सोहन लाल द्विवेदी बहुत पहले कह गये हैं. ‘कोशिश करने वालों की कभी हर नहीं होती.’ इंसान ने तो अपनी मेहनत और सूझबूझ से पहाड़ों को धराशायी कर दिया, अंतरिक्ष तक पहुंच बना ली. इंसान जो चाहे वो कर सकता है. बस उसे खुद पर विश्वास होना चाहिए. ठीक वैसे ही जैसे एक पान का ठेला लगाने वाले की नन्हीं सी बेटी को खुद पर था. बचपन में इतने पैसे नहीं थे कि इसकी पढ़ाई सही ढंग से पूरी हो सके.
आज यही बेटी अपनी खुद की कंपनी चलाती है. तो चलिए जानते हैं उस बेटी के बारे में जिनसे गरीबी से लड़ कर हासिल की सफलता:
पिता जेब से गरीब हो सकता है दिल से नहीं!
महाराष्ट्र का एक छोटा सा शहर है अकोला. इसी छोटे शहर में एक पिता रहता था, जो जेब से गरीब ज़रूर था मगर दिल से नहीं. पान का ठेला लगा कर अपना परिवार चलाने वाला ये पिता चाहता था कि इसके बच्चे खूब पढ़ें, जिससे बड़े होकर उन्हें उनकी तरह इस गरीबी में जीवन ना गुजारना पड़े. लेकिन, सब चाहने से हो जाता फिर दिक्कत ही क्या थी. काम छोटा सा और जरूरतें बड़ी थीं.
3 बच्चों और बीवी की ज़िम्मेदारी एक नौकरी से संभाल पाना मुश्किल हो रहा था, इसलिए उन्होंने पान का ठेला लगाने के अलावा बैंक में भी एक नौकरी ढूंढ ली. नौकरी क्या थी. लोगों के घर जाकर बैंक के पैसे लाना और बैंक में जमा करा देना, इसे रिकरिंग एजेंट बोलते हैं. हमार लेख इस पिता के ऊपर नहीं है, बल्कि ये इनकी छोटी बेटी के लिए लिखा जा रहा है. जिसका नाम है काजल राजवैद्य.
काजल चौथी कक्षा तक तो नगर परिषद स्कूल में पढ़ी, लेकिन इसके बाद कोई ऐसी व्यवस्था नहीं थी जहां काजल पढ़ सके. पैसे होते तो शायद किसी प्राईवेट स्कूल में वो पढ़ पाती. सपने लाख बड़े हों, लेकिन गरीबी के आगे तो इंसान नहीं टिक पाता. काजल पढ़ने में होशियार थी, लेकिन आगे कैसे पढ़े यही समस्या थी. पर कहते है न भगवान एक रास्ता बंद करता है, तो दूसरा खोल देता है.
काजल की पढ़ाई में मददगार बना मनुताई कन्या शाला नाम का स्कूल. 1911 में मनुताई बापट नामक एक महिला ने समाज से खिलाफ एक लड़ाई लड़ी थी. लड़ाई एक नए बदलाव के लिए थी. वह चाहती थीं कि महिलाओं को भी पढ़ने का मौका मिले, जिससे वो आगे बढ़ सकें.
बहुत विरोध हुआ उनका, लेकिन वो अपने संकल्प पर दृढ़ रहीं और महिलाओं की शिक्षा के लिए मनुताई कन्या शाला नाम से अकोला शहर में एक स्कूल खोला. 1911 में मनुताई ने जो स्कूल खोला था, वो शायद काजल के लिए ही खोला गया था. तभी तो जब काजल के पढ़ाई के सारे रास्ते बंद हो रहे थे तब खुला मनुताई कन्या शाला का रास्ता.
इस तरह जीवन की कठिनाइयों को पार किया
इस स्कूल तक पहुंचने के लिए भी नन्हीं सी काजल को कम मेहनत नहीं करनी पड़ती थी. ये स्कूल उसके घर से 4 किमी दूर था. इतने पैसे नहीं थे कि ऑटो या रिक्शा पर खर्च किए जा सकें इसीलिए काजल पैदल ही स्कूल तक का रास्ता तय करती थी. अच्छी बात यही रही कि काजल ने इन कठिनाइयों को आगे ना पढ़ने का बहाना नहीं बनाया.
इसी दौरान काजल को अपनी ज़िंदगी का वो रास्ता मिला जिस पर उन्हें आगे बढ़ना था. बचपन में काजल दूरदर्शन पर एक रोबोर्ट्स से जुड़ा कार्यक्रम देखा करती थी. जिसे देख कर उसकी दिलचस्पी रोबोर्ट्स में बढ़ने लगी और उसने फैसला कर लिया की वो बड़ी हो कर रॉबर्ट्स संबंधी पढ़ाई ही करेगी.
समय बीतता रहा मगर काजल के मन से वो रोबोर्ट्स वाली ज़िद ना गई. काजल जब पोलीटेक्नीक में दाख़िला लेने गई तो उसने विशेष तौर पर कहा कि उसे वो कोर्स बताया जाए जिसमें रोबोर्ट्स बनाना सिखाते हैं. इस तरह काजल ने चुना इलेक्ट्रॉनिक्स विषय. दो साल तो सही से बीत गये लेकिन, आखिरी साल में काजल के सामने एक बड़ी परेशानी आ खड़ी हुई. उसके पिता जिस बैंक में नौकरी कर रहे थे वो बैंक ही बंद हो गया. जैसे तैसे इस साल की फिस तो भर दी उन्होंने लेकिन वे काजल को आगे इंजीनियरिंग करवा पाएं ऐसी स्थिति नहीं थी उनकी.
काजल इस बात को समझ रही थी. उसने तय कर लिया कि वो आगे नहीं पड़ेगी और डिप्लोमा के बाद कहीं नौकरी कर के अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को मजबूत करेगी. लेकिन हम पहले ही बता चुके हैं कि काजल के पिता जेब से गरीब थे दिल से नहीं. उन्होंने काजल की पढ़ाई के लिए 3 लाख का लोन ले लिया और काजल को इंजीनियरिंग पूरी करने के लिए कहा.
काजल भी दिलो जान से अपने लक्ष्य को पूरा करने में जुट गई. उसके लिए ये केवल पढ़ाई नहीं बल्कि एक तरह से तपस्या थी. काजल कई दिनों तक ब्रेड खा कर अपना पेट भरती रही जिससे वो खाने में लगने वाला पैसा बचा सके जो उसकी पढ़ाई में काम आ जाए. उसे उम्मीद थी कि इंजीनियरिंग के बाद उसे किसी कंपनी में अच्छी नौकरी मिल जाएगी और फिर उसके घर में कोई समस्या नहीं रहेगी.
भ्रम टूटने के साथ ही मिली एक नई राह
काजल ने पूरी मेहनत की. अच्छे मार्क्स भी आते रहे. इस तरह उसके मन में इस बात का विश्वास बढ़ता रहा कि इंजीनियरिंग पूरी होते ही उसे अच्छी नौकरी मिल जाएगी. लेकिन जब कैम्पस सिलेक्शन का समय आया तो हकीक़त कुछ और ही निकली. लोन लेकर पढ़ाई करने और दिन रात मेहनत का ये परिणाम निकला कि उसे पांच हज़ार की जॉब ऑफ़र की गई. उस पर भी काम ऐसा जिसे 12वीं पास छात्र भी कर रहे थे.
जब काजल ने सिलेक्शन वालों से पूछा कि उसके पास तो इंजीनियरिंग की डिग्री है फिर उसे इतनी कम सैलरी और ऐसी जॉब क्यों दी जा रही है ? इस पर सिलेक्शन वालों का जवाब चौंकाने वाला था. उन्होंने काजल से कहा कि आपके पास डिग्री तो है लेकिन प्रेक्टिकल के मामले में आपको कोई अनुभव नहीं. उन्होंने इतना तक कह दिया कि बिना प्रेक्टिकल के उनकी डिग्री के कोई मायने नहीं.
यही वो क्षण था जब काजल को ये बात समझ आ गई कि सिर्फ वही नहीं बल्कि उसकी तरह लाखों बच्चे इस ग़लतफहमी का शिकार हैं कि सिर्फ डिग्री लेने से वह अपने सबजेक्ट को अच्छे से जान गये और आगे उन्हें इसी डिग्री के आधार पर नौकरी भी मिलेगी. काजल के पास मौका था कि वह 5000 वाली ये नौकरी कर ले.
किन्तु, वो ये भी जानती थी कि वह इतने कम पैसों से अपने पिता द्वारा उसकी पढ़ाई के लिए लिया गया लोन नहीं चुका पाएगी. इससे अच्छा था कि वह नौकरी का प्रस्ताव ठुकरा कर अपने प्रेक्टिकल ज्ञान को बढ़ाए. काजल ने ऐसा ही किया और नौकरी को मना कर के लग गई अपना प्रेक्टिकल ज्ञान बढ़ाने. इस तरह काजल का भ्रम तो टूटा मगर साथ ही उसे एक नया रास्ता भी मिल गया.
काजल के पास ना तो लैपटॉप था. ना ही कोई ऐसा मोबाइल जिस पर वो इंटरनेट से जानकारी ले पाती. लेकिन उसके पास जुनून था. इसी के सहारे वो बढ़ती रही. घर पर ही बच्चों को पढ़ा कर वो किसी तरह अपना खर्चा निकलती और इंटरनेट कैफे में जा कर रोबोटिक्स के बेसिक सम्बंधित नोट्स इकट्ठे करती.
इस तरह काजल ने महीनों की मेहनत के बाद एक सिलेबस तैयार कर लिया जिसे लेकर वो पुणे चली गई. वह यहां हर कॉलेज में घूम घूम अपने सिलेबस और बच्चों के लिए प्रेक्टिकल ज्ञान की महत्ता समझाने लगी. इस दौरान काजल ने ये बात देखी कि इंजीनियरिंग कर रहे बच्चों के 12वीं क्या 10वीं के बेसिक भी क्लियर नहीं हैं.
यहां काजल के हाथ निराशा ही लगी क्योंकि यहां किसी को प्रेक्टिकल सीखने में दिलचस्पी नहीं थी. हर किसी को बस बोर्ड्स एग्ज़ाम में अच्छे मार्क्स चाहिए थे जो प्रेक्टिकल से नहीं बल्कि किताबों को रट कर मिलने वाले थे. काजल में सबसे अच्छी बात ये थी कि वो हर समस्या के बाद उससे निकालने का एक नया रास्ता खोज थी.
यहां भी ऐसा ही हुआ उसने सोचा कि क्यों ना पांचवीं के बच्चों को रोबोटिक्स का बेसिक सिखाया जाए. अगर ऐसा हुआ तो आगे चल कर इन बच्चों को परेशानी नहीं उठनी होगी. यही सोच कर काजल ने रोबोटिक्स के बेसिक ज्ञान पर और अधिक काम करना शुरू किया. इसके साथ ही बच्चों के लिए खुद से ही एक रोबोटिक्स वर्कशॉप भी बनाई.
काजल ने 2015 में KITS नाम से अपनी कंपनी शुरू की
काजल अब हर स्कूल में जा कर अपने वर्कशॉप के बारे में बताने लगी. लेकिन ये सब इतना आसान नहीं था. हर जगह उससे नए नए सवाल होते और फिर लोग मना कर देते. मगर काजल को हर बात में कुछ अच्छा ही नज़र आता. उससे जितने भी सवाल होते वो उन सब पर काम करती और अपनी रिसर्च को और मजबूत बनाती.
दूसरी समस्या ये थी कि वो जिन स्कूलों में अपनी वर्कशॉप के बारे में बताने जाती वहां उससे उसकी कंपनी का नाम और उसके विजिटिंग कार्ड के बारे में पूछा जाता. यहीं से काजल को अपने सुनहरे भविष्य की राह मिली. काजल ने 2015 में KITS नाम से अपनी कंपनी शुरू की जिसकी फुलफॉर्म थी काजल इनोवेशन एंड टेक्निकल सोल्युशन.
इस कंपनी को सहारा मिला विजय भटाड़ जो कि पहले नासा में काम कर चुके थे और अर्जुन देवराकर जो रिसर्च और डेवलपमेंट में माहिर थे. विजय ने इलेक्ट्रानिक्स सर्विस की बागडोर संभाली तो वहीं अर्जुन ने नई मशीनें तैयार करने का ज़िम्मा ले लिया. इन सबके साथ काजल अपनी मेहनत करती रही और इसके साथ ही KITS कंपनी बढ़ती रही.
हालांकि इस कंपनी को खोलना काजल जैसी लड़की के लिए बहुत बड़ा रिस्क था. उसे मार्किट से काफ़ी पैसे उधार लेने पड़े. लेकिन उसका विश्वास हमेशा इस बात पर बना रहा कि उसका रास्ता सही है. आज काजल की कंपनी के पास अमेरिका जैसे देशों के क्लाइंट भी हैं. खास बात यह कि काजल की कंपनी भले ही बढ़ रही थी, वो अपने काम की वजह से यात्राओं में व्यस्त ज़रूर रहती थी.
मगर अकोला के अपने शुरुआती स्कूल से उसका नाता हमेशा जुड़ा रहा था. वो समय समय पर यहां की लड़कियों को रोबोटिक्स के बारे में पढ़ाया करती थीं. इसी दौरान काजल को एक रोबोटिक्स प्रतियोगिता के लिए एक बच्चे को तैयार करने का काम मिला. हालांकि, ये काजल के लिए एक चुनौती थी मगर उसने इस चुनौती को स्वीकार किया.
काजल ने मुंबई जा कर इस प्रतियोगिता के लिए दो टीमों को तैयार किया जिनमें से एक विजेता रही. इसके बाद तो काजल और उसकी कंपनी की डिमांड एकदम से बढ़ गई. काजल के पास मौका था कि वह मुंबई में रह कर अपनी कंपनी को जमाए और खूब पैसे बनाए. लेकिन उसकी जान तो मनुताई कन्याशाला की उन लड़कियों में बसी थी जिसके पास काजल को छोड़ कर और कोई सहारा नहीं था.
काजल ने सोच लिया था कि वो अपने स्कूल की बच्चियों को भी किसी ऐसी ही प्रतियोगिता के लिए तैयार करेंगी.
बच्चियों को तय कराया ज़मीन से आसमान तक का सफर
काजल ने अकोला में ही अपना ऑफिस खोल लिया और नियमित रूप से स्कूल जा कर बच्चियों को सिखाने लगी. इसी दौरान इनका हौसला बढ़ाने के लिए काजल ने सोचा कि क्यों ना एक कॉलेज में हो रही प्रतियोगिता में ये बच्चियाँ भी भाग लें जिससे इन्हें प्रतियोगिता का कुछ अनुभव हो सके. लेकिन काजल का सोचा हुआ नहीं हुआ. कॉलेज ने अंग्रेजी मीडियम बच्चों के बीच इन बच्चियों की एन्ट्री की अनुमती नहीं दी. ये बात काजल को पसंद नहीं आई. यहीं पर उन्होंने खुद से ये वादा किया कि वो इन बच्चियों को किसी आम प्रतियोगिता में नहीं बल्कि इंटरनेशनल प्रतियोगिता का हिस्सा बनाएंगी.
काजल द्वारा खुद से किए गये वादे को पूरा करने का मौका तब आया जब अमेरिका की एक जानीमानी कंपनी लेगो ने एक रोबोटिक्स प्रतियोगिता राखी. फर्स्ट लेगो लीग नामक ये प्रतियोगिता 18 जनवरी 2020 को होने वाली थी और काजल ने इन बच्चियों को सितम्बर 2019 से तैयार करना शुरू कर दिया था.
हर कोई इस बात पर हंस रहा था कि इतने कम समय में ये बच्चियाँ कैसे प्रतियोगिता के लिए तैयार हो पायेंगी. वैसे सच में ये विश्वास करने वाली बात नहीं थी. ऐसी बच्चियां जिनके माता पिता के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम कर पान भी बड़ी मुश्किल का काम था उनके लिए इस इंटरनेशनल प्रतियोगिता में जाने की कल्पना भी कोई नहीं करना चाहता था.
मगर काजल ठान चुकी थी कि वो इन बच्चियों को वहां तक लेकर ही नहीं जाएगी बल्कि उन्हें जीत भी हासिल करवाएंगी. काजल ने अपना सारा ध्यान इन बच्चियों पर लगा दिया. इनका खर्चा भी खुद काजल ने उठाया. प्रतियोगिता से मात्र एक महीने पहले काजल के पैर में ऐसी चोट आई कि वो दो महीने चल पाने में भी असमर्थ थीं
बावजूद इसके वो व्हीलचेयर पर बैठ कर इन बच्चियों को सिखती रहीं और इसी हालत में प्रतियोगिता तक ले कर गईं. काजल ने इन सबको केवल रोबोटिक्स के बारे में ही नहीं सिखाया था बल्कि इसके साथ ही इन्हें बुफे में खाना खाने का तरीका सिखाने के साथ ये भी बताया था कि वहां आए इंग्लिश मीडियम के बच्चे जो शहरों में पले बढ़े हैं, अंग्रेजी में बात करते हैं वे इन्हें देख कर कैसे रिएक्ट कर सकते हैं.
काजल नहीं चाहती थीं कि वहां जा कर कुछ भी ऐसा हो जिससे इन बच्चियों का ध्यान प्रतियोगिता से हटे. प्रतियोगिता का दिन आ गया. बच्चियाँ अलग अलग राउंड से गुजरीं और फिर अंत में आया परिणाम का समय. पहले नंबर पर आने वाली टीम अमेरिका जाने वाली थी, ऐसे ही दूसरे को जापान, तीसरी टीम को ग्रीस और बाकियों को सिंगापुर जाने का मौका मिलने वाला था.
काजल इन बच्चियों को यहां तक ला कर ही खुश थीं आगे फिर परिणाम चाहे जो हो. लेकिन जब परिणाम आया तो काजल की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. जिस उद्देश्य से कभी मनुताई बापट ने इस स्कूल को खोला था आज काजल ने उस उदेश्य को पूरा कर दिया था. मनुताई कन्याशाला की बच्चियाँ इस प्रतियोगिता में प्रथम आईं.
एग्रीकल्चर इनोवेशन अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है
काजल की कंपनी आज बच्चों को रोबोटिक्स, ऑटोमेशन, बॉयोमेडिकल इंस्ट्रुमेंट समेत विभिन्न सॉफ्टवेयर आधारित सर्विसेज की ट्रेनिंग देती है. इसके साथ ही इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की सर्विस भी मुहैया कराती है. इस काजल की कंपनी के पास समय यमन, सिंगापुर, अमेरिका तक कंपनी के क्लाइंट्स हैं. इसके साथ ही काजल ने कई राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पुरस्कार भी जीते हैं.
काजल को आईटीई के बेस्ट एंटरप्रेन्योर अवॉर्ड के साथ साथ यूएसए के टाइम्स रिसर्च अवार्ड और स्टार्टअप इंडिया के एग्रीकल्चर इनोवेशन अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है. बता दें कि जिन बच्चियों ने काजल के मार्गदर्शन में फर्स्ट लेगो लीग जीती थी उन्हें अमेरिका जाना था. इसके लिए हर बच्ची पर 2 लाख रुपये का खर्चा आने वाला था.
ये एक बड़ी समस्या थी, लेकिन काजल को विश्वास था कि उन्हें कहीं ना कहीं से मदद ज़रूर मिलेगी. लेकिन दुर्भाग्य से कोरोना महामारी के कारण अमेरिका में होने वाली प्रतियोगिता को रद्द कर दिया गया. मगर इससे इन बच्चियों का मनोबल नहीं टूटा. काजल आज भी इन्हें रोबोटिक्स के गुण सिखती हैं. इन्हें इनका रास्ता मिल चुका है. तो ये थी एक पानठेले वाले की बेटी की कहानी जिसने अपनी हिम्मत और मेहनत के दम पर नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया. काजल ने खुद अपने लिए ही नहीं बल्कि गरीब परिवार की इन बच्चियों के लिए भी सुनहरे भविष्य के रास्ते खोज दिए.