मेरे रास्ते में मौत आई तो उसे भी मार दूंगा,’ कारगिल में खालुबार टॉप पर तिरंगा फहराने वाला हीरो

अगर कोई आदमी कहता है कि वह मरने से नहीं डरता है, तो वह झूठ बोल रहा है. या फिर वह गोरखा है”…

फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के इन शब्दों को कारगिल युद्ध के दौरान शहीद कैप्टन मनोज कुमार पांडे (Manoj Kumar Pandey) ने चरित्रार्थ किया. दुश्मन की गोलियों से बुरी तरह जख्मी होने के बावजूद जंग के मैदान में उनकी अंगुलियां बंदूक से नहीं हटी. उन्होंने अकेले ही दुश्मन के तीन बंकर ध्वस्त किए.

24 साल की छोटी सी उम्र में अपने देश पर न्यौछावर होने वाले कैप्टन मनोज ने पहले ही कहा था कि ‘अगर मेरे खून को साबित करने से पहले मेरी मौत हो जाती है, तो मैं वादा करता हूं, मैं मौत को मारूंगा…

उन्होंने अपने इस कहे को करके दिखाया. कारगिल में ‘खालुबार टॉप’ को जीतने के लिए उनका जोश, जज्बा और जूनून विरोधी के हर एक हथियार को बौना करने में कामयाब रहा. परिणाम स्वरूप भारत के इस विरले सपूत को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था.

यूपी के सीतापुर जिले में पैदा हुए थे मनोज कुमार पांडेय  

 

जहां कड़ी कड़ी ट्रेनिंग के बाद उन्हें 11 गोरखा रायफल्स रेजिमेंट की पहली वाहनी में तैनाती मिली, जोकि उस वक्त जम्मू कश्मीर में अपनी सेवाएं दे रही थी. अपनी तैनाती के पहले दिन से ही मनोज ने हमले की योजना बनाना, हमला करना और घात लगा कर दुश्मन को मात देने जैसी सभी कलाओं सीखना शुरू कर दिया. जल्द ही एक दिन उन्हें अपने सीनियर के साथ एक सर्च ऑपरेशन में जाने का मौका मिला. 

यह पहला मौका था, जब उनका दुश्मन से सीधा मुकाबला हुआ. वह इस परीक्षा में पास रहे. अपनी टीम के साथ उन्होंने घुसपैठ की कोशिश करने वाले आंतकियों को मार गिराया था. यह उनके लिए बड़ी उपलब्धि थी, मगर वह खुश नहीं थे. दरअसल, इस संघर्ष में उन्होंने अपने सीनियर अधिकारी को खो दिया था.

कारगिल की जंग से पहले सियाचिन में तैनात थे मनोज

 

मनोज का काम अभी खत्म नहीं हुआ था. उनके निशाने पर पाकिस्तान के बचे हुए बंकर थे. वह तेजी से चौथे बंकर को खत्म करने के लिए आगे बढ़े ही थे कि विरोधियों की गोलियों ने उन्हें लहूलुहान कर दिया. साथियों ने उन्हें कवर दिया और आगे न बढ़ने की सलाह दी. मगर मनोज नहीं माने. दरअसल, वो खुद खालुबार टॉप पर तिरंगा फहराना चाहते थे. यही कारण था कि वो विषम परिस्थितियों में भी आगे बढ़ते गए. 

आगे रेंगते हुए वह चौथे बंकर के पास पहुंचने में सफल रहे और खड़े होकर ग्रेनेड से उसे उड़ाने की कोशिश की. मगर पाकिस्तानियों ने उन्हें देख लिया और अपनी मशीन गन को उनकी तरफ घुमाकर अंधाधुंध गोलियां बरसा दीं. अपने सीनियर के शहीद होने के बाद भारतीय जवानों ने विरोधियों को दौड़ा-दौड़ा कर मारा और उनके सभी बंकरों को हमेशा के लिए शांत कर दिया.

अंतत: खालूबार पर भारतीय तिरंगा लहराया और इस अद्वितीय वीरता के लिए कैप्टन मनोज कुमार पांडे को मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया. 26 जनवरी, 2000 को तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने हज़ारों लोगों के सामने देश का सबसे बड़ा वीरता सम्मान परमवीर चक्र मनोज के पिता पिता गोपी चंद पांडे को सौंपा था.    मनोज के जज्बे को सलाम! 

देखते-देखते समय बीतता गया और मनोज अपनी यूनिट के साथ जम्मू-कश्मीर के अलग-अलग इलाकों में गए. कारगिल की जंग से पहले उनकी बटालियन सियाचिन में मौजूद थी. 3 महीने का उनका कार्यकाल पूरा हो चुका था. उन्हें बदली का इंतजार था. साथियों ने सामान तक बांध लिया था. तभी अचानक आदेश आया कि बटालियन को कारगिल में बटालिक की तरफ़ बढ़ना है. वहां से घुसपैठ की ख़बर थी. 

मनोज तो जैसे इस मौके के इंतजार में बैठे ही थे. उन्होंने आगे बढ़ कर नेतृत्व किया और करीब दो महीने तक चले ऑपरेशन में कुकरथाँग, जूबरटॉप जैसी कई चोटियों को विरोधियों के कब्ज़े से आजाद कराया. इसके बाद वो 3 जुलाई 1999 को खालुबार चोटी पर कब्ज़ा के इरादे से आगे बढे. वो कुछ दूर आगे निकले ही थे कि विरोधी को उनके आने की आहट हो गई. उसने पहाड़ियों में छिपकर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं. 

ऐसे में मनोज ने बड़ी चालाकी से रात होने का इंतजार किया. अंधेरा होते ही उन्होंने अपने साथियों के सात बात की और आपसी सहमति से दो अलग-अलग रास्तों से विरोधी की तरफ बढ़ने को कहा. उनकी रणनीति काम कर गई और विरोधी उनके जाल में फंस गए. परिणाम स्वरूप मनोज ने विरोधियों के बंकर उड़ाने शुरू कर दिए. विरोधी को कुछ समझ आता इससे पहले उन्होंने तीन बंकरों को अपना निशाना बना डाला था.

कारगिल के लड़ाई में पाकिस्तानी सेना के चार टैंक उड़ाए   

 

मनोज का काम अभी खत्म नहीं हुआ था. उनके निशाने पर पाकिस्तान के बचे हुए बंकर थे. वह तेजी से चौथे बंकर को खत्म करने के लिए आगे बढ़े ही थे कि विरोधियों की गोलियों ने उन्हें लहूलुहान कर दिया. साथियों ने उन्हें कवर दिया और आगे न बढ़ने की सलाह दी. मगर मनोज नहीं माने. दरअसल, वो खुद खालुबार टॉप पर तिरंगा फहराना चाहते थे. यही कारण था कि वो विषम परिस्थितियों में भी आगे बढ़ते गए. 

आगे रेंगते हुए वह चौथे बंकर के पास पहुंचने में सफल रहे और खड़े होकर ग्रेनेड से उसे उड़ाने की कोशिश की. मगर पाकिस्तानियों ने उन्हें देख लिया और अपनी मशीन गन को उनकी तरफ घुमाकर अंधाधुंध गोलियां बरसा दीं. अपने सीनियर के शहीद होने के बाद भारतीय जवानों ने विरोधियों को दौड़ा-दौड़ा कर मारा और उनके सभी बंकरों को हमेशा के लिए शांत कर दिया.

अंतत: खालूबार पर भारतीय तिरंगा लहराया और इस अद्वितीय वीरता के लिए कैप्टन मनोज कुमार पांडे को मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया. 26 जनवरी, 2000 को तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने हज़ारों लोगों के सामने देश का सबसे बड़ा वीरता सम्मान परमवीर चक्र मनोज के पिता पिता गोपी चंद पांडे को सौंपा था.    मनोज के जज्बे को सलाम!