रूस और यूक्रेन के बीच बीते 13 दिनों से युद्ध जारी है. इसमें सैकड़ों लोगों की मौत हो चुकी है.
इस युद्ध की वजह से एक व्यापक मानवीय त्रासदी ने जन्म लिया है. संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी संस्था (यूएनएचसीआर) के मुताबिक़, सिर्फ़ 10 दिनों के अंदर ही 15 लाख लोग यूक्रेन छोड़ने पर मजबूर हुए हैं.
इसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अब तक का सबसे तेज़ी से बढ़ता हुआ शरणार्थी संकट बताया जा रहा है. इनमें से सबसे ज़्यादा शरणार्थी पोलैंड पहुँचे हैं.
पोलैंड के सीमा सुरक्षा जवानों के मुताबिक़, 24 फ़रवरी से लेकर अब तक यहाँ 9 लाख 22 हज़ार 400 शरणार्थी पहुँचे हैं.
इन लाखों शरणार्थियों में हज़ारों भारतीय छात्र भी शामिल हैं. भारत सरकार यूक्रेन सीमा के साथ-साथ उसके सीमावर्ती क्षेत्रों से भारतीय छात्रों को निकालने की कोशिश कर रही है. रूस ने फिर युद्धविराम की घोषणा की है.
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रूस यूक्रेन संकट: बम धमाकों के बीच सूमी में कैसे बीते वो 13 दिन.. भारतीय छात्रों की आपबीती..
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यूक्रेन पर रूसी हमले के बीच फंसे भारतीय छात्रों की आपबीती
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लेकिन अब तक यूक्रेन के अलग-अलग शहरों से सीमा तक का सफ़र तय करने वाले छात्रों के लिए यह सफ़र बेहद ख़तरनाक और अलहदा अनुभव रहा है.
बीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य और नेहा शर्मा ने यूक्रेन-पोलैंड बॉर्डर के पास बने सबसे बड़े राहत शिविर में एक रात और दिन बिताया. वहां स्टूडेन्ट्स, वॉलन्टीयर्स और सरकार के अधिकारियों से समझा कि ये रेस्क्यू मिशन कैसे चल रहा है.
सदमा, डर, उम्मीद और ख़ुशी के कई पलों में बंधी ये विशेष रिपोर्ट.
रात तीन बजे कैसे थे हालात
इस छात्र की हालत भी कुछ ऐसी ही थी. राहत शिविर के वॉलन्टीयर्स इनसे बात करने की कोशिश कर रहे थे.
बीएपीएस से जुड़े वॉलिंटियर अमित पटेल बताते हैं, “उनका पूरा शरीर हिल रहा था और दो मिनट के लिए हमें ख़ुद आइडिया नहीं था कि हम क्या करें. पानी दिया, वह इस स्थिति में नहीं थे कि वह पानी पी सकें. वह सच में कांप रहे थे. हम काफ़ी डरे हुए थे. मैं और विराज़ मेडिकल टीम को बुलाने गए. उन्होंने कुछ टेस्ट किए. कम्यूनिकेशन ही नहीं हो रहा था तो पहला प्रयास ये था कि किसी तरह संवाद स्थापित हो. पेन हाथ में पकड़ाई, हाई फाइव किया, तब उन्होंने प्रतिक्रिया देना शुरू किया. जब उनको थोड़ा विश्वास आया तब उन्होंने बताया कि उन्हें सदमा लगा है.”
अमित और उनके साथियों की ओर से किए गए काफ़ी प्रयास के बाद ये छात्र भारत में अपने घर का पता और फ़ोन नंबर लिखने की हालत में पहुंचे.
इसके बाद इनकी बात इनके भाई से कराई जाती है. इसके साथ ही इस छात्र को सदमे के साथ लंबी लड़ाई में छोटी ही सही लेकिन एक जीत मिली.
अमित कहते हैं, “हम लोग जब यहाँ से जाएंगे तो संतुष्टि मिलेगी… ये कल्पना से परे था कि क्या हो गया ये और कैसे”
सुबह के पाँच बजे कैसे थे हालात
सुबह होने को है और रात भर भारतीय छात्रों का आना जारी रहा है. वॉलिंटियर किसी न किसी तरह छात्रों की मदद करने की कोशिश कर रहे हैं.
पोलैंड के जेशुफ शहर में स्थित होटल के कॉन्फ्रेंस हॉल को रातोरात राहत शिविर में तब्दील कर दिया गया है. यहाँ ठंड में सोने के लिए गर्म कमरा है, ताज़ा खाना और साफ़ शौचालय उपलब्ध है.
जंग ख़तरों से भाग रहे हज़ारों छात्रों के लिए ये एक महफूज़ जगह जैसी है.
सुबह के दस बजे कैसे हैं हालात?
इस राहत शिविर में पौ फटते ही काम की गति काफ़ी बढ़ गई है. राहत शिविर में तब्दील हुए इस होटल की लंबी टेबल पर कई लोग लैपटॉप लेकर बैठे हुए हैं.
इस राहत शिविर को चलाने के लिए यूरोप के 11 देशों से वॉलन्टीयर आए हैं. यहाँ रहने का इंतज़ाम भारत सरकार की ओर से और खाने का ख़र्च ग़ैर-सरकारी संगठन उठा रहे हैं.
यहाँ घूमते हुए ऐसे तमाम चेहरे दिखे जिनके चेहरों पर घर जाने की उम्मीद में मुस्कराहट नज़र आई. लेकिन इन मुस्कुराते चेहरों के पीछे खौफ़नाक कहानियां छिपी हैं.
यहां पर मौजूद छात्रों से बात करते हुए एक शिकायत से बार-बार हमारा सामना हुआ.
राहत शिविर में मौजूद छात्रा अश्विनी कहती हैं, “हम सब बच्चे ख़ुद आए हैं. किसी ने हमारी मदद नहीं की. उन्होंने ये स्पष्ट रूप से बताया था जब हमने लिविव में पूछा था कि हम कैसे आएं, क्या होगा बॉर्डर पर. तो उन्होंने बोला कि मैं पता भेज रहा हूँ, इस पर आओ, बॉर्डर पार करो. बॉर्डर पर कोई हुआ तो ठीक है, वर्ना आपको ख़ुद आना है. बस पता दिया था. दूतावास यहाँ है. यहाँ हमें फ़्लाइट दी, यहाँ हमें सोने-रहने का इंतज़ाम किया, यहाँ सब किया. बॉर्डर तक कुछ भी नहीं, बॉर्डर तक दूतावास कहीं नहीं था और बॉर्डर तक ही तो ज़रूरत थी.”
बंकर में छिपे रहे छात्रों की हालत
इस राहत शिविर में तमाम ऐसे छात्र भी पहुंचे हैं, जिन्होंने बमबारी से बचने के लिए बंकरों में शरण ली थी. केरल के ये स्टूडेन्ट्स ऐसे ही छात्रों में शामिल थे जो खारकीएव में हो रही बमबारी से बचने के लिए बंकर में छिपे थे.
खारकीएव के बंकर में छिपे ऐसे ही एक छात्र गोपी कृष्णनन बताते हैं, “हम पूरे सात दिन तक बंकर में थे. बहुत साल पहले बने ये बंकर धूल से भरे थे, हीटिंग का कोई ज़रिया नहीं था. बाहर बर्फ़ गिर रही थी और तापमान माइनस दो था.”
ये छात्र बमबारी रुकने पर अपने बंकरों से बाहर आए लेकिन इसके बाद इनके लिए शहर से निकलना एक नई चुनौती थी.
खारकीएव से निकलने वाले गोपी कृष्णनन बताते हैं कि “हमारे सामने से पाँच ट्रेनें गुज़र गईं पर हम अंदर नहीं घुस सके. यूक्रेन वालों ने हमें अंदर नहीं घुसने दिया.”
यहीं मौजूद शाहीन शरीफ़ बताते हैं, “रेलवे गार्ड हमें मार रहे थे. अगर कोई ट्रेन में घुसता तो वो उसे बाहर निकालकर मारते. जब हम रेलवे स्टेशन में थे तो बाहर मिसाइल चल रहीं थीं. ये बहुत डरावना था.”
गोपी कृष्णनन कहते हैं, “हमें पीटीएसडी हो गया है. शोर सुनते हैं तो दिल की धड़कन बढ़ जाती है और सांस फूलने लगती है.”
शरीफ़ कहते हैं, “बूम जैसी आवाज़ सुनकर हम सहम जाते हैं.”
19 साल के बाला कुमार ने की लंबी यात्रा
यूक्रेन के लिविव शहर से निकलने वाले 19 साल के वेटनरी साइंस के स्टूडेन्ट बाला कुमार एक बार लिविव से निकले तो चलते ही रहे.
उन्होंने पैदल, तीन अलग-अलग बॉर्डर से बाहर निकलने की कोशिश की. इसके बाद आख़िरकार वो यूक्रेनियन अधिकारियों की मदद से निकल पाए.
वह कहते हैं, “कुछ मीडिया और सोशल मीडिया उन्हें नस्लवादी बता रहे हैं. पर ये पूरा सच नहीं है. यूक्रेन के लोग अपना घर, अपना देश छोड़ कर जान बचाने की कोशिश कर रहे हैं. पर हमारे पास उम्मीद है, हमारा देश भारत है, सुरक्षित घर है, जहाँ लोग हमारा इंतज़ार कर रहे हैं. हमें उनके और अपने बीच के अंतर को समझना चाहिए.”
भारत का दावा है कि वो यूक्रेन और रूस दोनों सरकारों से बात करता रहा है, जिससे खुद ग्राउंड पर ना पहुँच पाए तो भी छात्रों को यूक्रेन और रूसी अधिकारियों की मदद मिल पाए.
शाम के चार बजे अचानक से यहाँ की आबो हवा बदल गई है. एक्साइटमेंट है, एनर्जी है, स्टूडेंट्स को उनके नाम से बुलाया जा रहे हैं ताकि वो अपना सामान पैक कर नीचे जाएँ जहाँ बसें उनका इंतज़ार कर रही हैं.
लाइन में खड़े ये स्टूडेन्ट्स आगे बढ़ने के लिए बेताब हैं. लेकिन पीछे बहुत कुछ छूट भी गया है. किसी की किताबें, किसी की कार और सभी की पढ़ाई. करियर के तय रास्ते को अब किस दिशा में मोड़ें?
वापस आना मुमकिन होगा? ऐसे और भी कई सवाल होंगे. पर आज, अभी, उनका वक़्त नहीं है. आज बस घर जाना है.
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