पहाड़ी उल्लास का प्रतिबिंब हिमाचली नाटी, बिना इसके सब नीरस

सूबे में क्षेत्र विशेष को दर्शाती वेशभूषा। हाथों में चंवर या रुमाल। बांसुरी, ढोल, नगाड़ों, रणसिंघा, करनाल और शहनाई की मधुर धुन पर झूमते और नाजुक अंदाज में घुटने झुका नाटी डालते पहाड़ के लोग हर पर्व में उल्लास के रंग भरते हैं।

लाहौली नाटी।

नाटी लोकनृत्य हिमाचल प्रदेश की संस्कृति का एक प्रतिबिंब है। इस समृद्ध परंपरा के बिना देवभूमि का लोक जीवन अधूरा है। सूबे में क्षेत्र विशेष को दर्शाती वेशभूषा। हाथों में चंवर या रुमाल। बांसुरी, ढोल, नगाड़ों, रणसिंघा, करनाल और शहनाई की मधुर धुन पर झूमते और नाजुक अंदाज में घुटने झुका नाटी डालते पहाड़ के लोग हर पर्व में उल्लास के रंग भरते हैं। लोक नृत्य की इस विधा की विशेषता है कि यह हमेशा माला में नाची जाती है। मतलब, माला की गोलाई की तरह गोल-गोल घूमकर की जाती है। जिसमें अगुआ नृतक या नर्तकी के साथ पैरों और हाथों की गति का अनुसरण कर उसके पीछे सभी नाचते हैं। देवभूमि के इतिहास में नाटी की उत्पत्ति का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। ऐसी मान्यता है कि नाटी प्राचीन काल में देवी-देवताओं के समय से चली आ रही है। हिमाचल में नाटी लोकनृत्य कई प्रकार के हैं। कुल्लू में कुल्लवी, लाहुल-स्पीति में लाहुली, पांगी में पंगवाली, भरमौर में गादी और डंडारस, किन्नौर में कायंग, शिमला में महासुवीं और चौहारी, सिरमौर में सिरमौरी समेत  मंडी के ऊपरी क्षेत्रों में सराजी, सुकेती, ढीली नाटी आदि नाचने की विशेष परंपरा है।

क्षेत्र और परिवेश के आधार पर नर्तकों के पहनावे लय  व ताल और गीतों में भिन्नता के कारण नाटी के विविध स्वरूप में अलग-अलग मिलते हैं, जो अपना-अपना क्षेत्रीय प्रभाव लिए हुए हैं। नाटी लोकनृत्य का हिमाचल के ऊपरी क्षेत्रों में अधिक प्रचलन है। यह देवी देवताओं को रिझाने, मनोरंजन या हर खुशी को व्यक्त करने के लिए किया जाता है। इस सांस्कृतिक विरासत से लोग आधुनिकता की चकाचौंध में अटूट विश्वास के साथ जुडे हैं। मेले, धार्मिक आयोजन, शादी ब्याह, राजनीतिक जलसा या कोई भी खुशी का पल, नाटी के बिना सब फीका है। देवी-देवताओं को रिझाने के लिए उनकी पूजा के समय देवलु देवनाटी भी डालते हैं। बजंतरी देव ध्वनियां पारंपरिक वाद्य यंत्रों से छेड़ते हैं और देवलु देवरथों के साथ झूमते गाते सुख समृद्धि की कामना करते हैं। ऐसे में नाटी का नाम आते ही आंखों के सामने एक ताल पर झूमते पारंपरिक पोशाकों में मुस्कुराते पहाड़ी नजर आते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान दौर में भी नाटी सबसे प्रसिद्ध लोक नृत्य है। लेकिन, इंटरनेट और ग्लैमर से भरी भावी पीढ़ी भी इन लोकनृत्यों को इसी तरह संजो कर रखे, इसके लिए मंथन और प्रयास की कहीं अधिक जरूरत है।

हर क्षेत्र की प्रतीकात्मक हिमाचली टोपी भी खास पहचान

नाटी प्राचीन अंदाज में आज भी बजंतरियों के साथ लोगों के एक समूह द्वारा प्रदर्शित की जाती  है। नृत्य समूह में पुरुष और महिला दोनों सम्मिलित होते हैं, जिसका नेतृत्व प्राय: चंवर पकड़े एक पुरुष करता है। हाथ से हाथ पकड़कर नृत्य समूह में सबसे आगे चलने वाले पुरुष के नृत्य अंदाज की पोशाक गद्दी या हिमाचली विविधता को दर्शाती है। पुरुष ऊनी वस्त्र पहनते हैं। पीठ के निचले हिस्से पर लंबे कमरबंद बंधे होते हैं। अभी भी अपने क्षेत्र के हिसाब से प्रतीकात्मक हिमाचली टोपी नाचने वाले पहनते हैं।  टोपी के ऊपरी हिस्से पर फूल लगाए जाते हैं। दूसरी ओर, महिलाएं चूड़ीदार, चोला, गहने पहनती हैं और रंगीन स्कार्फ से अपना सिर ढकती हैं, जिसे धाटू कहते हैं। बजंतरी वाद्य यंत्र से खास संगीत बजाते हैं। कुछ नाटियों में महिलाएं-पुरुष, बच्चे-बूढ़े सभी भाग ले सकते हैं। सभी एक-दूसरे का हाथ पकड़कर पैर आगे पीछे रखते हुए और लोक ध्वनियों की लय के अनुसार शरीर के अन्य अंगों को हिलाते हुए गोल चक्कर बनाकर नाटी करते हैं, जबकि कुछ में केवल पुरुष या केवल महिलाएं भाग लेती हैं।

लोकनृत्य नाटी के विविध रंग

कुल्लवी नाटी।
यह नाटी कुल्लू में शादी समारोह से लेकर देव परंपराओं को निभाने में काफी सार्थक सिद्ध होती हैं। यहां बुरी शक्तियों को भगाने और अश्लील जुमलों का प्रयोग करने वाले नृत्य भी प्रचलित हैं। चरासा नृत्य में केवल महिलाएं ही विरशु के अवसर पर चैत्र मास से ज्येष्ठ के संक्रांति के मध्य नाचती हैं। इसमें पुरुष नहीं नाचते। बांढू नृत्य में केवल पुरुषों द्वारा पौष मास की संक्रांति के बाद फागुन मास तक नाचा जाता है।

मान्यता  है कि उस समय देवता इंद्र दरबार में शक्ति अर्जन के लिए जाते हैं। पीछे राक्षस वृत्तियां लोगों को कष्ट न पहुंचाए इसलिए ये अश्लील गीतों के साथ मशालों के साथ नाचे जाते हैं। यह भी नाटी से भिन्न हैं। देव नृत्य में देवता के रथ यह देवता के चेले नाचते हैं। जिसमे देउ खेल, हुलकी नृत्य शामिल हैं। लालहड़ी महिलाओं और पुरुषों द्वारा नाचा जाता है। इसमें आमने सामने दो पंक्तियों में महिला पुरुष गीत के बोलों पर नाचते हैं। इस नृत्य में वाद्य यंत्र नहीं बजाए जाते हैं।

मंडी की नाटी

सुकेती नाटी।
ऊपरी क्षेत्रों में सराज की नाटी, चुहार की नाटी सुकेती नाटी, स्नोरी नाटी और चौहारी नाटियों का प्रचलन है। देव प्रांगणों में और विवाह शादियों में पूरी रात और दिन भर नाची जाती है। चुहार नाटी में महिलाएं अक्सर सफेद व काले खानों वाला पट्टू पहनती हैं और सिर पर काला ढाटू पहनती हैं। गले में हलका चंद्रहार व जौ की माला पहनी जाती है। स्नोरबदार की नाटी में जहां पुरुष ऊनी चोला व टोपी पहनते हैं। महिलाएं बहुत ही खूबसूरत और बार्डर वाला पट्टू पहनती हैं। यह महिलाएं विशेष प्रकार की टोपी लगाती हैं, ढाटू नहीं पहनती। वैसे मंडी का प्रधान लोकनृत्य लुड्डी है। यह नृत्य विधा विवाह, मेले – त्योहारों में और विशेष उत्सवों से संबंधित है। खुशी को व्यक्त करने वाला नृत्य है। नागरीय नृत्य (विशेष रूप से नगर में किया जाने वाला नृत्य) केवल महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसमें संस्कार गीत गाए जाते हैं। मंडयाली गिद्दे का प्रचलन लगभग खत्म हो चुका है। यह विवाह शादियों में तब किया जाता है जब बरात घर से चली जाती थी और पीछे सिर्फ महिलाएं रहती थीं। खुशी व्यक्त करने के लिए नए-नए स्वांग रच रात भर गिद्दा डालती। पुरुषों के लिए वर्जित था।

यह इसलिए लुप्त हो रहा है कि बदलते परिवेश में बारात में अब घर की महिलाएं और बच्चे सारे चलते जाते हैं, तो यह प्रथा खत्म होने के कगार पर है। बल्ह घाटी का बुढड़ा नृत्य लुप्त होने की कगार पर है। मांडव्य कला मंच जैसी चुनिंदा संस्थाएं इसे नृत्य विधा को मंच के लिए लोगों तक पहुंचाने तक सीमित है। इसमें भगवान शिव की बारात निकाली जाती है। यह मान्यता है कि जब भगवान शिव पार्वती को ब्याहने जाते हैं तो वह बुढड़ा (बूढ़े) का रूप धारण कर लेते हैं और उनके गण भूत-पिशाच का रूप धारण कर पूरे वातावरण को डरावना बना देते हैं। मान्यता है कि यह नृत्य नकारात्मक ऊर्जा को भगाता है। सरकाघाट क्षेत्र का चरकटी नृत्य प्राचीन समय में राजाओं के दरबार में मनोरंजन के लिए नृत्य होता था और रोजगार का जरिया था। इसे विशेष समुदाय करता था। तुंगल नाटी/ खनाटी, जोगिंद्रनगर का लुड्डी लुहासड़ी नृत्य भी जिले में विशेष महत्व रखता है।

शिमला की नाटी

शिमला की नाटी।
शिमला की नाटी हिमाचल का प्रमुख लोक नृत्य है। महासुवीं तथा चौहारी नाटी पर हर कोई झूमने लगता है। नाटी लोकनृत्य को करने से पहले बीच में अलाव (आग) जलाया जाता है और उसके चारों और सभी एक दूसरे का हाथ पकड़कर,  पैर आगे पीछे करते हुए नृत्य करते हैं। इसमें महिला पुरुष और बच्चे सभी भाग ले सकते हैं। अलग-अलग क्षेत्रों और अभिनय के हिसाब से इसे कई प्रकारों में बांटा गया है। देवताओं के जातर नृत्य की अलग पहचान है। जिसमें सबसे प्रसिद्ध महासू की जात, गलैणी की जात और कोटि टिंबे की जात है। प्रतिवर्ष बसंत मौसम के आगमन पर देवता अपने मूल स्थान से जातर स्थल पर एक निश्चित तिथि को अपने रथों में बैठ गाजे-बाजे के साथ प्रस्थान करते है और इस नृत्य में यही दर्शाया जाता है। खश खुंदों मेलों उत्सवों का नृत्य है। जिसमें राजपूतों की शौर्य गाथा को दर्शाया जाता है। कलगी जजीरी नृत्य का प्रचलन केवल ऊपरी महासू के जुब्बल जनपद के खुंदों यानी राजपूतों में है। जबकि, विवाह शादियों में मौंजरा,  माला नृत्य और पढुआ नृत्य शामिल हैं।

मौंजरा में महिलाएं और पुरुष एक स्थान पर बैठते हैं। मध्य में लोक गायक वाद्य यंत्रों से गायन वादन करते हैं। उनके घेरे में नर्तक और नर्तकी एकल रूप में नृत्य करते हैं। इस नृत्य के समयताउली नाटियां गाई जाती है। माला नृत्य में माला के मणकों की भांति कंधा से कंधा मिलाकर आपस में हाथ पकड़कर महिलाएं पुरुषों द्वारा सामूहिक नृत्य खुले प्रांगण में किया जाता है। इस नृत्य में सेवगी, गीह तथा ढीली नाटियों को गायन वादन किया जाता है। पढ़ुआ नृत्य शिमला से लगते निचले जनपदों में तथा विशेषकर सोलन क्षेत्र में महिलाओं द्वारा किया जाता है। जब घर में बारात विदा की जाती है तो रात को गांव भर की महिलाएं एक बंद कमरे में एकत्र होकर नृत्य करती हैं। इसमें पुरुष वर्जित है। गिद्दा शैली में गीतों को गाया जाता है। वहीं कई अनुष्ठानिक नृत्य भी हैं। जिन्हें दीवाली मकर संक्रांति को किया जाता है। कई श्रम प्रधान नृत्य भी हैं, जिनमें नाटियां डाली जाती है। दराट, दराटी और खिलना आदि औजारों के साथ नृत्य किए जाते हैं। बाहड़नाटी, बूसेहरी नाटी, लाहौल, बकैती, खरेत,  ढीली नाटी,  फाटी सभी नाटी के ही प्रकार हैं। इसके अलावा शिमला जिले नृत्यबुरा और सिय,  ठोडा,  छुहारा तुरिन आदि प्रमुख लोक नृत्य हैं।

कांगड़ा, हमीरपुर, बिलासपुर और ऊना में लोक लोक नृत्य प्रचलित हैं। झमाकड़ा कांगड़ा जनपद का मशहूर नृत्य है। यह विवाह शादियों में किया जाता है। संस्कार गीतों पर केवल महिला कलाकार थिरकती हैं। यह नृत्य बरात के वधू के घर पर पहुंचने पर होता है। झमाकड़ा नृत्य करते समय पारंपरिक पहनावे में घाघरी- कुर्त्ता धारण किया जाता है । सिर पर चांदी का चाक, गले में कंठहार तथा चंद्रहार, नाक में नथनी, पैरों में पाजेब धारण कर महिलाएं नृत्य करती हैं। यहां गूजरी लोकनृत्य भी काफी प्रचलित है। गूजरी गीतों और नृत्य का संबंध कृष्ण काव्य में उपलब्ध  कृष्ण-गोपियों से जुड़े गीती काव्य से है। बिलासपुर में दिवाली के आसपास माला नृत्य का आयोजन किया जाता है। धाजा, जात्रा नृत्यों के लिए भी बिलासपुर जाना जाता है।

किन्नौर और लाहौल स्पिति
किन्नौर जिले को नृत्य का घर भी कहा जाता है। क्यांग नृत्य किन्नौर जिले की प्रमुख लोक नाटी है। यह नृत्य महिलाओं और पुरुषों द्वारा गोलाकार आकृति बनाकर किया जाता है। वाद्य यंत्र की लय के अनुसार महिलाएं और पुरुष अपने पैर आगे पीछे रखकर गीत गाते हुए नृत्य करते हैं। क्यांग नृत्य का एक ओर रूप है। यह मुख्यत: महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसमें नृतक एक दूसरे के सामने पंक्तियां बनाते हैं और लयात्मक रूप से आगे पीछे हटते हुए नाचते हैं। राक्षस/दानव नृत्य भी किन्नौर जिले का ऐतिहासिक नृत्य है। इसमें पुरुष और महिलाएं एक दूसरे का हाथ पकड़ कर नृत्य करते हैं। नृत्य करते समय चेहरे पर राक्षसों के  मुखौटे पहने जाते हैं। जिन्हें वाग कहां जाता है। यह नृत्य सामूहिक रूप से किया जाता है। इसके नेता को घूरे कहा जाता है। इस नृत्य में देवताओं द्वारा फसलों की सुरक्षा और दानवों पर विजय पाते हुए दर्शाया जाता है. किन्नौर जिले के अन्य प्रमुख लोक नृत्य छाम्ब, बयांगचछु, जातरू क्यांग, जाप्रो आदि हैं। लाहौली स्पिति में छाम्ब, टशी , खर, छालछा, तासुर, शापरो नृत्य किए जाते हैं।

चंबा की नाटी

पांगी में पंगवाली और भरमौर में गादी और डंडारस नाटी मशहूर है। भरमौर के नृत्यों की खास पहचान है। यहां पुरुष डंडारस, आलो माली धमाल तथा अंचली मुख्य लोकनृत्यों में नाटियां भी डालते हैं। मेले में सार्वजनिक स्थानों पर नाचे जाने वाले लोकनृत्य को डंडारस कहते हैं। यह गद्दी समुदाय का सुप्रसिद्ध नृत्य है। गद्दी वेशभूषा जिसमें ऊनी सफेद चोला, कमर में काली ऊनी या सूती पायजामा पहना जाता है। सिर पर पकड़ी या ऊनी नोकदार टोपी पहनी जाती है। इस दौरान आलोमाली धमाल, अंचली और स्त्री नृत्य का भी काफी महत्व है। चुराही नृत्य में स्त्री पुरुष एक साथ नाचते हैं। पंगवाली नृत्य काफी आकर्षक है। स्त्री और पुरुष अलग-अलग नाचते हैं। स्त्री नृत्य घुरेही कहा जाता है, जिसे डंगी की तरह वृत्त में नाचा जाता है। महिलाएं अपनी लोक  वेशभूषा में नृत्य करती हैं।

वेशभूषा में चूड़ीदार,  पायजामा,  दोहडू  और सिर पर सुंदर जोजी खूब सजती है। वहीं, डांगी और डेपक भी जिले की प्रमुख नाटियां हैं। यह नृत्य केवल गद्दी महिलाओं (विशेष जाति) द्वारा किया जाता है। डांगी नृत्य का गद्दी महिलाएं मेलों या जातरू (देवताओं से जुड़ा अनुष्ठान) में सामूहिक रूप सेप्रदर्शन करती हैं। डेपक नृत्य गद्दी महिलाओं द्वारा तब किया जाता है जब वह अपने पालतू पशुओं भेड़ बकरियों को लेकर कांगड़ा जिले की तरफ चली जाती है। फूलयात्रा नृत्य, यह भी चंबा जिले का एक प्रमुख लोक नृत्य है। इस नृत्य को पांगी की महिलाएं (विशेष जाति) पहले हिमपात होने से पूर्व करती है। यह नृत्य सामूहिक रूप से गोलाकार आकृति बनाकर किया जाता है। चंबा जिले के अन्य प्रमुख लोक नृत्य घूरेई,  झांजर,  चुराही, पंगवाल, घोड़ाई आदि हैं।

सिरमौरी नाटी

सिरमौरी नाटी।
सिरमौरी नाटी प्रदेश का प्रचलित और प्रसिद्ध लोक नृत्य है। यह मेले त्योहारों और अन्य धार्मिक अवसरों पर किया जाता है। इस विधा में ठोड्रा नृत्य, रिहालटी गी, परात, रासा आदि प्रमुख नाटियां या लोक नृत्य हैं। ठोड़ा का संबंध महाभारत काल से माना जाता है। इसमें शाठी और पाशी दो दल होते हैं। नर्तक हाथों में तीर कमान और अन्य शस्त्र लिए नृत्य करते हैं। रिहालटी गी सावन और चौमासे के हरियाली की तरह एक कदमताल की प्रस्तुति है। दीपक नृत्य पांडवों की लोकगाथा के अनुसार कृष्ण जन्माष्टमी कर आस्था में बरसात के मौसम का नृत्य है। कलाकार पानी से भरी गड़वी को सिर पर उल्टा रखकर तथा उस पर चार भुजाओं वाले वाले जलते दीप को रखकर साष्टांग प्रणाम करते हुए जमीन पर पड़े रुमाल को मुंह से उठाते हैं तथा गीतों में इंद्र देव को अवतार मानने वाले बिजट महादेव की शक्ति का बखान करते हैं।

वहीं, परात नृत्य का संबंध भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से है। रासा नृत्य कर उत्पत्ति रास शब्द से मानी जाती है। जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण गोपियों संग बृज में रास रचाया करते थे, उसी प्रकार युवक-युवतियां भी बाहों में बाहें डाले एक कदम ताल में रासा और माला नृत्य करते हैं। यह शरद का नृत्य तावली नाटी पर पर रासा और धुड़क की थापों पर झूमते हैं। पारंपरिक परिधानों में कलाकार सफेद लोइया, सुथन, चोलटू और पीठ पर खल्टू धारण किए हुए होते हैं। महिलाएं घाघटु, कमीज और कमर पर गाची पहनती हैं।

किन्नौरी नाटी के कायल थे दिवंगत वीरभद्र, सराजी नाटी सीएम जयराम की पहली पसंद

हिमाचल के राजनीतिज्ञ भी नाटी लोकनृत्य के दीवाने हैं। जब भी मौका मिले तो जनता की मांग पर नेता नाटी नाचने का मौका नहीं गवाते। सियासी रैलियों, समारोहों या अन्य आयोजनों पर नेता लोगों  के साथ नाटी डालते अक्सर देखे जा सकते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय वीरभद्र सिंह नाटी गजब नाचते थे। उनकी पहली पसंद किन्नौरी नाटी रही। बदलते रिवाज के साथ बुशैहरी नाटी आ गई और उसके बाद महासुवीं नाटी।

जब भी किसी मंच पर स्वर्गीय वीरभद्र सिंह को नाटी डालने का मौका मिलता वह चूकते नहीं। किन्नौरी नाटी में सबसे आगे चलते हुए कभी वह चंवर पकड़ते तो कभी बिना चंवर के वाद्य यंत्रों की लय पर थिरकते थे। इधर, सीएम जयराम भी नाटी खूब डालते हैं। सराजी नाटी उनकी पहली पसंद है। लेकिन, लुड्डी नृत्य में भी वह कमाल के हैं। जब वल्लभ कालेज में पढ़ते थे तो लुड्डी समूह के वह सदस्य रहे हैं। अकसर लोगों के साथ समारोहों में सीएम जयराम ठाकुर को नाटी डाले देखा जा सकता है।

बिना नाटी सब आयोजन नीरस: डा. कृष्ण लाल सहगल

डॉ. कृष्ण लाल सहगल, कुलदीप गुलेरिया व डॉ. सूरत ठाकुर

देवभूमि हिमाचल प्रदेश में नाटी का अपना अलग महत्व है। यह लोकनृत्य प्रदेशभर में समान रूप से लोकप्रिय है। शादी-ब्याह हो या अन्य कोई भी पारिवारिक या सामाजिक आयोजन। खुशी प्रकट करने वाले ऐसे सभी आयोजन बिना नाटी के नीरस हैं। नाटी नृत्य को हिमाचल प्रदेश लोक संस्कृति का आदिवासी कला रूप भी माना जाता है। नाटी काफी व्यापक व लोकनृत्य का मूल शब्द है। नाटी ताल, लय व गति की दृष्टि से तीन तरह की है, जिसमें विलंबित यानी ढीली नाटी, मध्यम लय और द्रुत यानी तीव्र गति की नाटी। प्रदेश में मुख्यत: मध्यम लय की नाटियां ही अधिक प्रचलित हैं। -डॉ. कृष्ण लाल सहगल, प्रसिद्घ लोक गायक हिमाचल प्रदेश

हिमाचल प्रदेश की पहचान है यहां के ऊंचे-ऊंचे पर्वत शिखर, गहरी घाटियां और देव-देवताओं के विभिन्न मेले उत्सव। घाटियों में बसे गांवों के मेले-त्योहारों में गूंजती नाटियों की धूम यहां के लोगों के कठिन जीवन को आनंदमयी और रसमयी बनाने का सबसे बेहतर साधन है। हिमाचल प्रदेश के ऊपरी क्षेत्रों में मेले त्योहारों और विवाह शादी जैसे हर खुशी के अवसर पर नाटी नाचने का चलन है। पारंपरिक लोक वाद्यों ढोल,  नगाड़ा,  दमामा, हुड़क, करनाहल, शहनाई की लय पर नाटी मेलों-उत्सवों में पूरी-पूरी रात नाची जाती है।- डॉ सूरत ठाकुर, हिमाचल अकादमी से पुरस्कृत सेवानिवृत्त प्रोफेसर संगीत

आज ऐसे माहौल में जब चारों तरफ पाश्चात्य संस्कृति के प्रति लोगों का, खासकर ग्लैमर के प्रति युवा वर्ग का रुझान बढ़ा है। डीजे की धुनों ने शहर की गलियों से निकलकर गांव के चौबारों, खलियानों को अपनी लपेट में ले रखा है। लोकनृत्य के प्रति समाज में उदासीनता बढ़ रही है। बावजूद इसके हिमाचल में नाटी की पहचान अभी बनी है। अब चुनौती इस अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रख आगे बढ़ाने की है। इसके संरक्षण व संवर्धन के लिए अनेक योजनाएं और नीतियां तो बनी है पर उनके धरातल पर लाने का कार्य न काफी है।