बाजार में एक से एक फ्रग्नेंस वाली साबुन और बॉडी वॉश आ चुके हैं, पर जो जगह मैसूर सैंडल सोप (Mysore Sandal Soap) की है, वो और किसी की नहीं. देश की महंगी और सबसे पुरानी साबुन में से एक मैसूर सैंडल असल में आज भी शुद्ध चंदन की लकड़ियों से निकले तेल से तैयार किया जाता है. आज भले ही आपके बाथरूम तरह-तरह के फ्रग्नेंस सोप से महक रहे हों पर अधिकतर लोगों की त्वचा पर बचपन में यही सोप लगाया गया था.
इस सोप के यूज़ की दूसरी ख़ास वजह थी, इसके शाही होना! लोग आज भी यही मानते हैं कि मैसूर सैंडल सोप शाही लोगों की शाही पसंद है. वैसे इस सोप के पीछे की कहानी इसकी खु़शबू की तरह ही दिलचस्प है!
जब जमा हुआ चंदन का ढेर
इस सोप को बनाने का श्रेय मैसूर के शाही परिवार को जाता है. यहां के तत्कालीन शासक कृष्ण राजा वोडियार चतुर्थ और दीवान मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया ने मई 1916 में चंदन की लकड़ी से तेल निकालने वाली मशीनों का आयात किया और फिर एक कारखाना स्थापित किया. असल में यह ख्याल ऐसे आया कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान चंदन का व्यापार थम जाने की वजह से मैसूर से चंदन की लकड़ियों का विदेश जाना बंद हो गया.
व्यापार नीतियां तो प्रभावित हुईं ही, साथ ही व्यापार के कई मार्ग जंग के बाद सुरक्षित नहीं रह गए थे. ऐसे में मैसूर में लगातार चंदन की लकड़ियों का ढेर लग रहा था. चंदन के जो जंगल थे वो तो थे ही! उस समय मैसूर में पूरी दुनिया में सर्वाधिक चंदन का उत्पादन होता था. इसी दौरान राजा वोडियार को ख्याल आया कि चंदन की लकड़ियों से तेल निकालकर उसका उपयोग किया जा सकता है.
पहला ख्याल तेल के उपयोग का था पर इसकी खपत होगी या नहीं, यह कहना मुश्किल था. इसी बीच उनके ही महल के कर्मचारियों ने अपने महाराज के लिए चंदन तेल से नहाने का प्रबंध किया. यह सिलसिला शुरू हो गया. धीरे-धीरे तेल सोप में बदला गया. महाराज अब रोजाना चंदन के तेल से बने सोप से नहाने लगे. इसी दौरान उन्हें ख्याल आया कि जो सोप वे खुद अपने लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, वह जनता भी तो कर सकती है!
जो साबुन राजा इस्तेमाल कर सकता है, वो उसकी प्रजा क्यों नहीं?
उन्होंने अपना ख्याल दीवान मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के साथ साझा किया और फिर काम शुरू हुआ सैंडल सोप बनाने का. विश्वेश्वरैया ने ऐसे साबुन की परिकल्पना की जो मिलावटी ना हो और सस्ता भी रहे. उन्होंने बॉम्बे (आज की मुंबई) के तकनीकी विशेषज्ञों को आमंत्रित किया. इसके बाद भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) के परिसर में साबुन बनाने के प्रयोगों की व्यवस्था की कई.
कमाल की बात तो ये है कि आईआईएससी की स्थापना भी मैसूर के एक और दिग्गज दीवान के. शेषाद्री अय्यर की मेहनत के कारण हुई थी.
शुरू हुआ साबुन बनने का सिलसिला
साबुन बनाने की तकनीक के लिए औद्योगिक रसायनज्ञ सोसले गरलापुरी शास्त्री, जिन्हें ‘साबुन शास्त्री’ भी कहा जाता है, को याद किया गया. वे साबुन बनाने की तकनीक जानने इंग्लैंड पहुंचे. वहां से आकर उन्होंने महाराजा वोडियार चतुर्थ और दीवान से मुलाकात की और फिर बेंगलुरु में कारखाना स्थापित हुआ. 1916 में मैसूर सैंडल सोप आम जनता के बीच पहुंचा.
यह शाही साबुन जैसे ही बाजारों में आया, लोगों ने हाथों हाथ इसे खरीद लिया. साबुन में असली चंदन के तेल का इस्तेमाल होना और फिर इसके शाही घराने से ताल्लुक ने साबुन को और भी लोकप्रिय बना दिया. देखते ही देखते सोप का व्यापार कर्नाटक से निकलकर पूरे देश में फैल गया. साल 1944 में, शिवमोगा में एक और इकाई की स्थापना की गई. साबुन के साथ ही चंदन के तेल से इत्र भी बनाया जाने लगा.
उस समय साबुन आम तौर पर चौकोर या गोल होते थे पर सैंडल सोप को अंडाकार बनाया गया. साबुन शास्त्री ने सोप का प्रचार करने के लिए भी रिसर्च किया. उन्होंने देखा कि महिलाएं अपने आभूषण चोकोर डिब्बों में रखती हैं इसलिए उन्होंने साबुन के कवर को चौकोर बनाया. कंपनी के लोगों के लिए उन्होंने, शराबा (स्थानीय लोक कथाओं के अनुसार एक हाथी के सिर और शेर के शरीर से बना एक पौराणिक प्राणी) को चुना था, जो साहस और ज्ञान का प्रतीक था और शास्त्री चाहते थे कि यह राज्य की समृद्ध विरासत का प्रतीक हो. सोप के डिब्बे पर ‘श्रीगंधा तवरिनिंडा’ का संदेश मुद्रित किया गया, जिसका अर्थ है-चंदन के मातृ गृह से.
पूरे देश में छा गई चंदन की खुशबू
साबुन की लोकप्रियता अपनी जगह थी और मार्केटिंग अपनी जगह, क्योंकि उस दौर में कई और भी सोप मार्केट में उपलब्ध थे. ऐसे में सैंडल सोप के साइनबोर्ड पूरे देश में लगवाए गए. साबुनबॉक्स की तस्वीरें ट्राम टिकट से लेकर माचिस की डिब्बी तक दिखने लगी. एक बार तो कराची में साबुन का प्रचार करने के लिए ऊंट का जुलूस भी निकाला गया.
मैसूर सैंडल सोप को शाही घरानों ने भी हाथों हाथ लिया, क्योंकि इस सोप के साथ मैसूर के शाही परिवार का नाम शामिल था. 1980 में, मैसूर और शिवमोगा की तेल निकालने वाली इकाइयों को एक साथ मिलाकर, कर्नाटक साबुन और डिटर्जेंट लिमिटेड नाम के एक कंपनी में सम्मिलित कर लिया गया. इससे व्यापार को विस्तार मिला.
इसमें पैचौली, वीटिवर, नारंगी, जीरियम और पाम गुलाब जैसे अन्य प्राकृतिक तेलों का भी उपयोग किया जाता है. इसलिए अप्रवासी भारतीयों के बीच भी सबसे ज्यादा इसी साबुन की डिमांड है. मैसूर सैंडल सोप के भरोसे का ही परिणाम है कि कर्नाटक का उन्नतिशील फिल्म उद्योग भी खुद को ‘सैंडलवुड’ कहता है.
यह सोप देश में चंदन की खेती करने वाले किसानों के लिए बहुत खास है. केएसडीएल की ओर से किसानों के लिए ‘ग्रो मोर सैंडलवुड’ कार्यक्रम चलाया जा रहा है, जो चंदन के सस्ते पौधों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ-साथ खरीदारी की भी गारंटी प्रदान करता है. यह भारत के गौरव का खुशबूदार प्रतीक है