अगर घर में कुछ खाने को हो और खाना बनाने का समय या मन न हो. या फिर मंथ ऐंड चल रहा हो तो चाय के साथ बासी रोटी, गुड़/चीनी/नमक के साथ सूखी रोटी खाकर दिन निकाला जा सकता है. आपके और हमारे टेस्ट बड्स कितना भी दुनियाभर का लज़ीज़ व्यंजन खाने के आदी हो जाए, लेकिन गरमा-गरम रोटी और तड़के वाली अरहर दाल का कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता है.
रोटी की जगह ज़िन्दगी में क्या है वो इसी से समझ आता है कि हमारे यहां कहावत में भी रोटी है- ‘दो जून की रोटी’. और गाने में भी रोटी है- ‘रुखी सुखी रोटी तेरी हाथों से खा कर आया मज़ा बड़ा’
कई भारतीय घरों में चावल बने या न बने लेकिन रोटी ने परमनेंट जगह बनाकर रखी है. ख़ैर ये तो उस इलाके में ज़्यादा उपज किसकी है इस पर, और घर पर डायट कितने लोग कर रहे हैं उस पर भी निर्भर करता है! अब हर खाने की चीज़ किसी न किसी ने पहली बार कहीं न कहीं तो बनाई होगी. तो ये ग़रीबों की हथेली पर रखी रोटी और अमीरों की सोने की थाली पर सजी रोटी आख़िर कहां से आकर हमेशा के लिए हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा बन गई?
रोटी शब्द की उत्पत्ति
रोटी को चपाती, फुलका, फुलकी आदी भी कहा जाता है. Newsgram के लेख की मानें तो रोटी शब्द संस्कृत के शब्द ‘रोटीका’ से आया. आयुर्वेद के ग्रन्थ, ‘भावप्रकाश’ में भी रोटी का उल्लेख है.
हालांकि गेहूं को पीसकर अलग-अलग तरीके से ब्रेड आदी तो पूरी दुनिया में बनाया जाता है लेकिन रोटी भारतीय खाने का अभिन्न हिस्सा है. भारतीय घरों में दिन में कम से कम एक बार तो रोटी बनती ही है. ग़ौरतलब है कि दक्षिण भारत, पूर्वओत्तर भारत में रोटी ज़्यादा पॉपुलर नहीं है.
एक बात से तो सभी सहमत होंगे- रोटी दुनिया की सबसे सादी लेकिन बनाने में सबसे कठिन चीज़ है! लंबे समय के अभ्यास के बाद ही पूरी गोलाकर रोटी बन पाती है, वरना किसी का नक्शा ही बनता है.
रोटी के बनने को लेकर प्रचलित हैं कई कहानियां
जैसा की अमूमन हर व्यंजन के साथ है रोटी के बनने को लेकर भी कई कहानियां प्रचलित हैं. एक प्रचलित कहानी के मुताबिक रोटी पर्शिया से भारत में आई. पर्शिया में ये थोड़ी मोटी और मैदे से बनती थी. एक दूसरी कहानी कहती है कि रोटी सबसे पहले गेहूं से अवध रियासत में बनाई गई. पर्शिया की रोटी के मुकाबले ये थोड़ी पतली हुआ करती थी. अवध रियासत में पतली और कटोरीनुमा रोटी बनती थी जिसे राहगीर आसानी से हाथों में ले सकें और उसके ऊपर सब्ज़ी रखकर आ सके. इससे सफ़र के दौरान बरतन रखने की ज़रूरत नहीं होती थी.
पूर्वी अफ़्रिका से आई रोटी?
The Indian Express के एक लेख के अनुसार रोटी को लेकर एक और बेहद दिलचस्प कहानी है. इस कहानी के मुताबिक रोटी पूर्वी अफ़्रीका से सफ़र करते हुए दक्षिण एशियाई देशों में पहुंची. पूर्वी अफ़्रीका में गेहूं से आटा बनाकर उसे बिना खमीर उठाए रोटी बनाई जाती थी. ये कहानी सच हो सकती है क्योंकि ट्रेड रूट्स के ज़रिए व्यापारी आवाजाही करते थे. अफ़्रीका में प्रचलित कई कहानियों के अनुसार, स्वाहिली बोलने वाले लोग फ़्लैट ब्रेड या रोटी का सेवन करते थे.
हड़प्पन सभ्यता में बनाई जाती थी रोटी
हमारे पास ऐसे कई सुबूत मौजूद हैं जिससे ये पता लगता है कि रोटी हड़प्पन सभ्यता (3300-1700 ई. पू.) में भी बनाई जाती थी. इस सभ्यता के लोग गेहूं, बाजरा, सब्ज़ियां आदि की खेती करते थे और खेती ही आय का मूल साधन था.
कन्नड़ साहित्य में भी रोटी का उल्लेख
गेहूं से बनने वाली रोटी का उल्लेख 10वीं से 18वीं शताब्दी के बीच लिखे गए कन्नड़ साहित्य की किताबों में भी मिलता है. इसमें गूंदे आटे को आग के शोलों में दो प्लेट्स के बीच में सेंकने की बात कही गई, ये मुच्चाला रोटी (Mucchala Roti) बनाने की विधि है. वहीं किविचू रोटी (Kivichu Roti) को तवे पर सेंककर चीनी या खाने योग्य कपूर के साथ खाया जाता था. इसी तरह चुछू रोटी (Chucchu Roti), सावुदू रोटी (Savudu Roti) के बारे में भी लिखा गया है. इनमें से कुछ विधियों से आज भी रोटी बनाई जाती है.
अक़बर को भी पसंद थी घी रोटी और चीनी
ऐन-ए-अकबरी में भी रोटी का ज़िक्र मिलता है और इसके मुताबिक ये मुग़ल बादशाह अकबर के पसंदीदा खाने की चीज़ों मे से एक थी. गरम-गरम गेहूं की रोटी को सूखा भी खाया जा सकता है जो कि तंदूरी रोटी के साथ कतई संभव नहीं है. अकबर को गेहूं की रोटी इतनी पसंद थी कि वो भी घी और चीनी के साथ इसे खाते थे. इतिहासकारों का कहना है कि अकबर अकेले ही भोजन करना पसंद करते थे.
आख़िरी स्वतंत्र, मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के शासनकाल मे रोटी का आकार हथेली जितना हुआ. औरंगजे़ब ख़ुद को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए स्वेच्छा से शाकाहारी बन गया था और वो रोटी पसंद करता था.
ब्रिटिश सेना के ख़िलाफ़, हथियार बना था रोटी
अंग्रेज़ों के शासनकाल में भी रोटी हर सैनिक खेमे में बनती थी. सब्ज़ी के साथ ये इतनी सही लगती थी कि चावल की जगह रोटी ने ले ली. आग पर फूलने तक सेका जाने वाला फुलका ब्रितानिया सरकार के अधिकारियों को भी पसंद था क्योंकि उनका मानना था कि ये घी से सिंके रोटी से ज़्यादा जल्दी पच जाता था. ये कितनी सच है इसकी पुष्टि अभी तक नहीं हुई है.
इंदौर में हैजा पीड़ितों को रोटी खिलाया जाता था, क्योंकि ये ज़्यादा दिन तक सही रहती थी. धीरे-धीरे ये विदेशियों के ख़िलाफ़ हथियार बनने लगा और देशवासियों की एकजुटता का हथियार भी बन गया. 1857 की क्रांति से पहले, अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सेना तैयार की जा रही थी. भारतीय खेमे में मौलवी अहमदुल्लाह एक बड़ा नाम था और उन्हें अंग्रेज़ी आती थी. ब्रिटिश सरकार के षड्यंत्रों का पता लगाने के लिए उन्हें भेजा गया और इसी दौरान उन्हें रोटी-चेन के महत्त्व का पता चला.
धीरे-धीरे बिना कुछ लिखी हुई रोटियां घर-घर पहुंचने लगी. जो रोटी स्वीकार करता वो चुपचाप अपने घर पर रोटियां बनाता और आगे बढ़ा देता. इस तरह रोटी स्वंतत्रता का पैगाम और राष्ट्रीय एकजुटता का चिह्न बन गया. रोटियां पर कुछ लिखा नहीं होता तो अंग्रेज़ भी उन्हें नहीं रोक सकते थे और न ही रोटियां इधर-उधर पहुंचाने वालों को पकड़ सकते थे. यूं कहा जा सकता था कि गरमा-गरम रोटी देखकर अंग्रेज़ों के पसीने छूट गए. ये भी कहा जाता है कि घी लगी रोटियां रानी लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे की सेना की मुख्य खाने की वस्तुओं में से एक थी.
बहरहाल जिसने भी रोटी बनाई है ये तो वाद-विवाद का मसला है लेकिन उसका शुक्रिया अदा करना हमारे हाथ में है.