डेटा की जगह कोर्ट में बिहार सरकार ने दिखाई अखबार की कतरन, निकाय चुनाव फंसने की वजह तो जानिए

बिहार में नगर निकाय चुनाव फंस गया है। जिसके बाद सरकार कठघरे में हैं। चुनाव कराने के फैसले पर सवाल उठाए जा रहे हैं। कोर्ट में आरक्षण के नियम के बारे में जब सबूत मांगा गया तो अखबार का कतरन दिखाया गया। जबकि 12 साल पहले ही ये व्यवस्था कर दी गई थी कि बिना ट्रिपल टेस्ट के चुनाव में आरक्षण के नियम लागू नहीं होंगे।

nitish kumar bihar
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (फाइल)

पटना : हाईकोर्ट के निर्देश पर बिहार में नगर निकाय के चुनाव मात्र छह दिन पहले रद्द करने के साथ कई सवाल उठ खड़े हुए। आरोप सीधे-सीधे राज्य सरकार पर ये लगा कि आरक्षण के नियमों का पालन नहीं किया गया था। जिस सर्वेक्षण या प्रमाणिकता की बात हाईकोर्ट से उठी, उस संदर्भ में बिहार सरकार की तरफ से मजबूत आधार या यूं कह लें कि पुख्ता सबूत नहीं रखा जा सका। राज्य सरकार की ये असमर्थता ट्रिपल टेस्ट के दायरे में सामने आई।

ट्रिपल टेस्ट का ये मसला वर्ष 2010 में सबके सामने तब आया, जब कृष्णमूर्ति केस को चैलेंज किया गया। इस केस का आधार ही यही था कि बिना सर्वे कराए, केवल वोट बैंक के लिए चुनाव में आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया। लेकिन इस निर्देश के 12 वर्ष बाद भी कोर्ट के मानदंड के अनुसार आरक्षण हेतु गणना को पूर्ण नहीं कराया गया, मगर निकाय के चुनाव की घोषणा जरूर कर दी गई।

बिहार सरकार को क्या करना था ट्रिपल टेस्ट में?
निर्देश यही था कि आरक्षण निर्धारण के पूर्व एक कमीशन बना कर संबंधित जातियों का डेटा जमा करना था। साथ ही नगरपालिका की कुल जनसंख्या में पिछड़े कितने हैं और ये प्रतिशत क्या है? बस इसी का आकलन करना था। यहां ध्यान ये रखना था कि किसी भी हाल में ये अपर सीलिंग 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो। हालांकि सरकार ने अपना तर्क इस ट्रिपल टेस्ट के बरक्स रखते कहा कि राज्य सरकार ने ये बहुत पहले से कर लिया है। राज्य सरकार ने काका कालेकर की रिपोर्ट को सामने रखी। फिर मुंगरी लाल, बैकवर्ड कमिशन और ईबीसी कमीशन की दलील भी दी। मगर इस संबंध में जब डेटा मांगा गया तो बदले में किसी अखबार का कतरन दिखा दिया। इससे हाईकोर्ट नाराज हुआ और निकाय चुनाव पर रोक लगा दी।

‘संविधान और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की अनदेखी’
देश के प्रख्यात पत्रकार और राजनीतिक विशेषज्ञ अरुण पाण्डेय इस मामले में साफ कहते हैं कि ‘सरकार ने संविधान और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की अनदेखी की है। न तो कोर्ट और न ही संविधान, आरक्षण के विरुद्ध है, बल्कि उनका निर्देश ये है कि जिसे आप आरक्षण देने जा रहे हैं, उसकी प्रमाणिकता पंचायतवार तो देनी होगी न? ईबीसी के 20 प्रतिशत आरक्षण को किसी भी पंचायत पर फिट नहीं कर देंगे न? आपको इस पंचायत में ईबीसी के जनबल का आकलन तो करवाना होगा न?’ उन्होंने तो कहा कि ‘आज जो स्थिति आई है, उसमें भाजपा और जदयू दोनों ही दोषी है। ऐसा इसलिए कि नगर विकास विभाग तो भाजपा के पास रही है। ये दीगर कि ओवरऑल मुख्यमंत्री की जिम्मेवारी अधिक होती है। अतः इस संवेदनशील मामले में सतर्कता सरकार को बरतनी चाहिए थी। कमीशन या कमेटी बनाकर ईबीसी आरक्षण को लेकर पंचायतवार गणना करनी चाहिए थी।’

बिना गिनती के यूं हीं आरक्षण फिक्स किया गया?
राजनीति विशेषज्ञ डॉ संजय कुमार का मानना है कि ‘जिस वर्ग को आप आरक्षण दे रहे हैं, उसे आरक्षण देने की स्थितियों का मूल्यांकन कर लेना चाहिए था। सरकार हाईकोर्ट के निर्णय के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट जाएगी, ये उसका अधिकार है। मगर वहां भी तो इन प्रश्नों का जवाब देना होगा कि क्या आपने इस परिप्रेक्ष्य में गणना कराया है? तब इस सरकार के पास क्या जवाब होगा? इसलिए गलती सरकार के स्तर पर हुई है। बिना गणना के ईबीसी सीट किसी भी पंचायत के लिए निर्धारित कर देना उचित नहीं है। अब कहने को भाजपा को जदयू दोष दे रही है और जदयू को भाजपा। मगर इससे काम चलने वाला नहीं है। दोषारोपण से यहां ज्यादा जरूरत आत्ममंथन की है।’

चारा घोटाले की राह निकलेगा निकाय चुनाव का हल?
जाहिर है जब राज्य सरकार ने ये फैसला ले लिया है कि बिना आरक्षण के चुनाव नहीं कराना है तो फिर अब दो ही विकल्प हैं। एक तो राज्य सरकार को बैकवर्ड कमिशन या ईबीसी की कमीशन बनाकर उस रिपोर्ट को कोर्ट के सामने बतौर सबूत रखना होगा। जो वो डेटा उपलब्ध करा सके, जिससे पंचायत की पूरी जनसंख्या का जातीय परिप्रेक्ष्य में गणना को समझा जा सके। किसी अखबार की खबर के हवाले से प्रस्तुत आंकड़े कोर्ट के लिए सबूत नहीं बन सकते। दूसरा रास्ता ये है कि सरकार अपील में जाए और फैसला आने का इंतजार करे। ऐसे ही चारा घोटाले के मामले में सरकार अपील में गई और फिर कई वर्ष गुजर गए फैसला आने में।