क्या दुनिया भर में महंगाई बेक़ाबू हो चुकी है?- दुनिया जहान

ईद

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बीते महीने पूरी दुनिया के मुसलमान उमंग के साथ ईद मना रहे थे. लेकिन दुनिया के कई देशों के कई घरों में खाने की मेज पर कुछ कसर सी दिखी और इसकी वजह थी खाने पीने के सामान की बढ़ी कीमतें.

पश्चिमी अफ़्रीका के सेनेगल में मांस की कीमतों में ज़बरदस्त उछाल की वजह से कई परिवार इस स्थिति में नहीं थे कि पारंपरिक पकवान पका सकें.

यूक्रेन युद्ध की वजह से गेंहू, तेल और रसोई ईंधन की कीमतें भी बढ़ गईं. सेनेगल इस दिक्कत से जूझता इकलौता देश नहीं है. भारत समेत दुनिया भर में करोड़ों लोगों के सामने बढ़ती महंगाई के बीच घरेलू बजट संभालने की चुनौती है.

अब सवाल है कि क्या महंगाई बेकाबू हो चुकी है, जवाब तलाशने के लिए बीबीसी ने चार एक्सपर्ट से बात की.

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सामान

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कोविड महामारी का असर

बीते साल अमेरिका का केंद्रीय बैंक एक अजब समस्या से जूझ रहा था. कोरोना महामारी से जुड़ी पाबंदियां हटाते ही देश में कीमतें बढ़ने लगीं और बैंक के सामने ये सवाल था कि क्या स्थिति संभालने के लिए उसे कदम उठाने चाहिए?

आम तौर पर जब कीमतें तेज़ी से ऊपर जाने लगती हैं, तब केंद्रीय बैंक कर्ज़ लेने की दर बढ़ा देते हैं. ताकि लोग सामान खरीदने के लिए कर्ज़ लेने बंद कर दें. इससे मांग में कमी आती है और कीमतें स्थिर होने लगती हैं.

लेकिन अमेरिका के फेडरल रिज़र्व और तमाम दूसरे केंद्रीय बैंकों की राय थी कि अर्थव्यवस्था जैसे ही पटरी पर लौटेगी महंगाई छू मंतर होने लगेगी.

इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट की ग्लोबल फोरकास्टिंग डायरेक्टर अगाथ डेमारे कहती हैं, “मुझे लगता है कि केंद्रीय बैंक महंगाई को सामान्य मान रहे थे. बल्कि महंगाई को एक तरह से अच्छा ही माना जा रहा था. इसे अर्थव्यवस्था के दोबारा गति पकड़ने के संकेत की तरह देखा जा रहा था.”

अगाथ कहती हैं कि तमाम केंद्रीय बैंक ये मानकर चल रहे थे कि इस साल ब्याज़ दर बढ़ानी होगी लेकिन वो ऐसा कुछ नहीं करना चाहते थे कि पटरी पर लौटती अर्थव्यवस्था को फिर से कोई झटका लगे.

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फेडरल रिज़र्व

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अब सवाल है कि क्या केंद्रीय बैंकों की राय ये थी कि कीमतें एक बार बढ़ेंगी और फिर थम जाएंगी?

अगाथ कहती हैं, “हां बिल्कुल. कीमतें बढ़ रहीं थीं लेकिन हम बहुत नीचे से शुरुआत कर रहे थे. एक साल पहले से तुलना करें तो हम कई देशों की अर्थव्यवस्था में काफी तेज़ वृद्धि देख रहे थे. 2020 में जब कोरोना महामारी फैल रही थी तब अर्थव्यवस्था की तरक्की से लेकर महंगाई तक सबकुछ बहुत नीचे चला गया था. लॉकडाउन के दौरान लोग ना के बराबर खर्च कर रहे थे. ऐसे में उस वक़्त महंगाई दिखाई नहीं दे रही थी.”

लेकिन बीते साल के आखिर तक कीमतों के स्थिर हो जाने की उम्मीदें टूटने लगीं. इस साल की शुरुआत में महंगाई ने कई दशकों का रिकॉर्ड तोड़ दिया. केंद्रीय बैंक अब भी कोई ऐसा जोखिम नहीं लेना चाहते थे जिसमें अर्थव्यवस्था के पटरी से उतरने का ख़तरा हो.

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अगाथ कहती हैं, “आप महंगाई रोकने के लिए ब्याज़ दर बढ़ाने और ग्रोथ रेट पर इसके संभावित असर के बीच संतुलन बिठाने की कोशिश करते हैं. ये बड़ा पेचीदा काम है. क्योंकि आप सिर्फ़ अनुमान लगा रहे होते हैं. आप यकीन से नहीं कह सकते हैं कि ऐसा होगा ही. तमाम विशेषज्ञ ऐसी समस्या का सामना करते हैं.”

अब सवाल है कि केंद्रीय बैंक कैसे परखते हैं कि उन्होंने सही फ़ैसला किया है?

अगाथ कहती हैं, “ये समझना हमेशा बहुत मुश्किल होता है कि क्या केंद्रीय बैंकों ने सही फ़ैसला किया है लेकिन हम जो देख रहे थे वो ये है कि एक साल पहले वैश्विक स्तर पर पांच प्रतिशत महंगाई बढ़ने का अनुमान लगाया गया था. कोरोना महामारी के बाद तमाम मौद्रिक नीतियों में इसे अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने की कीमत माना गया.”

लेकिन जब केंद्रीय बैंकों को लगा कि उनके पास कीमतों पर सावधानी से लगाम लगाने की योजना है तभी एक और समस्या सामने दिखने लगी.

तमाम देशों में जब व्यापक टीकाकरण के बाद कोरोना वायरस काबू में आने लगा और लॉकडाउन लगाने की आशंका घटने लगीं तभी एक देश ने नए केस मिलते ही कड़ाई की योजना पर अमल किया. इस देश को कई लोग दुनिया की फैक्ट्री कहते हैं. ये देश है चीन.

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शंघाई के निवासी

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शंघाई में तालाबंदी

चीन के वुहान में दो साल पहले कोरोना वायरस की वजह से पहली बार लॉकडाउन लगाया गया. महामारी की शुरुआत यहां से ही हुई थी. तब प्रशासन को तीन महीने के अंदर ही लगा कि वायरस पर काबू पा लिया गया है और लॉकडाउन हटा दिया गया.

हार्वर्ड केनेडी स्कूल की सीनियर प्रैक्टिशनर फेलो शर्ली यू बताती हैं, “चीन की उत्पादन क्षमता मार्च 2020 में बहाल हो गई और बीते दो साल के दौरान चीन दुनिया को सामान निर्यात कर रहा था. वो पूरी दुनिया के लिए सामान बना रहा था.”

इस साल मार्च में कोरोना वायरस के लगातार मामले मिलने पर चीन के बड़े शहर शंघाई को क्वारंटीन कर दिया गया.

शर्ली यू बताती हैं, “इमारतों के बाहर घेरेबंदी कर दी गई. लोगों को घरों के अंदर रखने के लिए दरवाज़ों पर ताले लगा दिए गए. ये स्थितियां सुखद नहीं थीं. मेरी राय में सरकार जल्दी से जल्दी सामान्य स्थिति बहाल करना चाहती होगी. उनके लिए ज़ीरो कोविड नीति सबसे पहले आती है.”

शंघाई कारोबार का प्रमुख केंद्र है. यहां चीन के तमाम उद्योग धंधे हैं. फैक्ट्रियां बंद होने से चीन और पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए ख़तरा पैदा हो गया.

शर्ली यू बताती हैं, “चीन की जीडीपी में शंघाई का योगदार चार प्रतिशत है. यहां दुनिया का सबसे बड़ा बंदरगाह है. ये चीन में मैन्युफैक्चरिंग का सबसे बड़ा केंद्र है. ये चीन की आर्थिक गतिविधियों केंद्र भी है. ये कंज्यूमर और तकनीकी सर्विस इंडस्ट्री का केंद्र है. यांगत्ज़ी नदी डेल्टा का क्षेत्र बड़ा मेट्रोपॉलिटिन हब है. आर्थिक लिहाज से ये चीन का बहुत अहम इलाका है.”

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हेल्थ वर्कर

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बंदरगाह से ट्रकों की आवाजाही बाधित हो गई. बंदरगाह पर निर्यात किए जाने वाले सामान का ढेर लगने लगा.

शर्ली यू बताती हैं, “अप्रैल में कंटेनर वाले 500 जहाज शंघाई बंदरगाह के बाहर खड़े थे. उनसे सामान उतारा जाना था. 90 प्रतिशत ट्रकों का इस्तेमाल आयात और निर्यात के लिए किया जाता है. इसका असर दुनिया भर में सामान भेजे जाने की क्षमता पर हुआ.”

चीन की मुद्रा युआन गोते लगाने लगी. अधिकारियों को चिंता हुई कि इससे महंगाई बढ़ सकती है और वो गिरावट रोकने की कोशिश में जुट गए. फिक्र सिर्फ़ चीन में नहीं थी. सप्लाई बंद होने से पूरी दुनिया चिंतित थी. ठीक इसी वक़्त सप्लाई चेन के सामने एक और गंभीर संकट खड़ा था. ये समस्या कहीं ज़्यादा परेशान करने वाली थी.

युद्ध की वजह से तेल और गैस के दाम बढ़ गए हैं

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महंगाई की मार

24 फरवरी को रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया. उसी वक़्त ये जाहिर हो गया कि लड़ाई का असर सिर्फ़ इन दो देशों तक सीमित नहीं रहेगा.

आईएनजी जर्मनी के मुख्य अर्थशास्त्री कार्स्टन ज़ेस्की बताते हैं कि युद्ध की वजह से उन्होंने जर्मनी में कीमतों को तेज़ी से बढ़ते देखा है.

कार्स्टन बताते हैं, ” महंगाई बढ़ रही है. मैं अपनी कार के लिए ईंधन लेने गैस स्टेशन जाता हूं जहां 50 प्रतिशत से ज़्यादा दाम बढ़ गए हैं. जर्मनी के लोग सामान जमा करके रखना पसंद करते हैं. वो बाहर जाकर बहुत सारा गेहूं, सूरजमुखी का तेल और टॉयलेट पेपर ले आए. जैसे कि महामारी के दौरान किया था.”

 

रूस गैस और तेल का प्रमुख सप्लायर है. मॉस्को ने बुल्गारिया और पोलैंड को गैस की सप्लाई कम कर दी. वहीं, यूरोप के कई देशों ने रूस से मिलने वाली गैस और तेल का इस्तेमाल बंद करने की चेतावनी दी है. इससे कीमतें ऊपर चढ़ गईं. लेकिन, इस युद्ध का असर तेल और गैस तक ही सीमित नहीं है.

दुनिया भर में निर्यात होने वाले कुल गेहूं में 25 प्रतिशत हिस्सेदारी रूस और यूक्रेन की है. मक्का निर्यात के मामले में यूक्रेन दुनिया में तीसरे नंबर पर है.

रूस पर लगाए गए प्रतिबंध और यूक्रेन के किसानों के सामने मौजूद ख़तरे की वजह से दुनिया के कई देशों में खाने पीने के सामान के दाम बेतहाशा बढ़ रहे हैं.

कार्स्टन की राय है कि अगर युद्ध जारी रहता है तो दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा झटका साबित होगा. ये दिख भी रहा है. मार्च के महीने में ही गेहूं की वैश्विक कीमत 20 प्रतिशत बढ़ गई. उत्तरी अफ़्रीका और मध्य पूर्व के देशों में खाने पीने के सामान काफी महंगे हो गए.

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डब्बा बंद खाना भी महंगा हो सकता है

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विशेषज्ञों की राय है कि युद्ध की वजह से अनाज उगाने की क्षमता भी प्रभावित होगी. दरअसल, रूस की नैचुरल गैस का इस्तेमाल खाद बनाने में भी होता है.

कार्स्टन बताते हैं, “खाद निर्यात के लिहाज से भी रूस की भूमिका अहम है. अगर हमें खाद उपलब्ध नहीं हुई तो यूरोप और दूसरी जगहों के कृषि क्षेत्र पर इसका असर होगा. इसका प्रभाव खाने के सामान की कीमत पर भी होगा.”

रूस खनिज पदार्थों का भी बड़ा सप्लायर है. कई खनिज क्लीन एनर्जी और ट्रांसपोर्ट के लिए ज़रूरी हैं. स्टेनलेस स्टील बनाने के लिए निकल का इस्तेमाल होता है. ये लीथियम आयन बैटरी के लिए भी ज़रूरी है जिसका इस्तेमाल इलेक्ट्रिक कार में होता है. कार निर्माताओं के लिए पैलेडियम भी ज़रूरी है. इसका इस्तेमाल कैटेलिटिक कनवर्टर बनाने में होता है. जो हाइब्रिड वाहनों में इस्तेमाल होते हैं.

अब सवाल है कि इन खनिजों पर निर्भर उत्पाद कैसे बनेंगे?

कार्स्टन कहते हैं, ” चाहे किसी भी तरह हो लेकिन हम विकल्प तलाश लेंगे. हालांकि, जब आप इन धातुओं की बात करते हैं, तब विकल्प तलाशने के लिए उत्पादन की पूरी प्रक्रिया के बारे में ही नए सिरे से सोचना होगा. पैलेडियम ओटो इंडस्ट्री के लिए बहुत अहम है. इंजीनियरों को सोचना होगा कि कैटलिस्ट कैसे बनाएं. ऐसा हो भी सकता है या नहीं. ये अकल्पनीय है.”

इसका मतलब है कि पहिया चलता रहे, इसके लिए उत्पादकों को कच्चा माल कहीं और से हासिल करना होगा.

कार्स्टन बताते हैं, “सप्लाई चेन नए सिरे से बनाने का मतलब होगा अधिक लागत. इसे तैयार करने में भी ज़्यादा वक़्त लगेगा. इससे तालमेल बिठाने की प्रक्रिया भी लंबी होगी. हमें ऐसा अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि ये समस्याएं निकट भविष्य में दूर हो जाएंगी.”

कार्स्टन कहते हैं कि कई देशों के लिए ये नए संपर्क स्थाई हो सकते हैं. वो कहते हैं कि अगर ये युद्ध कल ही ख़त्म हो जाए तब भी प्रतिबंध काफी लंबे समय तक बने रहेंगे.

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आगे का रास्ता

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ़ के डायरेक्टर ऑफ़ रिसर्च पिएर ओलेविए गुआशा कई दूसरे अर्थशास्त्रियों की ही तरह मानते हैं कि बीते कुछ महीनों के दौरान स्थितियां बदतर हुई हैं.

वो कहते हैं, “2022 की शुरुआत से ही महंगाई बढ़ने को लेकर दबाव की स्थिति थी. अब ऊर्जा क्षेत्र के बाज़ार में अवरोध आ गया है. खाने के सामान खासकर गेहूं और मक्का की सप्लाई में रूकावट से महंगाई के दबाव पर एक और परत चढ़ गई है. अब महंगाई पर काबू पाना और चुनौती भरा हो गया है.”

केंद्रीय बैंकों के पास ज़्यादा समय लेने की मौका नहीं है. कीमतें ऊपर जाने को लेकर एक ख़तरा और दिखता है. श्रमिकों ने ज़्यादा वेतन की मांग शुरू कर दी है. कर्मचारियों को भुगतान करने के लिए नियोक्ताओं को अपने सामान की कीमत बढ़ानी होगी. ये सिर्फ़ सैद्धांतिक समस्या नहीं है. पिएर ओलेविए कहते हैं कि इस चलन के संकेत पहले से दिख रहे हैं.

इस बीच, केंद्रीय बैंकों को उपभोक्ताओं को भरोसा भी दिलाना है कि स्थिरता का दौर फिर लौटेगा.

पिएर कहते हैं, “अगर आप पूरी दुनिया को देखें तो पाएंगे कि अमेरिका में महंगाई दर चार साल में सबसे ज़्यादा है. ब्रिटेन में भी काफी कुछ यही स्थिति है. महंगाई से जुड़ी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए केंद्रीय बैंकों को ज़्यादा दमखम के साथ कदम उठाना होगा.”

रिटेल स्टोर में एक महिला

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पिएर ये भी कहते हैं कि वित्तीय मामलों से जुड़े अधिकारियों को लोगों का भरोसा बनाए रखने के लिए सावधान रहना होगा. ताकि वो भविष्य में कीमतें बढ़ने की आशंका से हड़बड़ाकर खरीदारी ना करने लगें. केंद्रीय बैंकों को ऐसे कदम उठाने होंगे जिनसे महंगाई तेज़ी के साथ नीचे आए.

ब्याज़ दर में अचानक वृद्धि आर्थिक झटके की वजह बन सकती है. ऐसे में केंद्रीय बैंक धीरे धीरे और सावधानी के साथ बढ़ना पसंद करते हैं. वो ब्याज़ दर बढ़ाने के बारे में पहले से संकेत दे देते हैं.

पिएर कहते हैं, “लोग महंगाई के दहाई के अंक में पहुंचने की उम्मीद नहीं लगा रहे हैं. महंगाई दर इससे काफी नीचे है. ये केंद्रीय बैंकों के लक्ष्य के काफी करीब है. इस मामले में 1970 के दशक और आज के दौर में काफी अंतर दिखता है. केंद्रीय बैंकों ने अपनी साख कायम की है. उन्होंने महंगाई से मुक़ाबले को लेकर विश्वसनीयता बहाल की है. 1970 के दशक में उनकी ऐसी विश्वसनीयता नहीं थी.”

1970 के दशक में दुनिया भर में बढ़ती महंगाई के बीच केंद्रीय बैंक कीमत स्थिर रखने में संघर्ष करते रहे. तब दिक्कत की एक बड़ी वजह थी ऊर्जा की कीमतों में तेज़ी से हुआ उछाल. कई लोग फिक्रमंद हैं कि उस वक्त जो आर्थिक दिक्कतें हुईं थी, तमाम देशों को अब भी वैसी ही समस्या का सामना करना पड़ सकता है. लेकिन पिएर कहते हैं कि ये डर बढ़ा चढ़ाकर दिखाया जा रहा है.

ईंधन की कीमतें बढ़ गई हैं

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वो कहते हैं, “अभी ऊर्जा की कीमतें भले ही बढ़ गई हों लेकिन कई चीजों की कीमतों में हुआ इजाफा 1970 के दशक के मुक़ाबले काफी कम है. 1970 के दशक में तेल की कीमतों को लेकर जो झटका लगा था, वो अभी के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा था. दूसरी बात ये है कि अब तमाम देशों की अर्थव्यवस्था तेल पर उस कदर निर्भर नहीं हैं. अभी उनके ऊर्जा स्रोत में काफी विविधता है. इसमें रिन्यूएबल, परमाणु और गैस शामिल है. ऐसे में तेल की कीमत बढ़ने से उत्पादन और ढुलाई की कीमतों पर पहले जैसा असर नहीं होता.”

हमारे विशेषज्ञ की राय है कि पहले के मुक़ाबले केंद्रीय बैंक महंगाई का प्रबंधन बेहतर तरीके से कर रहे हैं. अर्थव्यवस्था को पूरी तरह समझने के लिए उनके पास ज़्यादा डेटा है.

अब बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि चीन महामारी पर रोक लगाने के अपने रुख को कितना लचीला बनाएगा और यूक्रेन में संघर्ष कितना लंबा खिंचेगा. जहां तक रूस से आने वाले कच्चे माल की बात है तो विशेषज्ञ मानते हैं कि ग्राहक देशों को अब दूसरी जगह तलाशनी होगी.

क्या महंगाई बेकाबू हो चुकी है, इस सवाल पर हमारे एक्सपर्ट का कहना है कि ये भले ही एक मुश्किल चढ़ाई दिखती हो लेकिन कीमतें जल्दी ही स्थिर होने लगेंगी.