अगर घर पर खाना बनाने की बात करें तो रसोई घर में खून-पसीना एक करती महिलाओं की ही छवि सामने आती है. हिन्दुस्तान में आज भी कई घर ऐसे हैं जहां पुरुषों का रसोई घर में प्रवेश वर्जित है. कहीं कहीं तो पुरुष खाने की थाली तक नहीं उठाते, और इस तरह के नियमों का वर्षों से पालन हो रहा है. हिन्दी टीवी सीरियल, फ़िल्मों में भी घर की बहुओं, बेटियों को ही खाना बनाते या परोसते देखा गया है.
वहीं अगर बड़े रेस्टोरेंट, कैफ़े, मेगा किचन की बात करें तो वहां फिर पुरुष नज़र आते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी इलाकों में लगभग एक जैसी ही छवि है. हिन्दुस्तान में कई तरह के दिलचस्प गांव हैं. कहीं हर एक बच्चा संगीत सीखता है तो कहीं हर घर से एक न एक व्यक्ति शिक्षक है. हमारे देश में ऐसे भी गांव है जो पानी में रहता है और सिर्फ़ मई में ही दिखाई देता है. इसी कड़ी में भारत में एक ऐसा गांव भी है जहां महिलाएं पाक कला में निपुण हों या न हों यहां हर पुरुष खाना बनाने में एक्सपर्ट है.
भारत का अनोखा गांव
ज़िला रामनाथपुरम, तमिलनाडु (Ramanathapuram, Tamil Nadu) में है एक ऐसा गांव जहां हर एक पुरुष ने पाक कला में म्हारत हासिल कर रखी है. हर के पुरुष, सोच कर ही यक़ीन करना मुश्किल है क्योंकि पुरुषों को अक़सर खाना बनाने में आलस करते देखा गया है! कलईयुर नामक इस गांव के बारे में जो भी सुनता है अचंभित हो जाता है और यहां के रसोइयों के हाथ का खाना खा ले तो उसे सीधे स्वर्ग की ही अनुभूति होती है. कलई का अर्थ है ‘कला’ और युर का अर्थ है ‘गांव’.
कलईयुर गांव की ख़ासियत
जैसे ही कोई तमिलनाडु के इस गांव की सीमा पार करता है उसे हवा में ही खाने की ख़ुशबू महसूस होती है. मसालों की सुगंध ऐसी कि जो खाने का शौक़ीन न हो उसकी भी जीभ लपलपा जाए. दक्षिण भारत के इस गांव के खाने को अमृत सरीखा ही कहा जाता है. इस गांव की ख़ासियत है कि यहां का हर पुरुष पाक कला में डॉक्टरेट है.
गांव का कोई घर ऐसा नहीं होगा जहां कोई पुरुष कूक न हो. The Times of India की रिपोर्ट के अनुसार इस गांव में देश के सर्वश्रेष्ठ 200 Cook पाए जाते हैं. इस गांव के रसोइये देशभर के नामी-गिरामी होटल और रेस्टोरेंट में बतौर शेफ़ काम करते हैं. ये कहना ग़लत नहीं होगा कि देवी अन्नपूर्णा की यहां के लोगों पर विशेष कृपा है!
कैसे बना ये रसोइयों का गांव?
सवाल उठना लाज़मी है कि जो काम औरतों के माथे मढ़ दिया गया है उसे गांवभर के पुरुष इतने बेहतरीन तरीके से कैसे कर रहे हैं. दैनिक भास्कर के एक लेख के अनुसार, ये सिलसिला 500 साल पहले शुरु हुआ. गांव के बुज़ुर्ग रसोइये मुरुवेल ने बताया कि कई सदियों पहले इस अनोखी रीत की शुरुआत हुई. मछली पकड़ने से ज़्यादा मुनाफ़ा नहीं होता था और पुरुषों के पास कोई दूसरी स्किल नहीं थी. ऐसे में उनकी रूचि खाना बनाने में जागी और पुरुषों ने पाक कला को ही अपनी पहचान बना लिया.
बच्चे बुज़ुर्गों की निगरानी में लेते हैं ट्रेनिंग
उच्च जाति के लोगों ने मछली पकड़ने वाले वानियार समुदाय को रसोई में स्थान दिलवाया. सबसे पहले रेडियार समाज ने उन्हें बतौर रसोइया नौकरी दी और तब से ये सिलसिला शुरु हुआ और आज तक चल रहा है. छोटे बच्चे भी खाना बनान सीखते हैं. बड़े-बुज़ुर्गों की देख-रेख में 12 साल की उम्र के बच्चे पाक कला का अभ्यास शुरु करते हैं. ये ट्रेनिंग 10 सालों तक चलती है.
आसान नहीं है शेफ़ ट्रेनिंग
वैसे तो गांव के हर घर में एक निपुण रसोइया है लेकिन ये काम बेहद मुश्किल है और ट्रेनिंग किसी तपस्या से कम नहीं है. वैसे तो कोई एंट्री लेवल क्राइटेरिया नहीं है लेकिन यहां बचपन से ही खाना बनाना सीखते हैं. एक फ़्रेशर को सब्ज़ी काटना, खेत और बागीचे से ताज़ी सामग्री इकट्ठा करना आदि भी सिखाया जाता है. जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है उसे अन्य व्यंजन बनाना सिखाया जाता है. ये रसोइये अपने परिवार के लिए खाना नहीं बनाते. मतलब यहां के परिवारों में भी घर की रसोई महिलाएं ही संभालती हैं.
3 घंटे में 1000 लोगों का खाना बना सकते हैं
आज कलईयुर गांव के रसोइयों की डिमांड पूरे दक्षिण भारत में है. वे शादी, जन्मदिन और अन्य जलसों में खाना बनाते हैं. जो भी कलईयुर के रसोइयों के हाथ का खाना खाता है, फ़ैन बन जाता है. यहां के कूूक्स इतने प्रतिभाशाली हैं कि अगर उन्हें सामग्री दी जाए तो वे सिर्फ़ 3 घंटे में 1000 लोगों का भी खाना बना सकते हैं. तिरुपति मंदिर, मदुरै के मंदिर में कलईयुर के ही शेफ़ प्रसाद और भोग बनाते हैं.