.

सूसन कहती हैं कि मशीन में चेतना है या नहीं इस फ़ैसले को लेकर भी सावधान रहने की ज़रूरत है. ये ऐसा ही है जैसे कि हमारे सामने कोई ‘एलियन’ आ जाए.

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क्या मशीनों में किसी तरह की चेतना हो सकती है, ये पता करने के लिए सूसन ने तरीके ईजाद किए हैं.

सूसन बताती हैं, ” मेरे एक टेस्ट में मैंने कहा कि अगर आपके पास एक नैचुरल लैंग्वेज सिस्टम है तो आप कंप्यूटर से सीधे पूछें क्या उसमें चेतना है और देखें कि क्या इसने कुछ अनुभव किया है. उदाहरण के लिए अगर हम धार्मिक न भी हों तो भी मौत के बाद के जीवन से जुड़े विचार से परिचित हैं. हम समझते हैं कि शरीर से दिमाग अलग हो सकता है. दिमाग तब भी चलता रह सकता है. अगर हम ये पाते हैं कि मशीन ऐसा कर सकती हैं तो उससे संकेत मिलेगा कि उनमें चेतना का अंश है.”

लेकिन लैमडा पर ऐसा परीक्षण करने के लिए बहुत देर हो चुकी है. सूसन कहती हैं कि किसी मशीन को ‘रिसर्च और डेवपलमेंट’ के स्तर पर ही टेस्ट करना होता है.

ये भी कहा जा रहा है कि मशीन की चेतना को लेकर ताज़ा जानकारी एक बिल्कुल ही अलग क्षेत्र से सामने आ सकती है. मसलन स्वास्थ्य के क्षेत्र से.

दुनिया भर में खाद्य संकट बढ़ रहा है. खाने के सामान की कीमतें आसमान छूने लगी हैं.

अमेरिका में न्यूरो साइंटिस्ट इलेक्ट्रॉनिक प्रत्यारोपण को लेकर प्रयोग कर रहे हैं. वो दिमाग में हुए नुक़सान को ठीक करने की उम्मीद लगाए हैं.

लेकिन सवाल ये भी है कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस इंसानी भावनाओं के कितना करीब पहुंच सकती है?

सूसन कहती हैं, “जैसे जैसे वक़्त आगे बढ़ेगा ये सिस्टम ज्यादा धाराप्रवाह तरीके और अक्लमंदी से बात करेंगे. उन्नत एंड्रॉयड, चैटबोट और अलग-अलग तरीके के आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस में अरबों डॉलर का निवेश किया जा रहा है. ये तय है कि हम इंसानों की तरह के आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को आते देखेंगे और चेतना को लेकर सवाल उठते रहेंगे.”

लौटते हैं उसी सवाल पर कि क्या आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस ने चेतना या अपनी समझ विकसित कर ली है?

आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस बहुत सारे डेटा के आधार पर काम करती है. ऐसे में आपको लग सकता है कि आपको सिर्फ़ गणनाओं पर आधारित विश्लेषण नहीं मिल रहा बल्कि आप किसी अक्लमंद व्यक्ति के संपर्क में हैं.

हमारे एक्सपर्ट की राय है कि अभी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के पास चेतना नहीं है लेकिन लेकिन टेक इंडस्ट्री का रिकॉर्ड ये रहा है कि जो चीजें नामुमकिन दिखती रही हैं, उन्होंने उन्हें मुमकिन बनाया है. भविष्य में कभी ऐसा हो भी सकता है.

अगर ऐसा हुआ तो भी हम जिस तरह की चेतना से वाकिफ हैं, ये उससे अलग होगी. ये भी हो सकता है हममें से बहुत से लोगों की जानकारी के पहले से ही ये मौजूद हो.