20 जून, 1991 की शाम कैबिनेट सचिव नरेश चंद्रा नवनियुक्त प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से मिले और उन्हें 8 पेज का एक टॉप सीक्रेट नोट दिया. इस नोट में बताया गया था कि किन कामों को प्रधानमंत्री को तुरंत तवज्जो देनी चाहिए.
जब राव ने वो नोट पढ़ा तो उनके पैरों तले ज़मीन निकल गई. उनकी पहली टिप्पणी थी ‘क्या भारत की आर्थिक हालत इतनी खराब है ?’ नरेश चंद्रा का जवाब था, ‘नहीं सर, वास्तव में इससे भी ज़्यादा.’ भारत के विदेशी मुद्रा भंडार की हालत ये थी कि वो अगस्त, 1990 आते आते सिर्फ़ 3 अरब 11 करोड़ डॉलर रह गया था.
जनवरी, 1991 में भारत के पास मात्र 89 करोड़ डॉलर की विदेशी मुद्रा रह गई थी. आसान शब्दों में कहा जाए तो भारत के पास दो सप्ताह के आयात के लिए ही विदेशी मुद्रा बची थी.
इसका मुख्य कारण था 1990 के खाड़ी युद्ध के कारण तेल की कीमतों में तिगुनी वृद्धि. उसकी दूसरी वजह थी कुवैत पर इराक के हमले की वजह से भारत को अपने हज़ारों मज़दूरों को वापस भारत लाना पड़ा था. नतीजा ये हुआ था कि उनके द्वारा भेजी जाने वाली विदेशी मुद्रा पूरी तरह से रुक गई थी.
ऊपर से भारत की राजनीतिक अस्थिरता और मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के खिलाफ़ उभरा जन आक्रोश अर्थव्यवस्था को डुबाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा था.
मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनने के लिए मनाया
उसी समय अनिवासी भारतीयों ने भारतीय बैंकों से अपने पैसे निकालने शुरू कर दिए थे. इसके अलावा भारत द्वारा अस्सी के दशक में लिए गए अल्पकालीन ऋण की ब्याज दर बढ़ चुकी थी. अगस्त, 1991 तक मुद्रा स्फीति भी बढ़ कर 16.7 फ़ीसदी हो गई थी.. चूँकि प्रधानमंत्री की दौड़ में प्रणब मुखर्जी ने नरसिम्हा राव का साथ दिया था, वो उम्मीद कर रहे थे कि उन्हों एक बार फिर वित्त मंत्री बनाया जाएगा.
उन्होंने जयराम रमेश से बात करते हुए कहा था, ‘जोयराम, या तो तुम मेरे साथ नॉर्थ ब्लॉक में काम करोगे या पीवी के साथ साउथ ब्लाक में.’
लेकिन नरसिम्हा राव के इरादे दूसरे थे. उन्होंने अपने दोस्त इंदिरा गाँधी के प्रधान सचिव रहे पी सी अलेक्ज़ेंडर को इशारा किया था कि वो अपने मंत्रिमंडल में एक पेशेवर अर्थशास्त्री को बतौर वित्त मंत्री लेना चाहते हैं. उन्होंने रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर आई जी पटेल और मनमोहन सिंह के नाम लिए थे.
अलेक्ज़ेंडर मनमोहन सिंह के पक्ष में थे, इसलिए उन्हें ही मनमोहन सिंह को मनाने की ज़िम्मेदारी दी गई. पी सी एलेक्ज़ेंडर ने अपनी आत्मकथा ‘थ्रू द कोरीडोर्स ऑफ़ पावर एन इनसाइडर्स स्टोरी’ में लिखा, ’20 जून को ही मैंने मनमोहन सिंह के घर फ़ोन लगाया. उनके नौकर ने मुझे बताया कि वो यूरोप गए हुए हैं और आज देर रात लौंटेंगे. 21 जून की सुबह साढ़े पाँच बजे जब मैंने उन्हें फ़ोन किया तो उनके नौकर ने कहा कि साहब गहरी नींद सो रहे हैं.
उन्हें जगाया नहीं जा सकता. मेरे बहुत ज़ोर देने पर उसने मनमोहन लिंह को जगा दिया और वो फ़ोन लाइन पर आए. मैंने उनसे कहा कि मेरा आप से मिलना बहुत ज़रूरी है. मैं कुछ ही मिनटों में आपके घर पहुंच रहा हूँ. जब मैं उनके घर पहुंचा तो मनमोहन सिंह दोबारा सोने जा चुके थे.
बहरहाल उनको किसी तरह फिर जगाया गया. मैंने उनको नरसिम्हा राव का संदेश दिया कि वो उन्हें वित्त मंत्री बनाना चाहते हैं. उन्होंने मुझसे पूछा आपकी राय क्या है ? मैंने जवाब दिया कि अगर मैं इसके खिलाफ़ होता तो इतने अस्वाभाविक समय पर आपसे मिलने न आता.’
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रुपए का अवमूल्यन
शपथ लेने से पहले नरसिम्हा राव ने मनमोहन सिंह से कहा था, ‘मैं आपको काम करने की पूरी आज़ादी दूंगा. अगर हमारी नीतियाँ सफल होती हैं तो हम सब उसका श्रेय लेंगे. लेकिन अगर हम असफल होते हैं तो आपको जाना पड़ेगा. ‘ नरसिम्हा राव के सामने पहली चुनौती आई रुपए की अवमूल्यन की.
नरसिम्हा राव का संबंध उस पीढ़ी से था जो ये यकीन रखती थी कि 1966 में इंदिरा गाँधी द्वारा किया गया रुपए का अवमूल्यन भारत के लिए मुसीबतों का पहाड़ ले कर आया था.
उन्होंने कभी ये कल्पना भी नहीं की थी कि 25 वर्ष बाद उन्हें भी इसी तरह का निर्णय लेना पड़ेगा. मनमोहन सिंह ने नरसिम्हा राव को अपने हाथ से लिखा अति गोपनीय नोट भेजा जिसमें रुपए के अवमूल्यन की सलाह दी गई थी लेकिन ये भी कहा था कि इसे दो चरणों में किया जाए.
जयराम रमेश अपनी किताब ‘टु द ब्रिंक एंड बैक’ में लिखते हैं, ‘राष्ट्रपति वेंकटरमन इसलिए इस फ़ैसले के खिलाफ़ थे क्योंकि उनकी नज़र में अल्पसंख्यक सरकार को इतना बड़ा निर्णय लेने को कोई हक नहीं था. 1 जुलाई, 1991 को रुपए का पहला अवमूल्यन किया गया.
48 घंटे बाद रुपए को दोबारा अवमूल्यन किया गया. 3 जुलाई की सुबह नरसिम्हा राव ने मनमोहन सिंह को फ़ोन मिला कर कहा कि वो दूसरा अवमूल्यन रोक दें. मनमोहन सिंह ने रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर डाक्टर सी रंगराजन को सुबह साढ़े नौ बजे फ़ोन मिलाया.
रंगराजन ने कहा कि आधे घंटे पहले दूसरा अवमूल्यन किया जा चुका है. मनमोहन सिंह अंदर ही अंदर बहुत खुश हुए लेकिन जब उन्होंने नरसिम्हा राव को इसकी खबर दी तो उन्होंने दिखावा किया कि उन्हें इससे तकलीफ़ पहुंची है.’
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नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री बनने को दो सप्ताह बाद दक्षिण मुंबई में रिज़र्व बैंक के कोष्ठ से बंद गाड़ियों का एक काफ़िला रवाना हुआ. उसके चारों तरफ़ इतना बड़ा सुरक्षा बंदोबस्त किया गया था जैसे कोई शासनाध्यक्ष इस काफ़िले में जा रहा हो.
विनय सीतापति ने नरसिम्हा राव की जीवनी ‘हाफ़ लायन हाऊ नरसिम्हा राव ट्राँसफ़ॉर्म्ड इंडिया’ में लिखा, ‘इन गाड़ियों में 21 टन सोना लदा हुआ था. ये काफ़िला 35 किलोमीटर दूर सहार हवाईअड्डे पर जा कर रुका, जहाँ इसे ले जाने के लिए हेवी लिफ़्ट कारगो एयरलाइंस का विमान खड़ा हुआ था. इस सोने को लंदन पहुंचा कर बैंक ऑफ़ इंग्लैंड के कोष्ठ में रख दिया गया. इसके बदले में नरसिम्हा राव सरकार को जो डॉलर मिले उसकी वजह से भारत को उसके द्वारा लिए गए ऋण के भुगतान में देरी की अनुमति मिल गई.’
औद्योगिक नीति में भारी बदलाव
24 जुलाई, 1991 को दिल्ली में भयानक गर्मी थी. दोपहर 12 बज कर 50 मिनट पर मनमोहन सिंह के बजट पेश करने से चार घंटे पहले उद्योग राज्य मंत्री पी जे कुरियन ने खड़े हो कर एक रुटीन वकतव्य दिया, ‘सर मैं सदन के पटल पर औद्योगिक नीति पर एक वकतव्य रख रहा हूँ.’
औद्योगिक निति में जिस तरह के आमूल परिवर्तन किए गए थे, उससे ये तो बनता था कि इस महत्वपूर्ण वकतव्य को कैबिनेट मंत्री सदन में पेश करे. लेकिन उद्योग मंत्रालय का काम देख रहे नरसिम्हा राव ने अपने आप को इससे दूर रखा. इस नीति का सबसे महत्वपूर्ण वाक्य था, ‘अब से सभी उद्योंगों में लाइसेंसिंग का नियम समाप्त किया जाता है. सिर्फ़ 18 उद्योगों में जिनका विवरण संलग्नक में दिया गया है, लाइसेंसिंग का नियम जारी रहेगा.’
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दूसरा बदलाव था बड़ी कंपनियों के प्रति एकाधिकार विरोधी प्रतिबंधों को आसान बनाना. तीसरा क्राँतिकारी परिवर्तन था 34 उद्योगों में विदेशी निवेश की सीमा को 40 फ़ीसदी से बढ़ा कर 51 फ़ीसदी करना.
संजय बारू ने अपनी किताब ‘1991 हाऊ पी वी नरसिम्हा राव मेड हिस्ट्री’ में लिखा, ‘नेहरू और इंदिरा के प्रति सम्मान प्रकट करने और भारत के औद्योगीकरण में उनके योगदान को याद करने के बाद नरसिम्हा राव ने एक झटके में समाजवाद के नाम पर खड़ी औद्योगिक नीति को इतिहास का एक हिस्सा बना दिया.
कांग्रेस में अपने विरोधियों को चुप कराने के लिए इसको नाम दिया गया, ‘चेंज विद कन्टीनुएटी’ यानि ‘निरंतरता के साथ बदलाव.’ बजट की गहमागहमी में इस बदलाव की तरफ़ लोगों का ध्यान ही नहीं गया. राव ने बाकायदा योजना बना कर ऐसा किया.’
नेहरू और इंदिरा की नीतियों को पलटा
चार घंटे बाद शायद ज़िदगी में पहली बार नेहरू जैकेट पहने और आसमानी रंग की पगड़ी बाँधे हुए मनमोहन सिंह ने अपने भाषण की शुरुआत में कहा कि वो राजीव गाँधी के आकर्षक और मुस्कराते हुए चेहरे को मिस कर रहे हैं.
जयराम रमेश लिखते हैं कि ‘उन्होंने अपने पूरे भाषण के दौरान उस परिवार का बार बार नाम लिया जिसकी नीतियों और विचारधारा को वो अपने बजट के माध्यम से सिरे से पलट रहे थे.’ मनमोहन सिंह ने अपने बजट में न सिर्फ़ खाद पर दी जा रही सब्सिडी को 40 फ़ीसदी कम किया बल्कि चीनी और एलपीजी सिलेंडर के दाम भी बढ़ा दिए. उन्होंने अपने भाषण का अंत विक्टर ह्यूगो की मशहूर पंक्ति से किया, ‘उस विचार को कोई नहीं रोक सकता जिसका समय आ पहुंचा हो.’
एक दिन में ही नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह ने मिल कर लाइसेंस राज के तीन स्तंभों- सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार, निजी कारोबार को सीमित करना और विश्व बाज़ार से अलगाव को ध्वस्त कर दिया.
विनय सीतापति ने लिखा, ‘नरसिम्हा राव ने अपने पिछले अनुभवों से सीख ली थी कि किसी नई चीज़ को करते हुए न तो बहुत उत्साह दिखाया जाए और न ही बढ़चढ़ कर उसका श्रेय लिया जाए. उन्होंने अपनी ही बनाई गई औद्योगिक नीति को सदन में पेश करने से इंकार कर दिया.
मनमोहन सिंह के बजट भाषण के दौरान वो बिना कोई शब्द कहे उनकी बग़ल में बैठे रहे. आज़ादी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा परिवर्तन करने के बाद उसी रात उन्होंने मॉरिशस के प्रधानमंत्री अनिरुद्ध जगन्नाथ के सम्मान में रात्रि भोज दिया.’
कांग्रेस पार्टी में ही विरोध
इन क्राँतिकारी कदमों की विपक्ष ने तो आलोचना की ही, उनकी अपनी पार्टी के भी सदस्य उनके समर्थन में सामने नहीं आए. कांग्रेस संसदीय दल में सिर्फ़ मणिशंकर अय्यर और नाथूराम मिर्धा ने खुल कर नरसिम्हा राव का समर्थन किया.
रुपए के अवमूल्यन के एक दिन बाद यानि 4 जुलाई को पश्चिम बंगाल की कम्यूनिस्ट सरकार ने भुगतान संतुलन के लिए एक वैकल्पिक दृष्टिकोण नाम से एक मसौदा पेश किया. कम्यूनिस्ट नेता ईएमएस नम्बूदरीपाद ने आईएमएफ़ से लिए गए ऋण की तुलना एक प्यासे व्यक्ति से की जो ये दलीली दे कर ज़हर का प्याला पी रहा है कि इसके अलावा वो किसी और चीज़ से अपनी प्यास नहीं बुझा सकता. नरसिम्हा राव ने कम्यूनिस्टों को आश्वासन दिया कि उनकी आर्थिक नीतियों की वजह से एक भी मज़दूर की नौकरी नहीं ली जाएगी.
उद्योगपतियों से संवाद
दूसरी तरफ़ उद्योगपतियों के डर को दूर करने के लिए नरसिम्हा राव ने सभी बड़े उद्योगपतियों को मिलने का समय दिया. राव की अपाएंटमेंट डायरी बताती है कि वो बजट पेश होने के दो दिन बाद 26 जुलाई की सुबह 7 बजे धीरुभाई अंबानी से मिले. 16 अगस्त को उन्होंने फिर उनसे मुलाकात की.
इसके अलावा उन्होंने कई बड़े उद्योगपतियों से मिलने के लिए अपने प्रेस सचिव पीवीआर के प्रसाद और प्रधान सचिव अमरनाथ वर्मा को भेजा. उन्होंने जानेमाने उद्योगपति जे आरडी टाटा को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न भी दिलवाया. ये पहला मौका था जब किसी उद्योगपति को ये सम्मान दिया गया था.
1992 का मध्य आते आते भारत का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ कर सामान्य हो चला था. नरसिम्हा राव की राजनीतिक समझबूझ के बिना जिसमें उन्होंने परिवर्तन को निरंतरता का जामा पहनाया, जावहरलाल नेहरू के समय के बाद किए गए सबसे बड़े आर्थिक सुधारों के सफल होने का कोई सवाल ही नहीं था.
चीन के नेता डेंग से तुलना
जयराम रमेश ने नरसिम्हा राव की तुलना चीन के नेता डेंग ज़ियाओ पिंग से की थी. जयराम रमेश ने लिखा था, ‘दोनों बुज़ुर्ग नेता थे. दोनों के करियार में कई उतार चढ़ाव आए (उतार ज़्यादा) लेकिन जब उन्हें मौका मिला दोनों ने चारों ओर अपनी छाप छोड़ी.
राव ने इसे किया जुलाई, 1991 में और डेंग ने पहले 1978 में और फिर 1992 में. डेंग ने जहाँ माओ की कट्टरपंथी नीतियों को पूरी तरह से पलट दिया, राव ने भारत की आर्थिक नीति के सुधार की नई इबारत खड़ी की जिसकी कुछ सालों पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.’
1988 में जब राजीव गाँधी चीन गए तो विदेश मंत्री के रूप में नरसिम्हा राव उनके साथ थे लेकिन चीनी नेता डेंग ज़ियाओ पिंग के साथ हुई मुलाकातों में उन्होंने अपने विदेश मंत्री नरसिम्हा राव को दूर रखा. दिलचस्प बात ये है कि उन्हीं राव को बाद में भारत का डेंग कहा गया.