Mayawati Akhilesh Yadav Nitish Kumar PM Candidate: लोकसभा चुनाव 2024 जैसे-जैसे नजदीक आ रहा, विपक्ष के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों के बीच की रेस तेज होती जा रही है। भारतीय जनता पार्टी का चेहरा फिक्स है। वहीं, लड़ाई विपक्षी खेमे की है। ऐसे में परेशानी नीतीश कुमार की बढ़ने वाली है।
सीमांचल में अमित शाह के दौरों से बढ़ी राजनीति के बीच नीतीश के फिलहाल एनडीए में लौटने की संभावना तो बनती नहीं ही दिखती है। ऐसे में उनके ही सरकार के मंत्री सुधाकर सिंह हों या फिर राजद प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह, बिहार से उनकी विदाई की बातें करते तो दिखने ही लगे हैं। 2023 आने में अब दो महीनों का समय बचा है। ऐसे में क्या नीतीश कुमार के लिए परिस्थितियां अनुकूल हो गई हैं? अगर आप यह सोचने बैठेंगे तो आपको जवाब न ही मिलेगा। जिस यूपी की राजनीतिक बिसात के सहारे नीतीश कुमार दिल्ली के सपने देख रहे हैं। वहां उन्हें भी पता है कि भाजपा बूथ स्तर तक मजबूत है। इसे अलग रख भी दें तो विपक्ष की राजनीति के दो बड़े खिलाड़ी, समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती, अपनी अलग राजनीतिक बिसात बिछाते दिख रहे हैं। दोनों ही दलों से अपने-अपने प्रमुख के नाम के आगे पीएम उम्मीदवार का टैग चाहिए। ऐसे में अगर यूपी में नीतीश संभावना तलाशने आएंगे भी तो बिना दोनों के साथ के कितनी दूर चल पाएंगे, कह पाना मुश्किल है।
मायावती के दावे ने बढ़ाई है राजनीतिक गर्मी
बसपा सुप्रीमो मायावती के दावों ने राजनीतिक गर्मी बढ़ा दी है। यूपी से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक। आप मायावती या बसपा को सिरे तो खारिज नहीं ही कर सकते हैं। हालिया यूपी चुनाव ने इसे साबित भी किया है। मायावती बामुश्किल दर्जन भर स्थानों पर रैली कर पाईं। इसके बाद भी बसपा ने 12 फीसदी से अधिक वोट शेयर हासिल किया। अगर यूपी में मायावती प्रधानमंत्री पद की दावेदारी करती हैं और इस संदेश को जमीन तक पहुंचाने में उनके कार्यकर्ता सफल होते हैं तो फिर यूपी में लगभग 25 फीसदी वोट शेयर की राजनीति करने वाली बसपा अपने पुराने रुतबे तक पहुंच सकती है। इसलिए, बसपा की ओर से मायावती को प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किए जाने के दावों के पीछे की राजनीति को समझ जाइए। अगर उनकी दावेदारी है तो फिर तीसरा मोर्चा या तो उन्हें घोषित तौर पर अपने साथ जोड़ने की कोशिश नहीं करेगा या फिर उनकी मांगों को मान लेगा।
मांग माने जाने की गारंटी कम है। ऐसे में गठबंधन में शामिल होने के न्योते को सीधे तौर पर नहीं दिए जाने की रणनीति पर ही काम होगा। ताकि, किसी भी स्थिति में मायावती के अपमान का मसला जमीनी स्तर पर छेड़कर इसका राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश न हो सके। यकीन मानिए, मायावती यूपी ही नहीं देश के कई राज्यों की राजनीति में दलित वोट बैंक के बीच अपनी पकड़ रखती हैं। उम्मीदवारों के जीत और हार के बीच के अंतर इतना उनके उम्मीदवार कई सीटों पर वोट काट ले जाते हैं। बसपा प्रवक्ता ने तीसरा मोर्चा में शामिल होने की मायावती को पीएम उम्मीदवार बनाए जाने की शर्त के साथ पत्ते खोल दिए हैं। अब गेंद तीसरे मोर्चे के रणनीतिकारों के पाले में है।
दावा तो सपा का भी है
प्रधानमंत्री पद की दावेदारी तो समाजवादी पार्टी की ओर से भी हुई है। वह भी अखिलेश यादव के सामने। मौका था समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन। पांच सालों पर होने वाला यह अधिवेशन रमाबाई अंबेडकर मैदान में चल रहा था। मंच पर सीनियर नेता रविदास मेहरोत्रा अपनी बात रख रहे थे। इसी दौरान उन्होंने कहा कि देश में गैर भाजपा सरकार बने। समाजवादी पार्टी देश में सबसे अधिक सीट जीतने वाली पार्टी बने। अखिलेश यादव देश के प्रधानमंत्री बनें। पार्टी के मंच से इस प्रकार की बातों ने कार्यकर्ताओं में जोश भरा। अखिलेश भैया जिंदाबाद के नारे लगे। अखिलेश यादव बनें पीएम उम्मीदवार के भी। बारी अखिलेश की आई तो उन्होंने रविदास मेहरोत्रा के इस बयान का जिक्र सपनों के माध्यम से किया। उन्होंने कहा कि रविदास मेहरोत्र ने बड़े सपने दिखाए हैं।
अखिलेश ने कहा कि मैं उतने बड़े सपने नहीं देखता। हां, मेरा सपना है कि देश से भाजपा का सफाया हो और केंद्र में गैर भाजपा सरकार बने। लेकिन, नारे बदस्तूर जारी रहे। रविदास मेहरोत्र के सुर में सांसद एसटी हसन और पूर्व नेता प्रतिपक्ष रामगोविंद चौधरी ने सुर में सुर मिलाया। देश में अखिलेश से बेहतर प्रधानमंत्री उम्मीदवार का विकल्प न होने की बात कही। अखिलेश के चेहरे की मुस्कान हर दावे के साथ बिखड़ती रही।
तो फिर, नीतीश कुमार का क्या होगा?
देश के सबसे बड़े प्रदेश से विपक्ष के दो बड़े राजनीतिक दलों के कद्दावर नेताओं के नेता के नाम पीएम उम्मीदवारी पर सामने आ चुके हैं। ऐसे में यूपी के जरिए देश की सियासत को साधने निकले नीतीश कुमार का क्या होगा? पिछले दिनों जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने उनके यूपी से चुनाव लड़ने के प्रदेश संगठन की मांग की बात छेड़ राजनीतिक गर्मी बढ़ाई थी। फिर बात उड़ी कि वे फूलपुर लोकसभा सीट से चुनावी मैदान में उतरेंगे। बाद में मिर्जापुर या पूर्वांचल की कोई सीट की बात सामने आई। इन तमाम दावों के बीच नीतीश ने इससे इनकार किया। इस इकरार और इनकार के बीच सबसे अहम बात रह गई कि नीतीश जाएंगे किस खोल में। बिहार में तो नीतीश कुमार इस समय जदयू को राजद, कांग्रेस और वाम दलों के साथ जोड़कर सत्ता में पहुंच गए हैं। लेकिन, केंद्र की राजनीति में हर दल की अपनी राजनीति है।
बिहार की सत्ता में नीतीश के साथ खड़े लालू यादव केंद्र में कांग्रेस को छोड़ कितनी दूर तक उनके साथ चल पाएंगे, कहना मुश्किल है। लालू और कांग्रेस का साथ 1997 से बना हुआ है। कभी खुलकर, कभी पीछे से। लालू और कांग्रेस, साथ-साथ चले, बढ़े हैं। नीतीश तो विरोध की राजनीति में थे। 2015 में साथ आए। 2017 में छोड़ गए। अब फिर जुड़े हैं। ऐसे में कांग्रेस के नया अध्यक्ष का चुनाव होता है और नवनियुक्त अध्यक्ष वर्ष 2024 का चुनाव राहुल गांधी या किसी अन्य कांग्रेसी नेता के नेतृत्व में लड़े जाने की घोषणा करता है, तो लालू इसके विरोध में खड़े हो जाएंगे, कहना मुश्किल है।
कांग्रेस के साथ का भरोसा कम
कांग्रेस ने इस बार पहले ही जोर लगाना शुरू किया है। संगठन के चुनाव हो रहे हैं। माहौल संगठन का चुनावी है, लेकिन नजर 2024 के चुनाव पर है। कांग्रेस में इतनी कवायद हथियार डालने के लिए नहीं हो रही। कांग्रेस नए अध्यक्ष के नए जोश के साथ चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी में है। ऐसे में नीतीश कुमार को पार्टी पीएम उम्मीदवार बना देगी, संभावना कम ही लगती है। बात भरोसे की है। 2017 में कांग्रेस को बिहार की सत्ता से दूर करने में नीतीश कुमार की बड़ी भूमिका थी। उस समय कांग्रेस अभी से अधिक मजबूत थी। नीतीश अलग ही नहीं हुए। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अशोक कुमार चौधरी समेत विधान परिषद के अधिकांश सदस्यों को अपने पाले में मिला लिया। ऐसे में कांग्रेस का कितना भरोसा नीतीश जीत पाएंगे, देखना होगा।
देश में वैसे भी कांग्रेस ही ऐसी विपक्षी पार्टी है, जो हर प्रदेश में अपने उम्मीदवार खड़ी कर सकती है। लड़ाई में भी दिखती है। वह नेताविहीन चुनाव लड़े या दूसरे दल के नेता को चेहरा बनाकर, यह सेल्फ गोल भी हो सकता है। और भाजपा को मौका देने का विषय भी। भाजपा मुद्दा बना देगी, कांग्रेस के पास नेता ही नहीं है। ऐसे में देश की राजनीति में पार्टी की स्थिति और खराब हो सकती है। यह कांग्रेस बिल्कुल नहीं चाहेगी। नीतीश की मुश्किलें यहां भी बढ़ती दिखती हैं।
और, तीसरे मोर्चे में हर धड़ा का अपना चेहरा
तीसरे मोर्चे की बात करें तो हर धड़ा का अपना चेहरा दिखता है। सभी धड़े अपने कुनबे को मजबूत करने की कोशिश करेंगे। ऐसे में कोई एक नेता पर चुनाव से पहले बात बनने से रही। चुनाव के बाद अगर समीकरण बना भी तो नेता चुन पाना बड़ी मुश्किल स्थिति होगी। इसमें नीतीश कुमार अगर पहले से स्थान बनाने में कामयाब नहीं हुए तो बाद में इनका नंबर तो कट ही जाएगा। यूपी के दोनों धड़ों की बात आप समझ चुके हैं। झारखंड में हेमंत सोरेन की दिल्ली दौड़ का कोई इरादा नहीं है। कुछ यही हाल ओडिशा के सीएम और बीजू जनता दल प्रमुख नवीन पटनायक का है। वाम दल अपने पत्ते चुनाव में नहीं खोलने वाले हैं। ऐसे में प्रमुख राज्यों के धड़ों की राजनीति को ऐसे समझिए…
पश्चिम बंगाल: बंगाल चुनाव में भाजपा के पूरा जोर लगाने के बाद भी ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस को रिकॉर्ड सीटों से जिता ले गईं। इसके बाद से उनकी नजर भी केंद्र की सत्ता पर है। तीसरा मोर्चा को आकार देने वाले तीन नेताओं में उनका भी नाम है। पीएम कैंडिडेट को लेकर भी।
महाराष्ट्र: महाराष्ट्र की राजनीति में पिछले दिनों तक सत्ता के शीर्ष पर विराजमान और अब विपक्षी बने कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना उद्धव गुट की अपनी-अपनी राजनीति है। तीसरे मोर्चे को आकार देने में एनसीपी प्रमुख शरद पवार भी लगे हैं। लेकिन, वे कांग्रेस के भी साथ हैं। यही हाल शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट का भी है। इस राजनीति के बीच नीतीश कहीं फिट होते नहीं दिखते। शरद पवार उनसे इस मामले में सीनियर हैं।
तेलंगाना: सत्ताधारी तेलंगाना राष्ट्र समिति जल्द ही भारत राष्ट्र समिति बनने वाली है। सीएम के. चंद्रशेखर राव पार्टी का फलक राष्ट्रीय स्तर तक बढ़ाकर इसे नया रूप देने वाले हैं। ऐसे में साफ है कि इस पार्टी के तो वे ही पीएम उम्मीदवार होंगे। वे भी तीसरे मोर्चे को आकार देने वाले नेताओं में शामिल हैं।
तमिलनाडु: सत्ताधारी डीएमके कांग्रेस के साथ खड़ी है। वहीं, विपक्षी एआईएडीएमके जयललिता के निधन के बाद से ही अंदरूनी राजनीति का शिकार है। लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी एकजुट भी हो गई तो उसका झुकाव एनडीए की तरफ दिख सकता है।
आंध्र प्रदेश: आंध्र प्रदेश की सत्ता पर काबिज वाईएसआर कांग्रेस की रणनीति केंद्र के साथ मिलकर काम करने की रही है। ऐसे में पार्टी प्रमुख और सीएम जगनमोहन रेड्डी पहले अपना पत्ता खोलेंगे, ऐसा अभी अंदाजा नहीं दिख रहा है।
दिल्ली: आम आदमी पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल नीतीश कुमार को पीएम कैंडिडेट मानेंगे, यह संभावना कम ही दिखती है। दिल्ली और पंजाब की सफलता के बाद आप गुजरात में जोर लगा रही है। राज्यों को साधकर केजरीवाल केंद्र की राजनीति में अपना दखल बढ़ाना चाहते हैं।
कर्नाटक: कर्नाटक में जेडीएस ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई, लेकिन, गठबंधन अधिक नहीं चल पाया। एचडी कुमारस्वामी सरकार चली गई। जेडीएस के शीर्ष नेता एचडी देवेगौड़ा देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। पार्टी चुनाव से पहले अपने पत्ते खोलने से बचती दिख रही है। इन तमाम नामों के बीच तेजस्वी को सत्ता सौंप केंद्र की राजनीति में जाने का नीतीश कुमार का सपना, या फिर राजद का सपना पूरा कैसे होगा? सवाल अब भी बरकरार है।