KC Das: आज़ादी के वो सिपाही जिन्होंने Margo Soap जैसा स्वदेशी साबुन बनाकर लड़ी अंग्रेजों से जंग

भारत की आज़ादी की लड़ाई केवल भारत को अंग्रेजों से आज़ाद करने के लिए ही नहीं थी. उस समय हमें अंग्रेजों के साथ उन अंग्रेजी सामग्रियों से भी आज़ादी चाहिए थी जिनके कारण अंग्रेज हमारा पैसा हम से ही लूट रहे थे.

भारत को आजाद कराने के लिए जितना योगदान बलिदानियों ने दिया उतना ही योगदान उन व्यापारियों का भी था जिन्होंने अंग्रेजी सामान की जगह स्वदेशी चीजों के लिए मार्केट में जगह बनाई और उन्हें देश के घर घर तक पहुंचाया. हालांकि ये अफसोस की बात है कि आज भी हम ऐसे देशभक्तों के नाम से अनजान हैं जिन्होंने अपने दिमाग और व्यापार के जरिए अंग्रेजों से एक अलग ही तरह की जंग लड़ी.

ऐसे ही एक क्रांतिकारी थे खगेंद्र चंद्र दास, जिन्होंने विलायती सामानों के बीच सेंध लगा कर नीम युक्त मार्गो साबुन को एक विशेष पहचान दिलाई और इसे घर घर तक पहुंचाया.

क्या था मार्गो ब्रांड?

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एक समय था जब मार्गो भारत का सबसे तेजी से बिकने वाला प्रोडक्ट बन गया था. माना जाता है कि मार्गो नीम साबुन शुष्क त्वचा को मॉइस्चराइज़ करना, त्वचा में खुजली को दूर करना और त्वचा संबंधी अन्य समस्याओं को ठीक करता है. इसी तरह नीम युक्त मार्गो टूथपेस्ट दांतों की सड़न और मसूड़ों की बीमारी को ठीक करने में लाभदायक था. मार्गो के प्रोडक्ट्स गुणों से भरे हुए थे, इस ब्रांड का नाम सबने सुना होगा लेकिन बहुत कम लोग जानते होंगे कि मार्गो के इन स्वदेशी उत्पादों के अनुसंधान और विकास के पीछे एक बंगाली उद्यमी का हाथ था.

कौन थे खगेंद्र चंद्र दास?

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भारतीय उद्यमी और कलकत्ता केमिकल कंपनी के मालिक खगेंद्र चंद्र दास के नेतृत्व में उनकी कंपनी ने बहुत से प्रसिद्ध स्वदेशी प्रोडक्ट बनाए. इन सबमें मार्गो के प्रोडक्ट्स ने खूब प्रसिद्धि प्राप्त की. बंगाल के एक संपन्न बैद्य परिवार में जन्मे खगेंद्र चंद्र दास के पिता राय बहादुर तारक चंद्र दास एक न्यायाधीश थे. भले ही दास के पिता एक प्रतिष्ठित पद पर थे लेकिन उन पर पिता से ज़्यादा अपनी देशभक्त मां का प्रभाव पड़ा.

उनकी मां मोहिनी देवी एक गांधीवादी और स्वतंत्रता कार्यकर्ता थीं. इसके अलावा मोहिनी देवी महिला आत्मरक्षा समिति की पूर्व अध्यक्ष भी थीं. यह संगठन महिलाओं की आत्मरक्षा के लिए प्रतिबद्ध था. दास ने बचपन से ही अपनी मां को स्वदेशी आंदोलन में योगदान देते हुए देखा. यही वजह थी कि दास ने छोटी उम्र में ही मां के नक्शेकदम पर चलने का प्रण ले लिया.

भारत में चली स्वदेशी को बढ़ावा देने की हवा

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के सी दास ने अपनी शिक्षा कलकत्ता से पूरी की, इसके बाद वह शिबपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में लेक्चरर बन कर पढ़ाने लगे. 16 अक्टूबर, 1905 को लॉर्ड कर्जन ने भारत में अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को मजबूत करने के लिए बंगाल का विभाजन कर दिया. इस बात से भारत के लोग नाराज थे, इसका नतीजा ये निकला कि भारत में स्वदेशी भावना ने जोर पकड़ लिया. अंग्रेजों को जवाब देने के लिए सबसे पहले भारतीयों को ब्रिटिश उत्पादों का बहिष्कार करना था. इसके लिए उन्हें केवल स्वदेशी वस्तुओं और उत्पादों का उपयोग करना था.

पिता ने डाला ब्रिटेन जाने का जोर, मगर दास चले गए अमेरिका

स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देने की सोच ने जल्द ही एक आंदोलन का रूप ले लिया जिसका उद्देश्य देश के आर्थिक विकास में सुधार लाना और इसे आत्मनिर्भर बनना था. ये वो दौर था जब अंग्रेजों के विरोध की ज्वाला भारत के जन जन के मन में सुलगने लगी थी. के सी दास भी इस ज्वाला में धधक रहे थे, इसीलिए वह तुरंत ही इस आंदोलन में शामिल हो गए.

दास के पिता ब्रिटिश भारत सरकार में पदस्थ कुछ अधिकारियों के करीबी थे. इन अधिकारियों ने दास के पिता को ये सूचना दी कि यदि उन्होंने अपने बेटे को नहीं समझाया तो उसे जल्द ही गिरफ्तार कर लिया जाएगा.

इसके बाद दास के पिता ने अपने बेटे को उच्च शिक्षा के लिए लंदन जाने का आदेश दिया. खगेंद्र चंद्र जिस देश की तानाशाही के खिलाफ लड़ रहे थे, पढ़ने के लिए उसी देश में नहीं जाना चाहते थे. जब उन्हें अपने पिता के आदेश का पालन करने के लिए मजबूर किया गया तो उन्होंने बहुत ही अनोखे तरीके से उनकी बात टाली. वो पहले ही ये सोच चुके थे कि वह ब्रिटेन नहीं जाएंगे.

वह सही समय का इंतजार करते रहे और 1904 में उन्हें ये सही समय तब मिल जब इंडियन सोसाइटी फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंटिफिक इंडस्ट्री द्वारा उन्हें छात्रवृत्ति की पेशकश की गई. केसी दास ने इसे स्वीकार कर लिया और एक अमेरिकी जहाज पर सवार होकर कैलिफोर्निया के लिए रवाना हुए.

स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करने वाले पहले भारतीय

1907 में खगेंद्र चंद्र और उनके सहपाठी सुरेंद्र मोहन बसु ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से अपना ट्रांसफर स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में करा लिया. 1910 में केसी दास ने कैमिकल साइंस में ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की.

इस तरह केसी दास प्रतिष्ठित स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करने वाले पहले भारतीय बने. ऐसा नहीं था कि दास अमेरिका आकर अपने लक्ष्य और आंदोलन को भूल गए थे. बल्कि उन्होंने यहां इंडियन इंडिपेंडेंस लीग से जुड़ कर अपनी पढ़ाई के साथ स्वदेशी आंदोलन में भी सक्रिय रहे. ग्रेजुएशन के बाद खगेंद्र चंद्र ने वापस भारत आने का मन बना लिया और जहाज पर सवार हो अमेरिका से रवाना हो गए.

भारत की तरफ बढ़ते हुए दास जापान में भी कुछ दिन रुके. यहां उन्होंने व्यापार की बारीकियों के बारे में कई बातें सीखीं.

हुई कलकत्ता केमिकल कंपनी की शुरुआत

दास ने आर.एन. सेन और बी.एन. मैत्रा के साथ मिलकर 1916 में कलकत्ता केमिकल कंपनी शुरू की. 1920 तक दास ने अपनी कंपनी का विस्तार कर लिया और टॉयलेट में इस्तेमाल होने वाली सामग्री बनाना शुरू कर दिया. इस सामग्री निर्माण में कंपनी बहुत कामयाबी साबित हुई. स्वदेशी सामग्री को बढ़ावा देने के लिए दास ने नीम के पत्तों के रस से भारतीय उत्पाद बनाने की प्रक्रिया के साथ इसकी मार्केटिंग शुरू कर दी.

इस तरह दास के प्रयासों से भारत के दो स्वदेशी ब्रांड, मार्गो साबुन और नीम टूथपेस्ट की शुरुआत हुई. दास ने अपने इन उत्पादों की कीमत काफी कम रखी ताकि इसे देश का हर वर्ग आसानी से खरीद सके. उन्होंने लैवेंडर ड्यू पाउडर सहित कई अन्य उत्पादों का निर्माण किया और इसे मार्केट में अच्छी पहचान दिलाई.

विदेशों में बढ़ने लगी स्वदेशी उत्पादों की मांग

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दास के बनाए प्रोडक्ट्स की मांग जब बढ़ने लगी तो कंपनी ने देश के सभी प्रमुख शहरों में अपनी ब्रांच खोल दी. इसके साथ ही कंपनी ने तमिलनाडु में अतिरिक्त प्लांट की स्थापना भी की. दास की कंपनी ने अपना इतना विस्तार कर लिया कि दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों में भी इसके प्रोडक्ट्स की मांग बढ़ गई. इंटरनेशनल मार्केट में मार्गो के प्रोडक्ट्स की इतनी डिमांड बढ़ गई कि कंपनी को सिंगापुर में भी एक प्लांट स्थापित करना पड़ा.

इस तरह 100 साल का हुआ मार्गो

इधर केसी दास सिर्फ स्वदेशी उत्पाद बेच ही नहीं रहे थे बल्कि पूरी तरह से इनका इस्तेमाल भी कर रहे थे. अमेरिका और जापान की यात्रा से लौटने के बाद उन्होंने केवल खादी के वस्त्र ही पहने. सन 1965 में जब दास ने इस दुनिया से विदा ली तब तक उनकी कंपनी दक्षिण एशियाई क्षेत्र में सबसे प्रसिद्ध बिजनेस में से एक बन गई थी. दास द्वारा बनाए गए मार्गो साबुन को बाजार में आए 100 साल हो गए हैं.