2022-09-01
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मान्यता है कि उस समय देवता इंद्र दरबार में शक्ति अर्जन के लिए जाते हैं। पीछे राक्षस वृत्तियां लोगों को कष्ट न पहुंचाए इसलिए ये अश्लील गीतों के साथ मशालों के साथ नाचे जाते हैं। यह भी नाटी से भिन्न हैं। देव नृत्य में देवता के रथ यह देवता के चेले नाचते हैं। जिसमे देउ खेल, हुलकी नृत्य शामिल हैं। लालहड़ी महिलाओं और पुरुषों द्वारा नाचा जाता है। इसमें आमने सामने दो पंक्तियों में महिला पुरुष गीत के बोलों पर नाचते हैं। इस नृत्य में वाद्य यंत्र नहीं बजाए जाते हैं।
यह इसलिए लुप्त हो रहा है कि बदलते परिवेश में बारात में अब घर की महिलाएं और बच्चे सारे चलते जाते हैं, तो यह प्रथा खत्म होने के कगार पर है। बल्ह घाटी का बुढड़ा नृत्य लुप्त होने की कगार पर है। मांडव्य कला मंच जैसी चुनिंदा संस्थाएं इसे नृत्य विधा को मंच के लिए लोगों तक पहुंचाने तक सीमित है। इसमें भगवान शिव की बारात निकाली जाती है। यह मान्यता है कि जब भगवान शिव पार्वती को ब्याहने जाते हैं तो वह बुढड़ा (बूढ़े) का रूप धारण कर लेते हैं और उनके गण भूत-पिशाच का रूप धारण कर पूरे वातावरण को डरावना बना देते हैं। मान्यता है कि यह नृत्य नकारात्मक ऊर्जा को भगाता है। सरकाघाट क्षेत्र का चरकटी नृत्य प्राचीन समय में राजाओं के दरबार में मनोरंजन के लिए नृत्य होता था और रोजगार का जरिया था। इसे विशेष समुदाय करता था। तुंगल नाटी/ खनाटी, जोगिंद्रनगर का लुड्डी लुहासड़ी नृत्य भी जिले में विशेष महत्व रखता है।
मौंजरा में महिलाएं और पुरुष एक स्थान पर बैठते हैं। मध्य में लोक गायक वाद्य यंत्रों से गायन वादन करते हैं। उनके घेरे में नर्तक और नर्तकी एकल रूप में नृत्य करते हैं। इस नृत्य के समयताउली नाटियां गाई जाती है। माला नृत्य में माला के मणकों की भांति कंधा से कंधा मिलाकर आपस में हाथ पकड़कर महिलाएं पुरुषों द्वारा सामूहिक नृत्य खुले प्रांगण में किया जाता है। इस नृत्य में सेवगी, गीह तथा ढीली नाटियों को गायन वादन किया जाता है। पढ़ुआ नृत्य शिमला से लगते निचले जनपदों में तथा विशेषकर सोलन क्षेत्र में महिलाओं द्वारा किया जाता है। जब घर में बारात विदा की जाती है तो रात को गांव भर की महिलाएं एक बंद कमरे में एकत्र होकर नृत्य करती हैं। इसमें पुरुष वर्जित है। गिद्दा शैली में गीतों को गाया जाता है। वहीं कई अनुष्ठानिक नृत्य भी हैं। जिन्हें दीवाली मकर संक्रांति को किया जाता है। कई श्रम प्रधान नृत्य भी हैं, जिनमें नाटियां डाली जाती है। दराट, दराटी और खिलना आदि औजारों के साथ नृत्य किए जाते हैं। बाहड़नाटी, बूसेहरी नाटी, लाहौल, बकैती, खरेत, ढीली नाटी, फाटी सभी नाटी के ही प्रकार हैं। इसके अलावा शिमला जिले नृत्यबुरा और सिय, ठोडा, छुहारा तुरिन आदि प्रमुख लोक नृत्य हैं।
कांगड़ा, हमीरपुर, बिलासपुर और ऊना में लोक लोक नृत्य प्रचलित हैं। झमाकड़ा कांगड़ा जनपद का मशहूर नृत्य है। यह विवाह शादियों में किया जाता है। संस्कार गीतों पर केवल महिला कलाकार थिरकती हैं। यह नृत्य बरात के वधू के घर पर पहुंचने पर होता है। झमाकड़ा नृत्य करते समय पारंपरिक पहनावे में घाघरी- कुर्त्ता धारण किया जाता है । सिर पर चांदी का चाक, गले में कंठहार तथा चंद्रहार, नाक में नथनी, पैरों में पाजेब धारण कर महिलाएं नृत्य करती हैं। यहां गूजरी लोकनृत्य भी काफी प्रचलित है। गूजरी गीतों और नृत्य का संबंध कृष्ण काव्य में उपलब्ध कृष्ण-गोपियों से जुड़े गीती काव्य से है। बिलासपुर में दिवाली के आसपास माला नृत्य का आयोजन किया जाता है। धाजा, जात्रा नृत्यों के लिए भी बिलासपुर जाना जाता है।
किन्नौर और लाहौल स्पिति
किन्नौर जिले को नृत्य का घर भी कहा जाता है। क्यांग नृत्य किन्नौर जिले की प्रमुख लोक नाटी है। यह नृत्य महिलाओं और पुरुषों द्वारा गोलाकार आकृति बनाकर किया जाता है। वाद्य यंत्र की लय के अनुसार महिलाएं और पुरुष अपने पैर आगे पीछे रखकर गीत गाते हुए नृत्य करते हैं। क्यांग नृत्य का एक ओर रूप है। यह मुख्यत: महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसमें नृतक एक दूसरे के सामने पंक्तियां बनाते हैं और लयात्मक रूप से आगे पीछे हटते हुए नाचते हैं। राक्षस/दानव नृत्य भी किन्नौर जिले का ऐतिहासिक नृत्य है। इसमें पुरुष और महिलाएं एक दूसरे का हाथ पकड़ कर नृत्य करते हैं। नृत्य करते समय चेहरे पर राक्षसों के मुखौटे पहने जाते हैं। जिन्हें वाग कहां जाता है। यह नृत्य सामूहिक रूप से किया जाता है। इसके नेता को घूरे कहा जाता है। इस नृत्य में देवताओं द्वारा फसलों की सुरक्षा और दानवों पर विजय पाते हुए दर्शाया जाता है. किन्नौर जिले के अन्य प्रमुख लोक नृत्य छाम्ब, बयांगचछु, जातरू क्यांग, जाप्रो आदि हैं। लाहौली स्पिति में छाम्ब, टशी , खर, छालछा, तासुर, शापरो नृत्य किए जाते हैं।
वेशभूषा में चूड़ीदार, पायजामा, दोहडू और सिर पर सुंदर जोजी खूब सजती है। वहीं, डांगी और डेपक भी जिले की प्रमुख नाटियां हैं। यह नृत्य केवल गद्दी महिलाओं (विशेष जाति) द्वारा किया जाता है। डांगी नृत्य का गद्दी महिलाएं मेलों या जातरू (देवताओं से जुड़ा अनुष्ठान) में सामूहिक रूप सेप्रदर्शन करती हैं। डेपक नृत्य गद्दी महिलाओं द्वारा तब किया जाता है जब वह अपने पालतू पशुओं भेड़ बकरियों को लेकर कांगड़ा जिले की तरफ चली जाती है। फूलयात्रा नृत्य, यह भी चंबा जिले का एक प्रमुख लोक नृत्य है। इस नृत्य को पांगी की महिलाएं (विशेष जाति) पहले हिमपात होने से पूर्व करती है। यह नृत्य सामूहिक रूप से गोलाकार आकृति बनाकर किया जाता है। चंबा जिले के अन्य प्रमुख लोक नृत्य घूरेई, झांजर, चुराही, पंगवाल, घोड़ाई आदि हैं।
वहीं, परात नृत्य का संबंध भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से है। रासा नृत्य कर उत्पत्ति रास शब्द से मानी जाती है। जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण गोपियों संग बृज में रास रचाया करते थे, उसी प्रकार युवक-युवतियां भी बाहों में बाहें डाले एक कदम ताल में रासा और माला नृत्य करते हैं। यह शरद का नृत्य तावली नाटी पर पर रासा और धुड़क की थापों पर झूमते हैं। पारंपरिक परिधानों में कलाकार सफेद लोइया, सुथन, चोलटू और पीठ पर खल्टू धारण किए हुए होते हैं। महिलाएं घाघटु, कमीज और कमर पर गाची पहनती हैं।
जब भी किसी मंच पर स्वर्गीय वीरभद्र सिंह को नाटी डालने का मौका मिलता वह चूकते नहीं। किन्नौरी नाटी में सबसे आगे चलते हुए कभी वह चंवर पकड़ते तो कभी बिना चंवर के वाद्य यंत्रों की लय पर थिरकते थे। इधर, सीएम जयराम भी नाटी खूब डालते हैं। सराजी नाटी उनकी पहली पसंद है। लेकिन, लुड्डी नृत्य में भी वह कमाल के हैं। जब वल्लभ कालेज में पढ़ते थे तो लुड्डी समूह के वह सदस्य रहे हैं। अकसर लोगों के साथ समारोहों में सीएम जयराम ठाकुर को नाटी डाले देखा जा सकता है।
हिमाचल प्रदेश की पहचान है यहां के ऊंचे-ऊंचे पर्वत शिखर, गहरी घाटियां और देव-देवताओं के विभिन्न मेले उत्सव। घाटियों में बसे गांवों के मेले-त्योहारों में गूंजती नाटियों की धूम यहां के लोगों के कठिन जीवन को आनंदमयी और रसमयी बनाने का सबसे बेहतर साधन है। हिमाचल प्रदेश के ऊपरी क्षेत्रों में मेले त्योहारों और विवाह शादी जैसे हर खुशी के अवसर पर नाटी नाचने का चलन है। पारंपरिक लोक वाद्यों ढोल, नगाड़ा, दमामा, हुड़क, करनाहल, शहनाई की लय पर नाटी मेलों-उत्सवों में पूरी-पूरी रात नाची जाती है।- डॉ सूरत ठाकुर, हिमाचल अकादमी से पुरस्कृत सेवानिवृत्त प्रोफेसर संगीत
आज ऐसे माहौल में जब चारों तरफ पाश्चात्य संस्कृति के प्रति लोगों का, खासकर ग्लैमर के प्रति युवा वर्ग का रुझान बढ़ा है। डीजे की धुनों ने शहर की गलियों से निकलकर गांव के चौबारों, खलियानों को अपनी लपेट में ले रखा है। लोकनृत्य के प्रति समाज में उदासीनता बढ़ रही है। बावजूद इसके हिमाचल में नाटी की पहचान अभी बनी है। अब चुनौती इस अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रख आगे बढ़ाने की है। इसके संरक्षण व संवर्धन के लिए अनेक योजनाएं और नीतियां तो बनी है पर उनके धरातल पर लाने का कार्य न काफी है।
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