Kamal Taori: गम्छा लाटकाने वाला IAS अफ़सर, जिसने 29 साल तक लड़ी सम्मान की लड़ाई और जीत गया

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एक आईएएस ऑफिसर अपनी ज़िंदगी में इतना कुछ झेल चुका होता है कि पद मिलने के बाद वो अपनी बातचीत से लेकर लोगों तक से मिलने का दायरा बहुत कम कर लेता है. यही वजह है कि बड़ी पोस्ट पर बैठे अधिकारी ज़रूरत से ज़्यादा बोलने के आदी नहीं होते. 

हमारे देश में ये पुराना चलन रहा है कि जब भी कोई अच्छे कपड़े पहनता है, तो लोग तारीफ में यही कहते हैं ‘बाबू लग रहे हो.’ बाबू मतलब अधिकारी. ऐसे में समझ जाइए कि इनके कपड़े पहनने और उठने-बैठने का क्या ढंग होता होगा. खास बात ये है कि ये आदतें सिर्फ़ नौकरी तक नहीं रहतीं, बल्कि रिटायर होने के बाद भी इन अधिकारियों का रहन-सहन और आदतें ऐसी ही बनी रहती हैं. ऐसे में अगर कोई शख्स आपको खादी का कुर्ता, लुंगी और कंधे पर गम्छा रखे हुए मिले और कहे कि वो आईएएस ऑफिसर रह चुका है तो क्या आप मानेंगे? अगर वो अपना नाम कमल टावरी बताए तो आपको मान लेना चाहिए कि वाकई में ये साधारण सा दिखने वाला आदमी लंबे समय तक आईएएस ऑफिसर रहा था.

कौन हैं कमल टावरी! Kamal Taori IAS Biography

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कोई डॉक्टर होता है, कोई इंजीनियर होता है, कोई पुलिस ऑफिसर होता है, तो कोई दुकानदार. इसी तरह हर इंसान की एक पहचान होती है, लेकिन बात जब कमल टावरी की आती है तो उनके लिए उपाधियां कम पड़ने लगती हैं. टावरी साहब एक फौजी भी रहे हैं, आईएएस ऑफिसर के रूप में कलेक्टर भी रहे, कमिश्नर भी रहे, भारत सरकार में सचिव भी रहे, एक लेखक भी हैं, समाज सेवी और मोटिवेटर भी हैं. 

एक इंसान खुद में इतनी सारी उपलब्धियां समेटे होने के बावजूद भी इतनी सादगी से रहता है कि आप उन्हें देख कर विश्वास नहीं कर पाएंगे कि वे 2006 तक कई जिलों के कलेक्टर और कई जगहों के कमिश्नर रहने के अलावा राज्य और केन्द्र सरकार में कई महत्वपूर्ण विभागों के सचिव रह चुके हैं.

कमल टावरी की यही सादगी और खुल कर अपनी बात कहने की आदत उन्हें अन्य अधिकारियों से अलग बनाती है. सेवानिवृत्त होने के बाद से वह युवाओं को स्वरोज़गार के प्रति प्रेरित करते हैं तथा लोगों को तनाव मुक्त जीवन जीने का हुनर सिखाते हैं.

कमल टावरी का जन्म 1 अगस्त 1946 को महाराष्ट्र के वर्धा में हुआ था. बचपन से ही इनमें कुछ अलग करने का जज़्बा था और इसी जज़्बे ने इन्हें हमेशा असंभव को संभव में बदलने की हिम्मत ही. कमल टावरी ने सिविल सर्विसेज में आने से पहले 6 साल तक सेना में एक अधिकारी के रूप में अपनी सेवाएं दीं. 

वह इंडियन आर्मी का हिस्सा रहने के दौरान कर्नल के पद पर रहे तथा 1968 में वह आईएएस बने. टावरी जी 22 वर्षों तक ग्रामीण विकास, ग्रामोद्योग, पंचायती राज, खादी, उच्चस्तरीय लोक प्रशिक्षण जैसे विभाग में लोगों की सेवा करते रहे. कमल टावरी के लिए कहा जाता है कि अगर सरकार इन्हें सज़ा के रूप में किसी पिछड़े हुए विभाग में भी भेजती थी तो ये अपनी कार्यशैली से उस विभाग को भी महत्वपूर्ण बना देते थे. टावरी साहब केन्द्रीय गृह मंत्रालय एवं नीति आयोग सहित विभिन्न राष्ट्रीय संस्थाओं में उच्च पदों पर स्थापित होने के साथ साथ उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िला के डीएमम तथा फ़ैज़ाबाद जो अब अयोध्या के नाम से जाना जाता है के कमिश्नर भी रहे. 

कमल टावरी ने अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए इतना अनुभव एकत्रित कर लिया कि उन्होंने इसके आधार पर 40 पुस्तकें भी प्रकाशित करवा लीं. बात इनकी शैक्षणिक योग्यता की करें तो इन्होंने एलएलबी होने के साथ साथ इक्नॉमीक्स में डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त की है.

सादा जीवन उच्च विचार

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एक आईएएस होने के दौरान विभिन्न उच्च पदों की शोभा बढ़ाने वाले टावरी साहब आपको हमेशा सामान्य लिबास में दिखेंगे. किसी गांव देहात के व्यक्ति की तरह लूंगी कुर्ता और गम्छा लिए कमल टावरी किसी से भी बोलते बतियाते मिल जाएंगे. हंसमुख स्वभाव, सबको प्रोत्साहित करते रहने की आदत और अपने अनुभवों से सजे हज़ारों किस्से हैं इनके पास. ऐसा नहीं है कि ये स्वभाव इन्होंने सेवानिवृत्त होने के बाद अपनाया है, बल्कि अपनी पोस्टिंग के समय से ही ये ऐसे ही हैं.

इनके खादी पहनने का किस्सा भी बहुत रोचक है. एक दिन अचानक ही संकल्प ले लिया कि आज से केवल खादी ही पहनेंगे और तब से खादी इनके तन से ना उतरी. भाग्योदय फाउंडेशन के राम महेश मिश्रा बताते हैं कि ये उनके सामने की घटना है. तब टावरी साहब उत्तर प्रदेश के ग्राम्य विकास सचिव थे. 

लखनऊ के जवाहर भवन में ग्राम्य विकास आयुक्त के सभागार में कमल टावरी ने यह संकल्प ले लिया कि वह अब खादी के कपड़े ही पहनेंगे. तब से ये खादी उनके तन की शोभा बढ़ा रही है. टावरी साहब की दूसरी सबसे बड़ी ताकत रही उनके अंदर की साफगोई और ईमानदारी. वह सच के साथ हमेशा खड़े रहे, फिर चाहे जो भी अंजाम हो. उनके तबादले ऐसी ऐसी जगह हुए जहां जाने के नाम से अच्छे-अच्छे अधिकारियों की रूह कांप जाती है. 

किन्तु, कमल टावरी को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता था कि उन्हें कहां भेजा जा रहा है. वह बस अपनी ड्यूटी निभाना जानते थे. इनका हिसाब एकदम क्लियर था. अपनी नौकरी में कुछ साल बिताने के बाद इन्हें समझ आ गया था कि भले ही वह एक अधिकारी की कुर्सी पर बैठे हों, लेकिन कुछ भी तय करने का हक़ उनके पास नहीं है. अगर वह इसके खिलाफ जाते हैं तो अंजाम भुगतना होगा. टावरी इससे डरने वाले नहीं थे. 

इन्होंने भी तय कर लिया कि कुछ भी हो जाए ये किसी के बताए रास्ते पर नहीं चलेंगे बल्कि अपना रास्ता और अपनी मंज़िल दोनों खुद ही तय करेंगे.  आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर ने अपने एक लेख में टावरी साहब से जुड़ा एक ऐसा ही किस्सा लिखते हुए इनकी निर्भीकता का उदाहरण दिया है. यह 1985 की बात है, तब टावरी साहब फैज़ाबाद के कमिश्नर थे. उन्हें राम जन्म भूमि और बाबरी मस्जिद से जुड़े एक मामले में कुछ आदेश मिला था, जो उन्हें उचित नही लगा. 

परिणाम स्वरूप उन्होंने बात नहीं मानी. इसकी सज़ा के तौर पर उन्हें रातों रात पद से हटा दिया गया. टावरी साहब के तत्कालीन मुख्य सचिव ने तत्कालीन मुख्यमंत्री से कहा कि टावरी अच्छे अधिकारी हैं. इस पर आगे से जवाब आया ‘तभी तो उन्हें एक बहुत अच्छे पद पर भेज रहे हैं.’ वो अच्छा पद था उत्तर प्रदेश खादी बोर्ड में सचिव का पद. इसे अधिकारी डंपिंग ग्राउंड कहते थे जहां आम तौर पर सज़ा के रूप में अधिकारियों के तबादले होते थे. टावरी ने उसी दिन यह निर्णय लिया कि वे अब किसी के पास पोस्टिंग की बात लेकर नहीं जाएंगे. इसके बाद उन्होंने खुद को ऐसी पोस्टों के लिए तैयार करना शुरू किया जो जिन्हें लोग डंपिंग ग्राउंड कहते हैं.  

29 साल तक लड़ी सम्मान की लड़ाई

अधिकारी जो जिले भर का मालिक है, उसके हाथ में न्याय व्यवस्था से लेकर प्रशासन तक की कमान है. वो अपने साथ हुई अभद्रता पर कैसे शांत रह सकता है? कमल टावरी के साथ भी ऐसा ही हुआ, लेकिन उन्होंने अपनी पावर दिखाने की जगह कानून का सहारा लेना बेहतर समझा. वह इस मामले में कोर्ट तक गए और सालों तक कानूनी लड़ाई लड़ी. यह मामला 1983 का है. कमल टावरी और आईपीएस ऑफिसर एसएम नसीम एक संदिग्ध बस का पीछा कर रहे थे.

ये यूपी स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कोर्पोरेशन की बस थी. 15 किमी पीछा करने के बाद दोनों अधिकारियों ने आजमगढ़ के अतरौलिया में बस को रोक लिया. इसी दौरान बस के ड्राइवर और कंडक्टर ने दोनों अधिकारियों पर बुरी तरह हमला कर दिया. टावरी ने इसकी पुलिस में शिकायत कर दी. 

मामला कोर्ट में पहुंच गया मगर कुछ सालों बाद इस केस की फाइल गुम हो गई. तीन दशकों बाद जब टावरी अपना केस इलाहाबाद कोर्ट में लेकर पहुंचे तब वहां से आदेश दिया गया कि इस केस पर लगातार छानबीन हो. अंत में 29 साल बाद 26 मार्च 2012 को इस केस का फैसला आया और दोनों आरोपियों को 3-3 साल की कैद हुई. तो ऐसे हैं टावरी साहब जो हमेशा नियम कानून के हिसाब से चलते हैं.

अब सिखाते हैं युवाओं को रोज़गार का मूल मंत्र

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इसी साल टावरी साहब का एक इंटरव्यू इंटरनेट कर बहुत वायरल हुआ था. इसमें वह बताते हैं कि देश में फैली बेरोजगारी को कैसे दूर किया जा सकता था. अपने रिटायरमेंट के बाद टावरी साहब अधिकतर समय गांवों से लोगों के पलायन को रोकने, गांवों के विकास और युवाओं को रोजगार के तरीके सीखाने में बिताते हैं. 

कमल टावरी का मानना है कि युवा शिक्षा के साथ साथ अपने अंदर के गुण को भी पहचाने. वो ये समझे कि वो किस तरह अपनी बुद्धि और समझ से रोजगार पैदा कर सकता है. श्री टावरी कहते हैं कि यहां आपके आस पास जितनी भी चीज़ें हैं उन सब में रोजगार है. ज़रूरत है तो बस अपने अंदर के हुनर को निखारने की.

अपने जीवन के 40 वर्ष से ज़्यादा उच्च पदों पर बैठने वाला शख्स आज गांव की मिट्टी से जा लिपटा है. गांव से लेकर युवाओं तक के लिए चिंतित है, उन्हें हर तरह से प्रोत्साहित कर रहा है. इस शख्स में रत्ती भर भी अपनी उपलब्धियों का घमंड नहीं है. सही मायने में हर अधिकारी को ऐसा ही होना चाहिए, जो अपने अनुभव से देश के भविष्य को सही रास्ता दिखाना जानता हो.