”डियर पापा, मम्मी, बर्डी और ग्रैनी…अगर हो सके तो उस जगह को आकर जरूर देखना, जहां आपके कल के लिए भारतीय सेना लड़ी. जहां तक यूनिट की बात है नए लड़कों को इस शहादत के बारे में बताया जाना चाहिए”.
कारगिल में शहीद हुए एक बेटे ने अपने आखिरी पत्र में यह इच्छा ज़ाहिर की थी, जिसे पूरा करने के लिए उसके 74 वर्षीय पिता ने 16,000 फ़ीट की चढ़ाई की और पहाड़ की चट्टान पर बैठकर बेटे को याद किया.
यह कहानी 2-राजपुताना राइफल्स के जांबाज़ कैप्टन विजयंत थापर की है. वही विजयंत थापर, जिन्होंने अपने जीते जी पाकिस्तान समर्थित घुसपैठियों को आगे नहीं बढ़ने दिया. उन्हें सेना में सिर्फ़ छह महीने ही हुए थे, फिर भी वो जिस तरह से करगिल युद्ध में लड़े, वो इतिहास के पन्नों में दर्ज है. विजयंत कारगिल में शहीद होने वाले कम उम्र के जांबाज़ थे.
कैप्टन विजयंत थापर के बाप, दादा और परदादा सेना में रहे
26 दिसंबर 1976 को जन्मे विजयंत सैनिकों के परिवार से आते थे. उनके पिता कर्नल वीएन थापर, दादा जेएस थापर और परदादा डॉ. कैप्टन कर्ता राम थापर, सब के सब फौज का हिस्सा रहे. शायद यही कारण रहा कि विजयंत ने बचपन से ही आर्मी अफसर बनने का सपना देखा. आगे जैसे-जैसे वो बड़े हुए उनका यह सपना पक्का होता गया. अंतत: उन्होंने खुद को तैयार किया और 12 दिसंबर, 1998 को राजपूताना राइफल्स में कमिशन हुए.
सेना में विजयंत को सिर्फ छह महीने ही हुए थे, जब करगिल युद्ध छिड़ गया था. अनुभव कम होने के बावजूद विजयंत मजबूती से आगे बढ़े और विरोधियों का सामना किया. अपनी सूझ-बूझ और कुशल नेतृत्व क्षमता के कारण वो जून 1999 में तोलोनिंग (कारगिल) पर भारतीय तिरंगा लहराने में कामयाब रहे. इसके बाद उन्हें नोल एंड लोन हिल पर ‘थ्री पिम्पल्स’ से पाकिस्तानियों को खदेड़ने की जिम्मेदारी मिली. विजयंत के लिए यह बड़ी चुनौती थी.
तोलोलिंग के बाद ‘थ्री पिम्पल्स’ पर तिरंगा फहराने निकले थे
परिस्थितियां एकदम विपरीत थीं. चांदनी रात होने के कारण वो और उनकी टीम पूरी तरह से दुश्मन की फायरिंग रेंज में थी. एक कदम भी आगे बढ़ना मौत को गले लगाने जैसा था, मगर विजयंत किसी भी कीमत पर दुश्मन को खदेड़ना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने अपने साथियों से बात की और आगे बढ़े. वो अपने मिशन पर थे, तभी एक वारुद का गोला उनके सिर पर आ लगा और वह अपने साथी नायक तिलक सिंह की बाहों में गिर गए.
विजयंत की दिलेरी के कारण उनके साथी ‘थ्री पिम्पल्स’ को जीतने में सफल रहे थे, मगर उन्होंने अपने कैप्टन को खो दिया था. मरणोपरांत विजयंत को वीर चक्र से सम्मानित किया गया था. नोएडा प्रशासन ने GIP मॉल के सामने एक सड़क का नाम भी उन्हीं के नाम पर रखा है. इसके अलावा बताया जाता है कि विजयंत के घरवालों ने उनसे जुड़ी हर एक याद को आज भी संभाल कर रखा है. 29 जून 1999 का वो दिन उनसे भुलाए नहीं भूलता है.
आप उस जगह को आकर देखना जहां हमारी सेना लड़ रही है
विजयंत के शहीद होने के बाद उनका एक पत्र भी सामने आया, जिसमें उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा जाहिर की थी. विजयंत ने अपने पत्र में लिखा था:
“डियर पापा, मम्मी, बर्डी और ग्रैनी…जब तक आप लोगों को मेरा यह खत मिलेगा, मैं दूर ऊपर आसमान से आप लोगों को देख रहा होऊंगा. मुझे कोई शिकायत, अफसोस नहीं है. अगर, मैं अगले जन्म में फिर से इंसान के रूप में ही पैदा होता हूं तो मैं भारतीय सेना में ही भर्ती होने जाऊंगा और अपने देश के लिए लडूंगा. अगर हो सके तो आप जरूर उस जगह को आकर देखना, जहां आपके कल के लिए भारतीय सेना लड़ रही है. जहां तक यूनिट की बात है नए लड़कों को इस शहादत के बारे में बताया जाना चाहिए.”
विजयंत ने आगे लिखा, ”मुझे उम्मीद है मेरा फोटो मेरे यूनिट के मंदिर में करनी माता के साथ रखा जाएगा. जो कुछ भी आपसे हो सके करना. अनाथालय में कुछ पैसे देना. कश्मीर में रुखसाना को हर महीने 50 रुपए भेजते रहना. योगी बाबा से भी मिलना. बर्डी को मेरी तरफ से बेस्ट ऑफ लक. देश पर मर मिटने वाले इन लोगों का ये अहम बलिदान कभी मत भूलना. पापा आप को तो मुझ पर गर्व होना चाहिए. मम्मी आप मेरी दोस्त से मिलना, मैं उससे बहुत प्यार करता हूं. मामा जी मेरी गलतियों के लिए मुझे माफ कर देना. ठीक है फिर, अब समय आ गया है, जब मैं अपने साथियों के पास जाऊं. बेस्ट ऑफ लक टू यू ऑल. लिव लाइफ किंग साइज. आपका रॉबिन.”
16,000 फीट की चढ़ाई कर पिता ने पूरी की शहीद की इच्छा
जैसा कि विजयंत ने अपने खत में इच्छा जाहिर की थी कि उसके घरवाले उस जगह को एक बार जरूर आकर देखें, जहां उन्होंने दुश्मन से दो-दो हाथ किए. शायद यही कारण रहा कि विजयंत के पिता कर्नल (सेवानिवृत्त) विजेंद्र थापर ने उस जगह की यात्रा करने की अपनी 17 साल की भावनात्मक इच्छा पूरी की, जहां उनके बहादुर बेटे ने पाकिस्तान समर्थित घुसपैठियों से लड़ते हुए अपने जीवन का बलिदान दिया था. 74 साल की उम्र ने उन्होंने अपने बेटे की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए 16,000 फीट की चढ़ाई की और पहाड़ की उस चट्टान पर बैठ गए, जहां उनका बेटा देश के लिए लड़ते हुए शहीद हुआ था. विजयंत के साहस और अपने बेटे के प्रति विजेंद्र थापर के स्नेह को सलाम!