कुछ जानवरों की पूजा के किस्से और प्रसंग आपने सुने होंगे, लेकिन गधों की पूजा का एक अनोखा रिवाज राजस्थान के एक कस्बे में है. यही नहीं इस आयोजन को देखने के लिए सैकड़ों से हज़ारों लोग जुट जाते हैं. क्या आप इस विशेष परंपरा को जानते हैं? तस्वीरों में भीलवाड़ा से रवि पायक की रिपोर्ट देखिए.
भीलवाड़ा. राजस्थान में मेवाड़ का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले भीलवाड़ा की पहचान पुरानी परंपराओं के कारण प्रदेश ही नहीं, देश भर में होती है. ऐसी ही एक परंपरा है, जिसमें दीवाली के बाद विशेष रूप से गधों की पूजा अर्चना कर उन्हें भड़काया (दौड़ाया) जाता है. सजाये संवारे गए इन गधों को देखने के लिए भारी संख्या में लोग आते हैं और आनंद लेते हैं. यह परंपरा सदियों से चल रही है, जिसे आज भी एक समुदाय जीवित रखे हुए है.
आपने किसानों और पशुपालकों द्वारा बैलों को पूजते हुए सुना देखा होगा. मगर भीलवाड़ा ज़िले के मांडल कस्बे में करीब 500 सालों से एक परंपरा है, जिसे आज भी युवा निभा रहे हैं. इस कस्बे में युवाओं द्वारा (बैशाखी नन्दन) गधों की पूजा अर्चना कर उन्हें पूरे गांव में दौड़ाया जाता है. इससे पहले गधों को दुल्हन की तरह सजाया जाता है.
प्रतापनगर निवासी कैलाश प्रजापत ने बताया कि कुम्हार (प्रजापति) समाज वर्षों से गधों (बैशाखी नंदन) के पूजन की परंपरा निभा रहा है. जब आवागमन और माल परिवहन का कोई ज़रिया नहीं था, तब गधों के माध्यम से ही सामान का परिवहन किया जाता था. तभी यह परंपरा शुरू हुई बताई जाती है.
पुराने समय में कुम्हार समाज के लोग तालाब से मिट्टी घर तक पहुंचाने में गधों को उपयोग करते रहे. तबसे दीपावली के दौरान जब लोग अपने वाहन और गाय बैलों की पूजा करते थे, कुम्हारों ने इस दिन गधों की पूजा करना शुरू किया. यह पूजा काफी अनूठे ढंग से होती है
मांडल के प्रतापनगर क्षेत्र में गधों को नहला धुलाकर सजाया जाता है. इसके बाद इन्हें एक चौक में लाया जाता है. पंडित पूजा कर इनका मुंह मीठा करते हैं. इसके बाद इन्हें भड़काया जाता है. इस परंपरा को देखने के लिए मांडल सहित आसपास के गांवों के लोग भी यहां इकट्ठे होते हैं. कोरोना काल के दौरान दो सालों तक यह आयोजन नहीं हुआ लेकिन इस बार काफी उत्साह इसके लिए दिखाई दिया.