माता-पिता का पेशा जानने के बाद मैं शर्मिंदगी से मर जाना चाहता था

हमारा भारत विविधताओं का देश है। यहाँ अलग-अलग तरह के लोग अलग-अलग भोजन पसंद करते हैं, यहाँ बहुत सारी परम्पराओं को मानने वाले हैं और आजीविका के लिए विभिन्न पेशे को अपनाते हैं। इनमें से एक है मैला ढोने का काम। लोग मानते हैं कि जो लोग इस काम को करते हैं वह उनकी ड्यूटी है और इसलिए उन्हें हीन समझा जाता है और उनके साथ बुरे बर्ताव को जायज़ भी समझा जाता है।

हमारी आज की कहानी के नायक हैं बेजवाड़ा विल्सन जिन्होंने इस अमानवीय व्यवहार के खिलाफ लड़ाई लड़ी। 2016 में उन्हें मैला ढोने की प्रथा के उन्मूलन के खिलाफ संघर्ष करने और उन्हें न्याय दिलाने के लिए प्रतिष्ठित रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से नवाज़ा गया।

विल्सन का जन्म 1966 में कर्नाटक के कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स में एक ईसाई दलित परिवार में हुआ था। उनके पिता वहां की टाउनशिप में एक सफाई कर्मचारी थे जो शुष्क शौचालय से लोगों का मैला उठाने का काम करते थे। यह पुराने ज़माने का टॉयलेट था जिसमें एक छोटा सा गड्ढा होता था, जहाँ पानी नहीं होता था और न ही फ्लश सिस्टम होता था। थोड़े-थोड़े समय में उसकी सफाई की जरुरत होती थी। मैला ढोने वाला समुदाय मानव मल एक झाड़ू से उठाता और एक एल्युमीनियम के बास्केट में रखता था।

विल्सन के पिता ने दूसरा काम ढूंढने की भरपूर कोशिश की परन्तु कोई भी एक नीच और अछूत को नौकरी नहीं देता था। यूँ तो उनका जन्म उसी मैला ढोने वाले परिवार में हुआ था परन्तु उन्हें कई सालों तक अपने माता-पिता के रोजगार के बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं थी। एक दिन विल्सन वहां से गुजरे जहाँ कुछ लोग शुष्क शौचालय साफ कर रहे थे। यह देखकर उन्हें घृणा सी हो गई।

जब यह सब उन्होंने अपने माता-पिता को बताया तब उन्होंने जाहिर किया कि हम भी यही काम करते हैं। पिता की बातें सुनकर विल्सन को लगा कि वह पानी की टंकी से कूदकर अपनी जान दे दे। उन्होंने अपने पिता को यह काम छोड़ने के लिए समझाया। उनके पिता ने कहा अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो। यह साधारण सी बात है और यह हमेशा से अस्तित्व में है।

पिता की तरह विल्सन का बड़ा भाई भी भारतीय रेलवे में चार साल तक सफाई कर्मचारी रहे थे और उसके बाद दस सालों तक कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स के टाउनशिप में भी यही काम कर रहे थे। विल्सन पढ़ाई के लिए एक अनुसूचित जाति के बच्चों के हॉस्टल में रहते थे। वहां दूसरे बच्चे उन्हें हमेशा परेशान करते थे और उन्हें ‘थोटी’ नाम से चिढ़ाते थे जिसका मतलब होता है मैला ढोने वाला।

उस वक़्त विल्सन की उम्र 18 वर्ष रही होगी जब उन्हें अपने पिता के रोजगार के बारे में पता चला। यह सब जानकर वे शर्मिंदा महसूस कर रहे थे और अपने आप को मारने के बारे में सोच रहे थे। कुछ घंटे रोने और अपने विचारों के साथ रस्सा-कशी के बाद उन्होंने यह निश्चय किया कि वे इस सामाजिक अभिशाप के खिलाफ लड़ाई लड़ेंगे।

भारत में मैला ढोने को 1993 में ही अवैध माना गया था परन्तु कुछ गरीब राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार में यह अभ्यास चला आ रहा था। विल्सन जब चौथी कक्षा में थे वे मैला ढोने वालों के बच्चों के साथ ही पढ़ते थे। उस स्कूल में पढ़ने वाला हर बच्चा मैला ढोने वालों के परिवार से था।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद विल्सन ने अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए नौकरी की तलाश करना शुरू कर दिया। जब वे पहली बार नौकरी मांगने गए तब उन्हें एक मेहतर की नौकरी के लिए पेशकश की गई क्योंकि उनका सरनेम और समुदाय सफाई कर्मचारी से ताल्लुक रखता था। अपने सपनों और अपनी माँ की उम्मीदों के बिखर जाने से वे काफी निराश हो गए। विल्सन ने नौकरी ठुकरा दी और घर लौट आये। उन्होंने इस प्रथा के ख़िलाफ़ धर्मयुद्ध छेड़ने का निश्चय किया। वे हर मैला ढोने वाले के घर जा-जाकर उनसे यह नौकरी छोड़ने को समझाने की मुहिम शुरू कर दी।

शुरुआत में उन्होंने मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री जी को सर्वेक्षण की जानकारी के साथ फोटोग्राफ भी लगाकर खत लिखा। इसके कारण संसद में कोलाहल मच गया। शुष्क शौचालयों को समाप्त कर दिया गया और मैला ढोने वालों का पुनर्वास किया गया।

अपनी पहली सफलता के बाद विल्सन ने दूसरे राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में भी यह अभियान चलाया। भारतीय रेलवे के सफाई कर्मचारियों के लिए भी उन्होंने आवाज़ उठाई जिसमें सफाई कर्मचारी रेलवे ट्रैक पर से मानव मल उठाने को मजबूर थे। उनके आवाज़ उठाने से बहुत बदलाव हुआ। अन्तरराष्ट्रीय मीडिया ने भी इनका साथ दिया और इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ जन-मानस में रोष पैदा करने में सफलता प्राप्त हुई। विल्सन का कार्य आज के युग में गाँधी की याद दिलाता है। 

सिर पर मैला ढोने वालों को इस दलदल से बाहर निकालने के लिए वर्षों तक संघर्ष करने वाले इस सामाजिक कार्यकर्ता की सोच को सलाम है।