चाहे वो पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता की गलियां हों, बिहार-उत्तर प्रदेश, झारखंड समेत देश के कई राज्यों की मिठाई की दुकानें हों, पुरी का जगन्नाथ मंदिर हो, भारत का राष्ट्रपति भवन हो या लंदन का बकींघम पैलेस. रसगुल्ला हर जगह मिलता है. ये कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत के खानसामों के सबसे बेहतरीन, जादुई और स्वाद की पराकाष्ठा को पार करने वाली कोई मिठाई अगर है तो वो है रसगुल्ला.
अगर आप मीठे के शौक़ीन न भी हों तब भी रसगुल्ला आप कम से कम दो तो चट कर ही जाएंगे. पेटभर खाने के बाद भी पूरा का पूरा रसगुल्ला मुंह में भर लेना न सिर्फ़ एक कला है बल्कि आत्मा तृप्त करने का सबसे उत्तम उपाय है! अब जैसा कि अमूमन हर एक खाने के साथ होता है. रसगुल्ला की उत्पत्ति को लेकर भी कई कहानियां प्रचलित हैं.
यूं तो किसी शुभ काम की शुरुआत मीठे से करते हैं, लेकिन शायद रसगुल्ला एकमात्र ऐसी मिठाई है जिसको लेकर दो राज्यों के लोगों के बीच बरसों से जंग छिड़ी हुई है! एक राज्य के लोगों का कहना है कि रसगुल्ला उनकी धरती पर सबसे पहली बार बना. वहीं दूसरे राज्य के लोगों का कहना है कि रसगुल्ला उनके खानसामे का आविष्कार है.
बंगाली कहते हैं रसगुल्ला उनका, उड़िया कहते हैं उनका
रूई से भी ज़्यादा सफ़ेद, जिसे उठाते ही लगता है कि जन्नत का टुकड़ा उठा लिया हो और जीभ पर रखते ही मानों तमाम चिंताएं पलभर को विलीन हो गईं हों, आख़िर उस मिठाई पर क्या झगड़ा, लड़ाई शोभा देती है. बिल्कुल नहीं देती लेकिन दो राज्यों के लोगों के बीच इस दिव्य मिठाई की उत्पत्ति को लेकर काफ़ी तनातनी चल रही है.
ओड़िशा के लोगों का क्या है दावा?
The Indian Express के एक लेख के अनुसार, ओड़िशा के पूरी में 700 से ज़्यादा साल पहले रसगुल्ला एक धार्मिक संस्कार का हिस्सा था. 11वीं शताब्दी में ये खीर मोहन के नाम से प्रचलित था, वजह थी इसका सफ़ेद रूप. उस ज़माने में छेने से बनी ये मिठाई देवी महालक्ष्मी को चढ़ाई जाती थी, ख़ासतौर पर रथयात्रा के आख़िरी दिन, जिसे निलाद्री विजय भी कहा जाता है.
बता दें कि रथयात्रा पर्व के दौरान, भगवान जगन्नाथ, बलराम और देवी सुभद्रा के लिए तीन अलग-अलग रथों का निर्माण किया जाता है और उनकी मूर्तियों को रथ पर बैठाया जाता है. भक्तगण इन रथों को खींचते हैं, जगन्नाथ मंदिर से शुरु हुई रथयात्रा पूरे शहर से होते हुए गुंडीचा मंदिर पहुंचती है. यहां भगवान जगन्नाथ, बलराम और देवी सुभद्रा सात दिन के लिए विश्राम करते हैं. गुंडीचा मंदिर को भगवान जगन्नाथ, बलराम और देवी सुभद्रा के मौसी का घर कहा जाता है.
प्रचलित कहानियों के अनुसार, भगवान जगन्नाथ ने, गुंडीचा मंदिर से लौटने के बाद अपने घर में प्रवेश पाने के लिए देवी लक्ष्मी को रसगुल्ला दिया था. और तब से ये देवी लक्ष्मी को रसगुल्ला चढ़ाने की प्रथा है. ये भी कहा जाता है कि भगवान जगन्नाथ की आंखों को सम्मान देने के लिए इस मिठाई का जन्म हुआ.
रसगुल्ला बनाने की विधि मंदिर से बाहर कैसे पहुंची?
रसगुल्ला धार्मिक अनुष्ठान में प्रयोग होता था लेकिन इसे बनाने कि विधि मंदिर से बाहर कैसे पहुंची? कुछ प्रचलित कहानियों के अनुसार, एक बार मंदिर के एक पंडित ने गांव के लोगों को दूध की बर्बादी करते देखा तब उन्होंने ग्रामीणों को दूध से छेना बनाना और रसगुल्ले की विधि बताई.
ओड़िशा की राजधानी भुवनेश्वर के बाहर स्थित है एक छोटा सा गांव, पहाला. इस गांव में आदमियों से ज़्यादा गायें थीं. इस वजह से दूध की अधिकता रहती थी. पंडित का बताया मार्ग उनके लिए आशीर्वाद बन गया और यहां के लोग अत्यधिक दूध का छेना और रसगुल्ला बनाने लगे. ख़ास बात है कि यहां के रसगुल्ले बिल्कुल सफ़ेद नहीं, हल्के भूरे रंग के होते हैं.
ओड़िशा के कटक के पास रसगुल्ले की एक और वैराइटी मिलती है. सालेपुर नामक स्थान भी अपने रसगुल्लों के लिए मशहूर है. यहां के रसगुल्ले ज़्यादा बड़े और नर्म होते हैं. खीर मोहन की ये वैराइटी बिकलांदर कर नामक हलवाई ने विकसित की. बिकलांदर कर को बहुत से लोग रसगुल्ले का असल आविष्कारक मानते हैं.
पश्चिम बंगाल के लोगों का क्या है दावा?
पश्चिम बंगाल के लोगों का भी यही कहना है कि रसगुल्ला सबसे पहले उनकी धरती पर जन्मा. The Times of India के एक लेख के अनुसार, कोलकाता के धिमान दास का दावा है कि उनके पूर्वज, नवीन चंद्र दास ने रसगुल्ला का आविष्कार किया. दास के शब्दों में, ‘नवीन चंद्र दास ने जोरासांको में 1864 में मिठाई की दुकान शुरु की लेकिन दो साल बाद ही उनका बिज़नेस बंद हो गया. इसके बाद उन्होंने बाग बाज़ार में दुकान खोली, जहां उन्होंने रसगुल्ले का आविष्कार किया.’
धिमान का कहना है कि उनके पूर्वज, नवीन ने छेना के छोटे-छोटे गोल बनाकर उन्हें चीनी के रस में उबाला. लेकिन हर बाल गोले टूट जाते. इसके बाद छेने में मौजूद एक तत्व से उन्होंने इस समस्या का हल निकाला. धिमान का दावा है कि नवीन ने नि सिर्फ़ रसगुल्ले का आविष्कार किया बल्कि अपने साथ के हलवाइयों को भी रसगुल्ला बनाना सिखाया.
रसगुल्ले की उत्पत्ति को लेकर बंगाल की एक और कथा प्रचलित है. रानाघाट के पाल चौधरी के हलवाई, हाराधन मोयरा (Haradhan Moira) ने ग़लती से रसगुल्ला का आविष्कार किया. उसने उबलते चीनी के रस में ग़लती से छेने के गोले डाल दिए. 19वीं सदी के आख़िर और 20वीं सदी के शुरुआत में भवानीपुर के मल्लिक और सोभा बज़ार के चित्तरंजन मिष्टान्न भंडार ने इस विधि को और स्वादिष्ट बनाया.
कोलकाता के के.सी दास ने रसगुल्ले को कैन में पैक करके दुनियाभर में मशहूर कर दिया. रसगुल्ले के आविष्कार पर बंगाली में एक फ़िल्म भी बनाई गई.
बनाने की विधि चाहे कोई भी हो, रसगुल्ला बड़ा हो या छोटा, एकदम सफ़ेद हो या हल्का भूरा, आज भी इस मिठाई की बदौलत असंख्य लोगों का घर चल रहा है.
फ़ूड हिस्टोरियन्स क्या कहते हैं?
कहानियां तो कई हैं, सवाल वही है, रसगुल्ला आख़िर आया कहां से? हो सकता है कि इसका जवाब कहीं पूरे झगड़े के बीच में छिपा हो! कुछ फ़ूड हिस्टोरियन्स का भी मानना है कि रसगुल्ला शायद खीर मोहन से ही बना, वही खीर मोहन जिसका आविष्कार ओड़िशा में हुआ और जो भगवान जगन्नाथ को चढ़ाया जाता है. हो सकता है कि पहाला गांव में ये रसगुल्ला और विकसित हुआ हो. प्रिथा सेन का कहना है, ’18वीं शताब्दी के मध्य में बड़े बंगाली घरों में जो रसोइये होते थे वो असल में ओड़िया थे. हो सकता है वो ओड़िशा से अपने साथ रसगुल्ला बनाने की विधि लेकर आए हों.’
एक अन्य फ़ूड हिस्टोरियन, के.सी.अचार्य का कहना है कि बंगालियों ने छेना या कॉटेज चीज़ बनाना पुर्तगालियों से सीखा और छेने से सबसे पहले मिठाई बंगालियों ने ही बनाई. पूरे भारत में छेना बनाना अपवित्र माना जाता था क्योंकि दूध भगवान को अर्पित किया जाता था. इसी वजह से बंगाल के अलावा देश के बाक़ी हिस्सों में दूध की मिठाइयां तो बनती थीं लेकिन छेने की नहीं.
2017 में जी आई रेजिस्ट्री, चेन्नई ने पश्चिम बंगाल के रसगुल्ला को जी आई स्टेटस दे दिया. इसके दो साल बाद ही ओड़िशा के रसगुल्ला को भी जी आई टैग दिया गया.