पाकिस्तान की राजनीति में रिटायर्ड जनरलों का कितना दबदबा?

जनरल क़मर जावेद वाजवा

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इमेज कैप्शन,कुछ पूर्व फौजियों का दावा है कि सेना प्रमुख जनरल बाजवा ने नब्बे दिनों के अंदर आम चुनाव करवाने का वादा किया था

पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में मंगलवार को प्रेस क्लब के बाहर रिटायर्ड फौजी अफसरों के एक संगठन ‘वेटरन्स ऑफ पाकिस्तान’ की प्रेस कॉन्फ्रेंस ने देश की राजनीति में सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों के प्रभुत्व पर एक बहस छेड़ दी है.

इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) अली क़ुली ख़ान, लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) आसिफ़ यासीन और अन्य नामी अफसर मौजूद थे.

पाकिस्तान आर्मी के पहले लॉन्ग कोर्स से जुड़े रहने वाले ब्रिगेडियर मियां महमूद ने वहाँ दावा किया कि जनरल अली क़ुली ख़ान के साथ रिटायर्ड फौजियों के एक ग्रुप से मुलाक़ात में सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा ने वादा किया था कि 90 दिन में ही नये चुनाव कराये जाएंगे. उन्होंने पूछा कि ‘अब वह वादा कहाँ गया?’

हालाँकि, प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने पत्रकारों को सवाल नहीं पूछने दिया जिसे लेकर वहाँ पत्रकारों और रिटायर्ड अफसरों के बीच तू-तू, मैं-मैं हो गई, और सोशल मीडिया पर इसके वीडियो क्लिप्स आने के बाद बहस छिड़ गई.

कई लोग प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वालों पर अपनी राजनीति चमकाने के आरोप लगा रहे हैं, तो कई और उनके बयानों का समर्थन कर रहे हैं.

कुछ लोग जनरल अली क़ुली ख़ान का ज़िक्र भी कर रहे हैं जिन्होंने कुछ साल पहले पूर्व सत्ताधारी दल तहरीक-ए-इंसाफ यानी पीटीआई की सदस्यता ग्रहण कर ली थी.

इसके साथ उनके बेटे ख़ालिद क़ुली ख़ान का नाम भी लिया जा रहा है जिन्हें 2018 में तो इमरान ख़ान ने पार्टी का टिकट नहीं दिया था. लेकिन अब कई सोशल मीडिया यूज़र्स ने उन तस्वीरों और ट्वीट्स को साझा किया है जिनमें उन्हें हाल ही में इमरान ख़ान से मुलाक़ात करते देखा जा सकता है.

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पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के खि़लाफ़ विपक्ष के आन्दोलन में सेना ने निष्पक्ष रहने का ऐलान किया था.

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ध्यान रहे कि लेफ्टिनेंट जनरल रिटायर्ड अली क़ुली ख़ान उस समय सेना से हटे थे जब नवाज़ शरीफ़ ने 1998 में उन्हें दरकिनार करते हुए जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ को सेनाध्यक्ष नियुक्त किया था.

इससे कई दशक पहले 1958 में उनके पिता जनरल हबीबुल्लाह ख़ान ख़टक की जगह जनरल अय्यूब ख़ान ने जनरल मोहम्मद मूसा को पाकिस्तान आर्मी का पहला कमांडर इन चीफ बनाया था.

जनरल अली क़ुली ख़ान ने रिटायरमेंट के बाद राजनीतिक करियर की शुरुआत की और उनके बेटे 2018 में कर्क से पाकिस्तान तहरीक इंसाफ़ के टिकट के उम्मीदवार थे. लेकिन तब उन्हें पार्टी टिकट नहीं दिया गया था.

दूसरी ओर कई सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में शामिल अफ़सरों की राय का समर्थन भी किया है. लेकिन रिटायर्ड फौजी अफसरों की ये एसोसिएशंस या सोसायटीज़ आखिर क्या हैं और क्या ये राष्ट्रीय मामलों में नीतिगत निर्णय लेने की सतह पर किसी तरह का प्रभाव और पैठ रखती हैं?

इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमने विभिन्न सेवारत और पूर्व फौजी अफसरों से बात की है मगर पहले इस पर बात करते हैं कि रिटायर्ड फौजी अफसरों के लिए खुद फौज में क्या व्यवस्था प्रचलित है.

पूर्व फौजियों के लिए स्थापित संस्थाएं

रक्षा मंत्रालय और पाकिस्तानी सेना से रिटायर होने वाले पदाधिकारियों के लिए, चाहे वे किसी भी रैंक से संबंध रखते हों, निदेशालय मौजूद हैं.

सैन्य अधिकारियों से संबंधित किसी भी मंच की सरकारी हैसियत सिर्फ उस स्थिति में मान्य होगी जब वह जीएचक्यू यानी सेना मुख्यालय में रजिस्टर्ड होगा या उसके पास सेना मुख्यालय और रक्षा मंत्रालय की ओर से जारी एनओसी या अनुमति पत्र होगा.

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सेना पूर्व अधिकारियों से सीधा संपर्क रखती है और इस उद्देश्य के लिए सेना मुख्यालय में एडजुडेंट जनरल ब्रांच के अंतर्गत रिटायर्ड कर्मियों के कल्याण के लिए वेलफेयर एंड रिहैबिलिटेशन डायरेक्टरेट कायम है.

इसके अलावा देश के हर ज़िले में डिस्ट्रिक्ट आर्म्ड सर्विसेज बोर्ड या डीएसबी के कार्यालय हैं. यह बोर्ड एडजुडेंट जनरल ब्रांच और रक्षा मंत्रालय से पंजीकृत है.

यह फौज से रिटायर होने वाले पदाधिकारियों की समस्याओं, पेंशन, कागजी कार्रवाइयों, नौकरी के लिए सेना मुख्यालय से अनुमति पत्र और अन्य मामलों का ध्यान रखता है.

हर जिले में इस बोर्ड के दफ्तर की व्यवस्था एक रिटायर्ड अफसर के सुपुर्द किया जाता है जो रक्षा मंत्रालय से वेतन लेता है. इस तरह एडजुडेंट जनरल के अंतर्गत सेंट्रल ऑफिस रिकॉर्ड ऑफिस है जो अफसरों से संबंधित रिकॉर्ड रखता है जबकि एमएस ब्रांच सेवारत और रिटायर्ड अफसरों का रिकॉर्ड रखता है. जवानों का सर्विस रिकॉर्ड संबंधित रेजिमेंटल सेंटर में रखा जाता है.

इसी तरह अन्य सैन्य मुख्यालयों और रक्षा मंत्रालय की ओर से स्वीकृत संगठन ही रिटायर्ड कर्मियों के कल्याण के लिए काम करने वाले मान्यता प्राप्त संगठन हैं.

तो इन पूर्व फौजियों के कल्याण के नाम पर बने दूसरे संगठनों की हैसियत क्या है?

पूर्व फ़ौजियों के नाम पर बने ग़ैर सरकारी संगठन

इस समय देश में कुछ संगठन हैं जो खुद को रिटायर फौजी अफसरों और रक्षा मंत्रालय के पूर्व कर्मचारियों का प्रतिनिधि कहते हैं.

इनमें ‘पेस’ यानी पाकिस्तान एक्स सर्विसमेन सोसायटी है जिसकी स्थापना 1991 में हुई थी.

ऐसा ही एक और संगठन पाकिस्तान वेटरन्स एसोसिएशन है जो जनवरी 2008 में पाकिस्तान एक्स सर्विसमेन एसोसिएशन के नाम से बनाया गया और मूलतः पूर्व राष्ट्रपति जनरल (रिटायर्ड) परवेज मुशर्रफ के खिलाफ चलने वाले वकीलों के आंदोलन में भाग लेने के लिए बनाया गया था. सरकारी स्रोतों के अनुसार यह संगठन पंजीकृत नहीं है.

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‘पेस’ या एक्स सर्विसमेन सोसायटी एक गैर सरकारी संगठन के तौर पर ज्वाइंट स्टॉक कंपनीज़, रावलपिंडी के साथ रजिस्टर्ड है और संगठन के अध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) अमजद शोएब के मुताबिक इस सोसायटी के साथ लगभग सात लाख रिटायर्ड फौजी जुड़े हुए हैं.

उनका कहना है कि उनकी फंडिंग का कोई स्रोत नहीं और सदस्यों में से जो अपनी हैसियत के अनुसार फंडिंग करना चाहे, वह करता है.

रिटायर्ड फौजियों के लिए बनाए गए सभी छोटे बड़े संगठनों में से सिर्फ एक संगठन ही रजिस्टर्ड है. हालांकि यह भी सेना मुख्यालय या रक्षा मंत्रालय के साथ संबद्ध नहीं है, न ही उनके पास उनकी ओर से जारी किसी भी प्रकार का अनुमति पत्र है.

एक पदाधिकारी के अनुसार यही कारण है कि इन संगठनों का खुद को सभी रिटायर्ड फौजियों का प्रतिनिधि कहना गलत और गैर कानूनी है.

मगर लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) अमजद शोएब कहते हैं कि उनके संगठन समेत दूसरे भूतपूर्व सैनिकों के संगठनों की स्थापना का मूल उद्देश्य आपस में सम्पर्क स्थापित करना और समस्या हल करने के साथ-साथ महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मामलों पर अपनी राय व्यक्त करना है.

वेटरन्स ऑफ पाकिस्तान नाम के संगठन पर राजनीतिक उद्देश्य रखने का आरोप लगाया गया है.

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इमेज कैप्शन,वेटरन्स ऑफ पाकिस्तान नाम के संगठन पर राजनीतिक उद्देश्य रखने का आरोप लगाया गया है.

रिटायर्ड फौजियों का कल्याण या प्रेशर ग्रुप?

बीबीसी से बात करते हुए अमजद शोएब ने कहा,”मूल काम कल्याण का है. उनकी बेहतरी की कोशिश करना, उनके लिए नौकरियों की व्यवस्था करना और उनकी समस्याओं को सरकार या संबंधित फोरम के सामने रखना है. लेकिन इसके साथ हम पाकिस्तान की फौज को सपोर्ट मुहैया करते हैं जब हम समझते हैं कि उन संस्थाओं को बगैर किसी वजह के निशाना बनाया जा रहा है.”

“इसकी बुनियादी वजह यह है कि कभी ना कभी तो यह (आईएसपीआर) प्रेस कॉन्फ्रेंस कर लेते हैं मगर यह हमेशा जनता में अपना बचाव नहीं कर सकते. लेकिन हमें तो प्रेस कॉन्फ्रेंस करने या प्रेस रिलीज़ जारी करने से कोई नहीं रोक सकता.”

प्रेशर ग्रुप की भूमिका की बात स्वीकार करते हुए वे कहते हैं,”हम राष्ट्रीय मामलों पर एक प्रेशर ग्रुप का भी रोल अदा करते हैं क्योंकि हम समझते हैं कि हम समाज के एक बड़े हिस्से के प्रतिनिधि हैं और हमारी राय का महत्व है. हर तहसील में हमारे कार्यालय हैं और हम वहां से किसी भी राष्ट्रीय मामले पर फीडबैक या राय लेते रहते हैं.”

वे कहते हैं कि यह आरोप ग़लत है कि हम किसी राजनीतिक दल का समर्थन या विरोध करते हैं. हमारा किसी से कोई संबंध नहीं, अगर किसी विशेष परिस्थिति में हमारा बयान या हमारी राय किसी एक दल के समर्थन में है तो इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं कि हम उस दल के समर्थक हैं और दूसरा यह एक व्यक्ति की नहीं बल्कि एक संगठन की राय होती है.

हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा कि प्रेस क्लब में वेटरन्स ऑफ पाकिस्तान नामी संगठन के कई सदस्य राजनीतिक हैसियत रखते हैं जो सबकी जानकारी में है. लेकिन उनका यह भी कहना था कि वर्तमान राजनीतिक माहौल में उनका संगठन भी वही राय रखता है मगर ‘हमने यह फैसला किया है कि हम ऐसे बयानों से बचेंगे जो पाकिस्तान और देश के सैन्य बलों की साख को नुक़सान पहुंचाने की वजह बन जाएं.’

इस बारे में बीबीसी ने वेटरन्स ऑफ पाकिस्तान से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उनके सदस्यों ने कोई जवाब नहीं दिया.

लेकिन क्या पूर्व फौजी अफसरों या उनके गैर सरकारी संगठनों की राय या उनके बयान नीतिगत निर्णय लेने को प्रभावित कर सकती है?

इस सवाल का जवाब देते हुए लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) शोएब ने कहा कि फौजी नेतृत्व के लिए वही महत्वपूर्ण हैं जो फौज में सेवाएं दे रहे हैं. उन्होंने कहा,”सेनाध्यक्ष के लिए उनकी कमान में काम करने वाले फौजियों की राय और सोच महत्व रखती है, इसलिए रिटायर्ड फौजी अफसर किसी मामले पर क्या राय रखते हैं, इसका फौज से कोई संबंध होना जरूरी नहीं है.”

संबंधित सूत्रों ने वेटरन ऑफ पाकिस्तान की हाल की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बारे में बीबीसी से बात करते हुए कहा कि उन संगठनों का सेना से कोई संबंध नहीं है, न ही ये सेना मुख्यालय या रक्षा मंत्रालय के तहत या उनकी अनुमति से काम कर रहे हैं.

वो कहते हैं, “फौजी अफसरों के कल्याण के लिए औपचारिक व्यवस्था मौजूद है जो पूर्णतः सक्रिय है. पूर्व फौजियों को पूर्ण स्वतंत्रता है कि वे राजनीति में भाग लें लेकिन देश का कानून उन्हें इस बात की बिल्कुल अनुमति नहीं देता कि वे सैन्य बलों के साथ अपने संबंध का इस्तेमाल करते हुए राजनीतिक लाभ प्राप्त करने की कोशिश करें.”

इस सवाल पर कि क्या प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान फौज या फौजी नेतृत्व पर आरोप लगाने वालों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी, उन्होंने कहा कि ऐसा संभव है क्योंकि ये वैसे ही आरोप हैं जैसे हाल ही में ईमान हाज़िर मज़ारी ने लगाए थे जो ‘देश के क़ानून के ख़िलाफ़ है.’

ध्यान रहे कि पाकिस्तानी फौज की तरफ से ईमान मज़ारी के ख़िलाफ़ दर्ज एफआईआर में कहा गया था कि शीरीन मज़ारी की बेटी ने फौज और आर्मी चीफ जनरल क़मर जावेद बाजवा के ख़िलाफ़ अपमानजनक बयान दिया था. और यह कि उनके बयान का उद्देश्य फौज में नफरत, अविश्वास और अफरातफरी पैदा करना है] जो कि बहुत गंभीर और सज़ा के काबिल जुर्म है.

फौज ने कहा था कि ईमान मज़ारी ने अफसरों का शीर्ष नेतृत्व से मनभेद कराने की कोशिश की है. सेना मुख्यालय के अनुसार ईमान मज़ारी का बयान फौज की छवि के लिए हानिकारक है, और ‘उनके बयान का उद्देश्य जनता में डर और ख़ौफ़ पैदा करना है जो कि देश के खिलाफ जुर्म है.’

ईमान मज़ारी की ओर से अदालत में लिखित जवाब देते हुए कहा गया था कि उनकी मां की गिरफ्तारी से पहले और बाद में हुई कुछ घटनाओं के कारण वे तनाव में थीं और उन घटनाओं की पृष्ठभूमि में उनके दिए गए बयान का उद्देश्य फौज में बेचैनी फैलाना नहीं था.