अपनी नई वेब सीरीज ‘ट्रायल अंडर फायर’ को लेकर अभय देयोल इन दिनों काफी चर्चा में हैं। यह वेब सीरीज 25 साल पहले दिल्ली के उपहार सिनेमा घर में हुए इस भयानक अग्निकांड पर बेस्ड है जिस वारदात ने हर किसी के दिल को दहला दिया था। जानें अभय देओल ने क्यों कहा कि अब उनके लिए अच्छा समय है।
चुनिंदा और लीक से हटकर फिल्मों के लिए जाने जाने वाले अभिनेता अभय देयोल ने अपने अभिनय करियर में ‘सोचा न था’, ‘एक चालीस की लास्ट लोकल’, ‘देव डी’, ‘ओए लकी लकी ओए’, ‘वन बाय टू’, ‘मनोरमा सिक्स फीट अंडर’, ‘चक्रव्यूह’, ‘जिंदगी न मिलेगी दोबारा’ जैसी कई चर्चित फिल्मों में काम किया। हमेशा बेबाक और अपनी साफगोई के लिए चर्चा में रहने वाले अभय इन दिनों चर्चा में हैं अपनी नई वेब सीरीज ‘ट्रायल अंडर फायर’ से। यह सीरीज 25 साल पहले दिल्ली के उपहार सिनेमा घर में हुए भयानक अग्निकांड पर आधारित है। इसी नाम से किताब भी प्रकाशित हुई है। अभय से खास बातचीत।
आपका वेब सीरीज ‘ट्रायल बाय फायर’ आज से 25 साल पहले दिल्ली में घटे उपहार सिनेमा हॉल के अग्निकांड पर आधारित है। जब किसी सच्ची घटना पर वेब सीरीज या फिल्म बनती है, तो कलाकार की जिम्मेदारी कितनी बढ़ जाती है?
मुझे लगता है, जरूरी चीज ये होनी चाहिए कि आप किस लिए ये फिल्म बना रहे हैं और आपको क्या मिलेगा इसे बना कर। कहीं ऐसा तो नहीं कि आप दिखाना चाह रहे हो कि आप ऐसे सब्जेक्ट पर इतनी अच्छी कहानी बना रहे हैं या आप उन लोगों का फायदा उठा रहे हो ? जिससे मैं सहमत नहीं हूं। क्या आपकी खुद की फीलिंग है कि इस कहानी में एक इंस्पिरेशन है और इन्होंने जो किया है, वो सबको बताना चाहिए, इसकी जानकारी होनी चाहिए, लोगों तक पहुंचना चाहिए कि ये मुद्दा आज भी रिलेवेंट है और इस पर कहानी बननी चाहिए। जहां तक हमारी सीरीज की बात है, तो यही सोच कर हमारे जो डायरेक्टर है, उन्होंने ये कहानी लिखवाई और डायरेक्ट की। हमें दिखाने के लिए और हमारे अलावा दूसरे जो पेरेंट्स हैं उनको दिखाने के लिए कि उन्होंने कैसे मिलकर एक सिस्टम के अंदर जहां पर जस्टिस बहुत मुश्किल है, लगातार कोशिशें की। आज पच्चीस साल हो गए हैं और अभी भी वे लगे हुए हैं। जरूरी है कि ये कहानी लोगों तक पहुंचे। जहां तक कलाकार की जिम्मेदारी की बात है, तो वो तो यकीनन बढ़ जाती है।
निर्भया केस रहा हो या फिर उपहार सिनेमा अग्निकांड, न्याय मिलने में सालों लग जाते हैं। हमारी न्याय प्रणाली के इस पहलू के बारे में क्या कहना चाहेंगे?
दरअसल ये सिस्टम की ही दिक्कत है और ये बहुत दशकों से चला आ रहा है। मुझे लगता है अब वक्त आ गया है और लोग मिल कर इंसाफ मांगने लगे हैं। पहले अक्सर ये होता था कि लोग लीडर्स को ढूंढते थे, मगर मुझे लगता है, आज के जमाने में ये समय आ गया है कि जब तक लोग ना चाहें, तब तक कोई भी लीडर आपको कहीं नहीं ले जा सकता है। गवर्नमेंट आती कहां से है ? उनको भी तो लोग ही बनाते हैं ना? लोगों को अब अपनी जिम्मेदारियां लेनी पड़ेगी और लोग ले रहे हैं। मुद्दों के खिलाफ अपनी आवाज उठा रहे हैं। मुझे लगता है, इसमें हर किसी को जिम्मेदारी उठानी होगी। मैं पॉलिटिशियन तो हूं नहीं और ना ही एक्टिविस्ट हूं, तो मेरी कोशिश यही है कि फिल्मों में ही मुझे वो मौका मिल जाए, जहां मैं मुद्दों को उठाकर लोगों का ध्यान उस ओर आकर्षित कर सकूं। आप जर्नलिस्ट हैं आपके हाथ में और भी दूसरी तरह की ताकत है। आप उस ताकत का इस्तेमाल करें और हर कोई अपनी जिम्मेदारी खुद ले, तभी बात बनेगी।
आपने कभी अपने कॉलेज या आस-पास के इलाके में किसी मुद्दे के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की है ?
मैंने अपनी इंडस्ट्री के अंदर की है, फिर चाहे वो डायरेक्टर के राइट्स हों, प्रोड्यूसर के राइट्स हों, या म्यूजिशियन के राइट्स हों या फिर फेयरनेस क्रीम की विज्ञापन की बात हो। जो कहानियां मैंने बनाई हैं, वो करप्शन पर बनाई हैं, नक्सलवाद पर बनाई हैं, तो वही मेरी एक्टिविज्म है, क्योंकि जैसा मैंने कहा कि मैं एक्टिविस्ट तो हूं, मगर मैं हमेशा सोचता हूं कि मैं अपने घर के अंदर ही सफाई कर लूं, क्योंकि वहीं पर मेरी पावर है उसके बाद मेरी कोई पावर नहीं है।
ऐसी कौन-सी भूमिका रही है, जिसमें आप एक एक्टर के तौर पर सबसे ज्यादा खर्च हुए हों?
वो अक्सर होता है कि आप एक एक्टर के रूप में खर्च होते जाते हो, लेकिन अगर आपकी टीम अच्छी हो, डायरेक्टर अच्छा हो, तो वो मैनेज हो जाता है, क्योंकि आप देखते हैं कि आपकी टीम के सहयोग के बलबूते पर आप सही जगह खर्च हो रहे हैं। अब जैसे इस वेब सीरीज का रोल बहुत हैवी था। भावनात्मक रूप से निचोड़ देने वाला था, मगर टीम के सपोर्ट के कारण ये उतना भारी साबित नहीं हुआ। जब यूनिट और डायरेक्टर में कोई इज्जत न हो आपके प्रति और फायदा उठा रहे हो तो दिक्कत होती है और फिर उस रोल में आप खर्च हो जाते हैं और ऐसे अनुभव मुझे हुए हैं।
कभी ऐसा हुआ है कि किरदार और रियलिटी के बीच की रेखा ब्लर हो गई हो?
करियर की शुरुआत में अगर आपके साथ कुछ ड्रैमेटिक हो, तो आप उससे निकल नहीं पाते। मैं देव डी में काफी खर्च हो गया था। मुझे लगा कि उस फिल्म में मेरा एक्सप्लोइटेशन हुआ। मैं ब्लर नहीं कर पा रहा था और दूसरा माहौल भी अच्छा नहीं था, तो वहां जाना मेरे लिए थोड़ा सा ट्रॉमा जैसे था, क्योंकि मैं खुद परेशान था और मेरा फायदा उठाया जा रहा था तो फिर तब जा कर मुझे लगा कि अरे ये मैं क्या कर रहा हूं, क्योंकि ऐसा अनुभव और कहीं नहीं रहा। तब मैंने ये नोटिस नहीं किया की मै खुद अपना काम घर ले जा रहा हूं बल्कि मेरे दोस्त ने मुझे बताया और वो भी कुछ 6-8 महीने बाद। उसने कहा कि तू अभी तक उस मूड में है, तो मैने कहा नहीं यार मैं ऐसा आदमी नहीं हूं। असल मैं खुद डाइजेस्ट नहीं कर पा रहा था कि मैं इस किरदार से इतना इफेक्ट हो गया था। इसलिए जब ये शो मेरे पास आया तो मैं पहले एक प्रेक्टिस कर चुका था कि भले मैं लाइन के उस पार होऊं, मगर काम को काम की तरह लेना होगा है और फिर उससे निकल कर नॉर्मल अभय बनना होगा। इस रोल को करते हुए मुझे गर्व हो रहा था कि मैं रोल के अंदर जज्बाती तौर पर प्रवेश कर निकल सकता हूं। इसमें मैं रियल लाइफ शिकार कृष्णमूर्ति की भूमिका में हूं, जिसने इस भयानक आग में उनके दो बच्चे जल मरे थे। लेकिन असल जिंदगी की यह कहानी इतनी ट्रेजिक है कि मैं इतना जुड़ गया, लेकिन निकलना थोड़ा सा मुश्किल था। मगर फिर डायरेक्टर और को -ऐक्टर्स का सपोर्ट था और हम सब उस जोन में थे, तो मैंने देखा किसभी उस दुख से डील कर रहे हैं।
आप अपनी राय हमेशा बिंदास होकर रखते हैं। आपको अपनी बेबाकी का कितना खामियाजा भुगतना पड़ा है?
आप जब बेबाक होकर बात करते हैं, तो गलतफहमी बहुत आसानी से हो जाती है। हालांकि मैं काफी स्पष्ट रहता हूं, अपनी बात को लेकर, मगर कई बार लोगों को लगता है कि कि मुझमें एरोगेंस है, ईगो है। एक तरह से देखा जाए तो अगर कोई पूरे कॉन्फिडेंस के साथ काम करे न तो जिन लोगों में कॉन्फिडेंस नहीं है वो कुछ भी सोच सकते हैं आपके बारे में और अपने मन से कोई भी राय बना सकते हैं। कई बार मैंने अपने आपको देख कर सोचा यार मैं तो इतना फ्रेंडली हूं, मैं तो लोगों के साथ उन्हीं के अनुसार बर्ताव करता हूं। तब मुझे लगा कि मैं अपनी ही दुनिया में रहता हूं, तो लोगो को शायद लगता होगा कि मुझे कोई परवाह नहीं है दूसरों की।लेकिन सच यह है कि मैं बहुत ही सेंसिटिव हूं और अपने आप को प्रोटेक्ट करने के लिए अपने आप में रहता हूं। मुझे लगता है लोग मेरे बारे में जो भी सोचते हैं ठीक है अच्छा ही सोचते हैं। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि मैं शायद वो नहीं देख पा रहा जो इन्हें दिख रहा है।
आपको फिल्मों और प्रोजेक्ट्स के मामले में चूजी और सिलेक्टिव टैग दिया जाता है?
मैं इस टैग को स्वीकार कर चुका हूं। मैं अब जिंदगी के ऐसे मोड़ पर हूं कि जो भी जजमेंट है सब मान लेता हूं। मैं अपने सारे ऐक्शन की जिम्मेदारी लेता हूं फिर वो चाहे बुरा हो या अच्छा, सब कुछ मेरे करने से हुआ है। ये सच है कि बिना आग के धुआं नहीं होता है। तो मैं किरदार को लेकर चूजी रहा हूं और मैंने बदलाव के लिए चिल्ला-चिल्ला कर मांग की है, तो ये भी सही बात है। मैंने नए एक्टर-डायरेक्टर के नए आइडियाज के साथ काम किया है तो ये टैग आसान नहीं रहा है। आज जमाना ऐसा है कि ओटीटी प्लैटफॉर्म आ गए हैं, तो लॉकडाउन के बाद लोगों का एक्सपोजर भी बढ़ गया है क्योंकि दर्शक अलग अलग तरह का सिनेमा देख चुके हैं। अब लोग अलग तरह के किरदार देखना चाह रहे हैं, तो मेरे जैसे एक्टर के लिए ये अच्छा समय है। अब मुझ जैसे कलाकारों को कोई ऑफबीट नहीं कहेगा, क्योंकि आज हमारे पास काफी ऑप्शन हैं।
बॉयकॉट ट्रेंड को कैसे देखते हैं?
तकनीक की वजह से जानकारी जितनी जल्दी फैलती है तो अफवाह भी उतनी ही जल्दी प्रसारित होती है, तो अगर आप किसी चीज को बैन करना चाहते हैं या बॉयकॉट करना चाहते हैं तो अपना रिसर्च करके वो डिसिजन लें। ना कि भेड़चाल में चलें। किसी के कहने पर बॉयकॉट मत कीजिए, क्योंकि किसी का करियर और जिंदगी दांव पर है। ये जरूर सोचिए यदि आपका बॉयकॉट या बैन गलत है, तो आप किसी इनोसेंट आदमी को बॉयकॉट करके साथ गलत कर रहे हैं। ये चीजें बहुत सोच-समझ कर करनी चाहिए।