हिमाचली लोगों ने सेब से लिखी विकास की इबारत, आज प्रदेश की आर्थिकी का आधार

प्रदेश के लोगों की सौ साल की मेहनत का नतीजा है कि आज सेब की बागवानी 5,000 करोड़ रुपये की आर्थिकी बनकर उभरी है। प्रदेश के लाखों परिवारों का संबल बनने के साथ ही सेब की बागवानी तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र के लदानियों और व्यापारियों से लेकर नेपाल तक के मजदूरों को एक बड़ा कारोबार और रोजगार भी दे रही है। पेश है सुरेश शांडिल्य की प्रस्तुति…

हिमाचली लोगों ने सेब से लिखी विकास की इबारत।

हिमाचल प्रदेश के लोगों की सौ साल की मेहनत का नतीजा है कि आज सेब की बागवानी 5,000 करोड़ रुपये की आर्थिकी बनकर उभरी है। प्रदेश के लाखों परिवारों का संबल बनने के साथ ही सेब की बागवानी तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र के लदानियों और व्यापारियों से लेकर नेपाल तक के मजदूरों को एक बड़ा कारोबार और रोजगार भी दे रही है। पेश है सुरेश शांडिल्य की प्रस्तुति…

सेब की फसल पर बागवान, आढ़ती, व्यापारी, ट्रक ऑपरेटर, चालक और मजदूर तमाम तबके आजीविका के लिए निर्भर हैं। कार्टन, ट्रे, दवा और खाद के विक्रेताओं से लेकर सभी वर्गों को भी इससे रोजगार मिल रहा है। सेब बागवानों और अन्य वर्गों की जेब में पैसा आता है तो राजधानी शिमला के दुकानदार तक इससे हर्षित हो उठते हैं कि अबकी कपड़ों और आभूषणों की अच्छी खरीदारी होगी। इस तरह से सेब बागवानी हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाती है। कोविडकाल में हिमाचल प्रदेश की विकास दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर रही तो इसमें बागवानी की अहम योगदान रहा है।

बेशक 100 साल पहले सेब का पौधा अमेरिका से आया, लेकिन इसके बाद बागवानों ने इसे आगे बढ़ाने में कड़ी मेहनत की। आज हिमाचल प्रदेश के शिमला, कुल्लू, मंडी, किन्नौर, सिरमौर, चंबा सोलन में सेब उगाया जा रहा है। सेब की तीन किस्मों रेड रॉयल, गोल्डन और डिलिशियस से हुई यह शुरुआत अब 90 किस्मों की सेब प्रजातियों की खेती तक फैल चुकी है। आज बागवान खुद अमेरिका और इटली जैसे देशों से सेब की नई-नई किस्में मंगवाकर उच्च गुणवत्ता का सेब उत्पादन कर रहे हैं। खास बात यह है कि जब देश के अन्य राज्यों में युवा खेतीबाड़ी छोड़कर शहरों में नौकरी की तलाश के लिए पलायन कर रहे हैं तो वहीं हिमाचल का युवा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों की नौकरियां छोड़कर बागवानी को पेशे के रूप में अपना रहा है।

वर्ष 1916 में अमेरिका के लुसियाना से सेब के पौधे लाए थे सैमुअल

अमेरिका मूल के सैमुअल इवांस स्टोक्स हिमाचल प्रदेश के कोटगढ़ में बसे। वह स्वतंत्रता आंदोलन से भी जुड़े। बाद में वह आर्य समाजी बन गए और उन्होंने अपना नाम बदलकर सत्यानंद स्टोक्स रख लिया। वह खादी और किश्ती टोपी पहनते थे। उनका महात्मा गांधी से भी निरंतर संवाद होता रहा। वह अमेरिका के लुसियाना से वर्ष 1916 में रॉयल डिलिशयस सेब के कुछ पौधे अपने साथ लाए और उन्होंने इन्हें कोटगढ़ में रोपा। उनके प्रयासों से हिमाचल के संघर्षशील और साधनहीन लोगों ने जीवन में आर्थिक क्रांति आई। वर्तमान में प्र्रदेश में चार लाख परिवार बागवानी पर निर्भर हैं। इस समय एक लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि पर सेब की पैदावार हो रही है। आज जम्मू-कश्मीर के बाद हिमाचल प्रदेश देश का दूसरा बड़ा सेब उत्पादक राज्य है।

150 साल पहले प्रदेश में कुल्लू के बंदरोल में भी सेब तैयार करने का दावा

हिमाचली सेब।
एक दावा यह भी किया जाता है कि हिमाचल प्रदेश में सेब की बागवानी की शुरुआत 150 साल पहले हो चुकी थी। 1870 में गुलाम भारत के दौरान एक अंग्रेज अधिकारी कैप्टन एसी ली ने कुल्लू के बंदरोल में 30 एकड़ जमीन लेकर सेब की बागवानी शुरू की थी। कुल्लू का तापमान इंग्लैंड की तरह ठंडा होने का आभास होता देख उन्होंने इंग्लैंड से पिपिन, न्यूटन, ग्रीन स्मिथ और उथालो वैरायटी के सेब के पौधे मंगवाकर बंदरोल में बगीचा लगाया। हालांकि, स्वाद में खट्टे होने और परिवहन सेवा की दिक्कत के कारण सेब की बागवानी व्यावसायिक रूप लेने के बजाय शौक तक ही सीमित रह गई। बाद में 1916 में अमेरिका से आए सैमुअल इवांस स्टोक्स ने शिमला में रॉयल सेब लगाया तो यही से वाणिज्यिक रूप से आगे बढ़ा।

कैप्सीकम का ऐसे पड़ा शिमला मिर्च नाम
शिमला मिर्च से ऐसा प्रतीत होता है कि यह सबसे पहले शिमला में ही उगी होगी। कैप्सीकम यानी शिमला मिर्च मूल रूप से दक्षिणी अमेरिका की एक सब्जी है। वहां सदियों से इसकी खेती होती है। अंग्रेज जब भारत में आए तो कैप्सीकम का बीज भी साथ लेकर आए। उन्होंने शिमला को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया तो यहां की पहाड़ों की मिट्टी और मौसम इसे उगाने के लिए अनुकूल था। इसके बाद यहीं इसकी खेती शुरू हुई। तभी लोगों ने इसका नाम शिमला मिर्च रख लिया। आज इसे पूरे भारत में शिमला मिर्च के नाम से ही जाना जाता है। अब किसान लाल और पीली शिमला मिर्च की भी खेती कर रहे हैं, जिसके उन्हें अच्छे दाम मिल रहे हैं।

कांगड़ा चाय ने भी बनाई प्रदेश में नई पहचान
हिमाचल प्रदेश में चाय उत्पादन के अंतर्गत 2,310,71 हेक्टेयर क्षेत्र आता है। इसमें वर्ष 2020-21 के दौरान 11,45 लाख किलोग्राम चाय का उत्पादन हुआ है। चाय की खेती मुख्य रूप से कांगड़ा, चंबा और मंडी जिलों में की जाती है। राज्य में करीब 6,000 चाय उत्पादक हैं।

विदेशी सेब से प्रतिस्पर्धा के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत

सेब
यह सही है कि हिमाचल प्रदेश में सेब लाखों लोगों को रोजगार दे रहा है, लेकिन यह भी देखे जाने की जरूरत है कि पैदा करने वाले को क्या मिल रहा है? सेब उत्पादकों को अपनी उपज तैयार करने के लिए आज बहुत अधिक लागत उठानी पड़ रही। राज्य में सेब बागवानों की फल उत्पादन लागत बहुत बढ़ गई है। न तो हमारे पास सेब की बेहतरीन किस्में हैं, न ही इन्हें उगाने के लिए आधारभूत ढांचा है। न बाजार तक सेब पहुंचाने के लिए परिवहन की उचित व्यवस्था है। पोस्ट हार्वेस्टिंग तकनीक भी नहीं है। मार्केटिंग प्रणाली भी बहुत कमजोर है। यहां सेब बागवानों ने तो जहर खाकर प्राण तक दे दिए थे। सरकारों ने तो एकमात्र सरकारी कार्टन प्लांट तक बेच दिया। हाल यह है कि आज कार्टन की कीमतें आसमान छू रही है। सरकारी कार्टन प्लांट होता तो आज बाजार में स्पर्धा कर दाम नियंत्रित हो सकते थे।

केंद्र और प्रदेश सरकारों ने दवाओं और उर्वरकों पर सब्सिडी खत्म कर दी है। वर्ष 1958 में विदेशों से सेब का आयात बंद हुआ था लेकिन वर्ष 1990 में इसे दोबारा खोल दिया गया। अब फ्री ट्रेेड शुरू हो गया है। हमारा मुकाबला भारतीय मंडियों मेें अटे पड़े अमेरिका, ईरान, तुर्की और अफगानिस्तान के सेब है। इन देशों में 25 से 30 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादन हो रहा है जबकि हमारे यहां मात्र चार से पांच टन प्रति हेक्टेयर सेब उत्पादन किया जा रहा है। प्रदेश में सेब बागवानी को बागवानों ने अपने बूते खड़ा किया है। हिमाचल प्रदेश में 1971-72 में बागवानी विभाग बना है, लेकिन सेब बागवानी की उन्नति के लिए इसकी कोई विशेष उपलब्धि नहीं है।

ऐसे बढ़ा प्रदेश में बागवानी का क्षेत्र

हिमाचल का सेब।
हिमाचल प्रदेश में फलोत्पादन में सेब का प्रमुख स्थान होने के चलते इसके तहत राज्य के कुल फल उत्पादन क्षेत्र का 49 फीसदी हिस्सा आता है। फलों में सेब का कुल फल उत्पादन 85 फीसदी है। वर्ष 1950-51 में सेब उत्पादन के तहत 400 हेक्टेयर क्षेत्र आता था। यह 1960-61 में बढ़कर 3,025 हेक्टेयर हो गया। वर्ष 2021-22 में 1,14,646 हेक्टेयर और वर्तमान में यह 1 लाख 15 हजार हेक्टेयर से ज्यादा पहुंच चुका है। सेब के अलावा समशीतोष्ण फलों के तहत वर्ष 1960-61 में 900 हेक्टेयर क्षेत्र से बढ़कर यह 2020-21 में यह 27,870 हेक्टेयर हो गया। सूखे फल और मेवे के तहत 1960-61 के 231 हेक्टेयर से बढ़कर यह वर्ष 2020-21 में 10,029 हेक्टेयर हो गया। नींबू प्रजाति और उपोष्ण कटिबंधीय फलों का क्षेत्र वर्ष 1960-61 के 1,225 हेक्टेयर और 623 हेक्टेयर से बढ़कर 2020-21 में 25,654 हेक्टेयर और 56,580 हेक्टेयर हो गया।

सेब ही नहीं अनार, नाशपाती, कीवी और खुमानी की पैदावार में भी हिमाचल आगे
सेब के अलावा हिमाचल प्रदेश अब अनार, नाशपाती, कीवी, खुमानी और अन्य फलों के उत्पादन के साथ ही फलोत्पादन मेें आगे बढ़ रहा है। यहां पर हर तरह की भौगोलिक विशेषताएं हैं और कई तरह के फलों के उत्पादन के लिए अनुकूल जलवायु भी है। यानी मैदान भी हैं तो गगनचुंबी पहाड़ भी हैं। लगभग साढ़े नौ लाख से अधिक परिवार सीधे तौर पर बागवानी से जुड़े हैं। हर साल अकेले सेब का करीब 5,000 करोड़ से अधिक का कारोबार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर होता है। 11 लाख से अधिक लोगों का रोजगार सेब और अन्य फलों के उत्पादन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़ा है।

हिमाचल प्रदेश में फल उत्पादन की स्थिति, लाख मीट्रिक टन में
फल वर्ष                             2018-19     2019-20    2020-21    2021-22  2022-23 संभावित
सेब                                     3.68           7.15          4.81         6.02         7.00
अन्य समशीतोष्ण फल           0.37            0.49          0.40         0.35        0.45
नींबू प्रजाति के फल               0.29           0.32          0.33         0.10         0.30
अन्य उष्ण कटिबंधीय फल     0.56           0.43          0.64          0.48        0.50
कुल                                 4.95            8.45           6.24        6.97         8.25

सेब लाखों को दे रहा रोजगार, पैदा करने वाले को क्या मिल रहा: हरिचंद रोच

हरिचंद रोच

मैं 86 साल का हो गया हूं। मेरा जिला शिमला के थानाधार और मत्याना में सेब का बगीचा है। सेब बागवानी से मैं वर्ष 1957 से जुड़ा हूं। मेरा यह पैतृक व्यवसाय है। दिल्ली में मेरे बेटे मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करते हैं। मेरे बगीचों में वर्तमान में 5,000 सेब की पेटियां होती हैं। बाजार में करीब 25,00,000 रुपये तक बिक्री होती है। इसमें 70 फीसदी तक खर्च आ रहा है। इस बार केवल 15 फीसदी सेब ही गुणवत्ता वाला है। इस वर्ष पहले सूखा पड़ा और अब बारिशें बहुत हो रही हैं। विदेशों से जो सेब मंगवाया जा रहा है, उससे चार वायरस लेकर आए हैं। मैंने 2000 में विदेशों से सेब के पौधे मंगवाए थे। ऐस, सुपर चीफ, फ्यूजी और गाला मंगवाए थे। मैंने एमला 7, 9, 106 और 111 रूट स्टॉक मंगवाए। मैं विदेशों से सेब के पौधे आयात करने वाला पहला आयातक हूं। आज इन्हीं किस्मों का सेब 1,200 से 1,500 रुपये तक प्रति आधा बक्सा बिक रहा है। मैं सरकार के खिलाफ  कोर्ट गया हूं। सरकार की बागवानी परियोजनाओं से बागवानों को कोई लाभ नहीं हो रहा है। मेरा मानना है कि सेब के बारे में एक ब्लू प्रिंट तैयार होना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय स्तर का जर्मप्लाज्म हो यानी पौध हो।

अगर ऐसा नहीं होगा तो उसका उत्पादन कहां से होगा। इनपुट भी अंतराष्ट्रीय स्तर का होना चाहिए। वैज्ञानिक बैकअप भी चाहिए। पोस्ट हार्वेस्टिंग तकनीक भी होनी चाहिए। सेब का 30 से 40 भाग है, जो हर साल खराब होता है। यह दुनिया में प्रोसेसिंग में जाता है। 60 फीसदी बाजार में बिकता है। इसके लिए पोस्ट हार्वेस्टिंग तकनीक होनी चाहिए। सरकार प्रोसेसिंग कर रही है। मार्केटिंग इनसे हो नहीं रही। इस बारे में इस क्षेत्र के विशेषज्ञों को बुलाए जाने की जरूरत है। सीए स्टोर होने चाहिए। सेब की फसल ऐसी है, जिसे 300 दिनों तक बेचा जा सकता है। हमें एमएसपी नहीं एमआरपी चाहिए। बागवान पेटियों पर एमआरपी लिखे तो बेहतरीन व्यवस्था होगी। सीए स्टोर इतने बनने चाहिए कि जिनमें तीन करोड़ पेटियां स्टोर की जा सकें। एपीएमसी मार्केटिंग फीस लेकर इन्हें केवल सड़कों पर खर्च कर रही है। इससे ही आधारभूत ढांचा तैयार किया जाना चाहिए। अभी बार्गेनिंग पावर आढ़ती और खरीदार के बीच में है, जब तक ये बागवान के हाथ मेें नहीं आएगी तो वे ऊपर नहीं उठ पाएंगे।– हरिचंद रोच, प्रगतिशील बागवान