पाकिस्तानी सियासत को ‘इस्लामिक टच’ देने का रिवाज कितना पुराना है?

पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास पर पिछले चार दशक से नज़र रखने वाले एक दोस्त मुस्कुराकर कहने लगे कि अबरार-उल-हक़ होते तो कहते, ‘थोड़ा जिया सियासत नूँ दे देव इस्लामी टच…’

बातचीत का केंद्र क़ासिम सूरी थे जिन्होंने तहरीक-ए-इंसाफ़ के हालिया मार्च में अपने भाषण के दौरान इमरान ख़ान को सलाह दी कि वे अपने भाषण को ‘थोड़ा इस्लामिक टच’ दें.

उनकी यह सलाह इमरान ख़ान ने कुबूल भी की और अपने भाषण में उन्होंने कुछ यूं कहा कि मैं ‘आशिक़-ए-रसूल हूं…’

हालांकि पाकिस्तान के नेताओं में कौन ‘आशिक़-ए-रसूल’ है और कितना? यह सवाल चर्चा का विषय नहीं है. बात ये है कि क्या इमरान ख़ान पहले राजनेता हैं, जो पाकिस्तान के मज़हब पर मर मिटने वाले जनमत को मज़हबी नारे से प्रभावित करते हैं या इस मैदान के कुछ दूसरे भी शह-सवार हैं? यदि हैं, तो वे कौन हैं और कौन किस पर भारी है?