पाकिस्तान में रह कर भी भारत के ही थे खान अब्दुल गफ्फार खान, उनसे जुड़े ‘किस्सा ख्वानी बाज़ार’ की दर्दनाक दास्तां

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खानअब्दुल गफ्फार खान अहिंसावादी थे. जिसकी वजह से उन्हें ‘सीमांत गांधी’ कहा गया. वे महात्मा गांधी के भी काफी करीब रहे. भारत विभाजन के बाद उनके हिस्से में पाकिस्तान आया, लेकिन उनका दिल हिंदुस्तान के लिए धड़कता रहा. शायद यही वजह रही कि आजादी के लिए उनकी कुर्बानियों को देखते हुए पाकिस्तान जाने के बावजूद उन्हें भारत रत्न के सम्मान से नवाजा गया. वे पहले ऐसे विदेशी मुस्लिम हैं, जिन्हें भारत की तरफ से यह बड़ा सम्मान मिला. इसलिए कहा जाता है कि आजादी के सिपाही खान अब्दुल गफ्फार खान, पाकिस्तान के होकर भी भारत के ही रहे. उनसे जुड़ी सिर्फ ‘किस्सा ख्वानी बाजार’ की दर्दनाक दास्तां ही स्वतंत्रता में उनके असीमित योगदान को बताने के लिए काफी है.

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इस दर्दनाक दास्तां को जानने के लिए इतिहास के उन पन्नों को पलटना होगा जब हमारे बुजुर्ग ब्रिटिश हुक़ूमत से गुलाम भारत को आज़ाद कराने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे. भारत और पाकिस्तान का नक्शे में बंटवारा नहीं हुआ था. यह वही दौर था जब दिल्ली दिल में और तहज़ीब पेशावर में हुआ करती थी. ‘ख्वानी बाजार’ को उस जगह के लिए याद किया जाता है, जहां अंग्रेजों ने सैंकड़ों की तादाद में लोगों को गोलियों से भून दिया था.

Gaffar khan with Gandhi Gaffar khan with Gandhi

महात्मा गांधी के करीबियों में से रहे ‘सीमांत गांधी’

साल 1930 में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ नमक आंदोलन की शुुरुआत कर दी थी. यह आदोलन पूरे देश में फ़ैल चुका था. गांधी अहिंसा का पैगाम देते हुए लोगों को उनसे जुड़ने की अपील कर रहे थे.  इसी आंदोलन में गांधी जी के सहयोगी खान अब्दुल खान गफ्फार ने भी खूब साथ निभाया.

खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म 6 फ़रवरी को पेशावर में हुआ था. उनके परदादा ओबेदुल्ला खान और दादा सैफुल्ला खान ने भी भारतीय आजादी के लिए अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया था. अपने बुजुर्गों के नक्शेकदम पर चलते हुए अब्दुल गफ्फार खान भी आज़ादी के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया. पठान होने के बाद भी वे हिंसा में विश्वास नहीं करते थे. इसी वजह से वे महात्मा गांधी के सबसे करीबी बने. वे 20 जनवरी 1988 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया था. खैर, स्वतंत्रता आंदोलन में उनका कद बड़ा ऊंचा है.

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आजादी की मांग के लिए बनाया ‘खुदाई खिदमतगार’ संगठन

अब्दुल गफ्फार खान स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष भारत का निर्माण करना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने ‘खुदाई खिदमतगार’ नामक संगठन बनाया, जिसे ‘सुर्ख पोश’ के नाम से भी जाना जाता है. यह संगठन अहिंसा के जरिए अंग्रेजों से आजादी की मांग कर रहा था. विचारों में एकता होने के कारण वे महात्मा गांधी के परम मित्र बन गए.

गांधी जी के नमक आंदोलन में शामिल होने के बाद अंग्रेजों ने अब्दुल गफ्फार खान को 1930 में ​गिरफ्तार कर लिया. ‘खुदाई खिदमतगार संगठन‘ के नेता का इस तरह से गिरफ्तार होना उसके सदस्यों को बर्दाश्त नहीं हुआ और उनकी आजादी के लिए जगह-जगह शांतिपूर्वक प्रदर्शन करने लगे.

आंदोलन करने वालों के खिलाफ ब्रिटिशों ने कड़ी करवाई करते हुए काफी तादाद में लोगो को हिरासत में ले लिया. बावजूद इसके उनका हौसला बरकार रहा. उनके समर्थकों का कहना था कि ‘प्रत्येक खुदाई खिदमतगार की यही प्रतिज्ञा होती है कि हम खुदा के बंदे हैं, दौलत या मौत की हमें कदर नहीं है.

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खान अब्दुल खान गफ्फार ने अपने लोगों को इस तरह अहिंसा की मार्ग पर लेकर आये थे. उन्होंने कहा था ‘मैं आपको एक ऐसा हथियार देने जा रहा हूं, जिसके सामने कोई भी बल टिक नहीं पाएगा. यह मोहम्मद साहब का हथियार है, यह सब्र और नेकी है. दुनिया की कोई ताकत इस हथियार के सामने टिक नहीं सकती.”

यही वजह रही कि इतने जुल्म होने के बावजूद किसी ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार नहीं उठाया. अंग्रेज़ भयभीत हो गए थे. सरकार ने बड़ी तादाद में अपनी सेना की एक टुकड़ी पेशावर भेजी, ताकि इस आंदोलन का दमन किया जा सके पर आंदोलनकारियों के जज़्बे के सामने उनकी एक न चली.

फिर घटी ‘किस्सा ख्वानी बाज़ार’ की दर्दनाक दास्तां

इस घटना के दो दिन बाद यानी 23 अप्रैल 1930 को  ‘खुदाई खिदमतगार संगठन’ के सदस्य और पश्तून के पठानों ने पेशावर में शांतिपूर्ण मार्च निकालना शुरू किया. जो पेशावर की गलियों से गुज़रता हुआ ‘किस्सा ख्वानी बाज़ार’ के चौराहे पर पहुंचा. यहां अंग्रेजी सेना हथियार के साथ पहले से खड़ी थी.

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जानकारी के अनुसार, इसमें सबसे आगे गढ़वाल रेजीमेंट को तैनात किया गया था. उन्हें उन प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दिया गया था. इधर जुलूस में सबसे आगे पठानों के मासूम बच्चे थे और उनके पीछे करीब सैकड़ों लोग, जिनमें नौजवान, बूढ़े और महिलाएं भी शामिल थीं.

गढ़वाल रेजिमेंट में भारतीय सैनिक थे. वे निहत्थों पर गोलियां चलाने के लिए तैयार नहीं थे. उन्हें सख्त आदेश दिया गया. इधर जुलूस आगे बढ़ रहा था. ब्रिटिशों ने देखा कि भारतीय सैनिकों के हाथ कांप रहे हैं तो उन्हें हटाकर अंग्रेज सैनिकों को आदेश दिया गया.

फिर शुरू हुआ मौत का दर्दनाक सिलसिला! सैनिकों ने जुलूस पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं. उन दरिंदों की गोलियों ने सबसे पहले आगे चल रहे मासूम बच्चों को शहीद किया. फिर महिलाएं और बुजुर्ग भी शहीद हुए. गोलियां चलने के बावजूद पठानों ने हिंसा का रास्ता नहीं अपनाया और न ही पीठ दिखाई, वो लगातार आगे बढ़ते रहे. यह देखकर सैनिकों के साथ अधिकारीयों ने भी ताबड़तोड़ गोलियां बरसानी शुरू कर दी. निर्दयी अंग्रेज लाशों पर पैर रखकर आगे बढ़ रहे थे. जहां भी कोई घायल दिखाई देता उसे दोबारा गोली मार देते. चारों तरफ लाशें ही लाशें बिछी थीं.

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इतिहासकारों की मानें तो लगभग 6 घंटे फायरिंग की गई जिसमें 400 से अधिक लोग शहीद हो गए थे. कहा जाता है कि अंग्रेजों ने इस दूसरे ‘जलियांवाला बाग’ की घटना को छुपाने की बहुत कोशिश की थी. मगर इतिहास हमेशा हक़ की लड़ाई लड़ने वालों को नहीं भूलता. वो बात अलग है कि हम इतिहास के उन पन्नों को नहीं पलटते.

नोबल पुरस्कार विजेता इतिहासविज्ञ जीन शार्प इस घटना पर लिखते है कि ‘किस्सा ख्वानी बाज़ार’ में अंग्रेज़ो द्वारा 6 घंटे तक लगातार फायरिंग हुई.

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अंग्रेजों ने इस हत्याकांड की लीपा पोती करने की भरपूर कोशिश की जिसमे शहीद हुए लोगों की तादाद भी कम बताई गई, लेकिन सीमान्त गांधी ने यह मुद्दा ब्रिटिश सम्राट तक उठाया जिसके बाद किंग जॉर्ज-VI ने इस घटना के न्यायिक जांच के आदेश दिए और लखनऊ के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस नैमतउल्लाह चौधरी को जांच अधिकारी नियुक्त किया गया.

किस्सा–ख्वानी बाज़ार हत्याकांड की जांच के दौरान ब्रिटिश किंग ने अंग्रेजों के पक्ष में फैसला देने के लिए जस्टिस नैमतउल्लाह चौधरी को खरीदने की भी कोशिश की. उन्हें ‘सर’, ‘नाइट’, ‘लॉर्ड’ आदि उपाधियों और सुविधाओं से विभूषित करना चाहा, लेकिन जस्टिस नैमतउल्लाह चौधरी ने ब्रिटिश किंग द्वारा दी गयी सारी उपाधियां लौटा दीं. उन्होंने अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें पेशावर की जनता को निर्दोष और ब्रिटिश सेना को हत्याकांड का दोषी करार दिया गया था.