कुल्लू : दशहरा उत्सव की परंपरा निभाने में कुल्लू के राजा महेश्वर सिंह लीन हैं। राज परिवार से ही दशहरा पर्व का महत्व जुड़ा है। रघुनाथ जी की रथ यात्रा से लेकर लंका दहन तक कुल्लू के राजा महेश्वर सिंह को देवनीति की परंपरा निभानी पड़ती है। सुबह सांय जहां महेश्वर सिंह रघुनाथ जी पूजा अर्चना में व्यस्त रहते है वहीं दिन को राजा की जलेब चलती है। भगवान रघुनाथ जी के मुख्य छड़ीबरदार का दायित्व निभा रहे महेश्वर सिंह अपना राजनीतिक कामकाज छोड़कर अपनी परंपरा को निभा रहे हैं। रघुनाथ जी के मुख्य छड़ीबरदार होने के कारण महेश्वर सिंह को सुबह-शाम उन्हें भगवान के दशहरे में लगाए गए अस्थाई शिविर में उपस्थित रहना पड़ता है। अपने राज घराने की परंपरा को निभाकर भगवान रघुनाथ की सेवा में जुटे हुए हैं।
गौर रहे कि अनूठी परंपरा व देव संस्कृति का प्रतीक कुल्लू दशहरा पर्व धार्मिक नगरी मणिकर्ण से शुरू होता है। 1653 ई. में शुरू हुआ कुल्लू दशहरा पर्व धार्मिक नगरी मणिकर्ण में ही सर्वप्रथम आयोजित किया गया था। तत्पश्चात जगह अभाव के कारण यह दशहरा पर्व थरास, राहतर व जगतसुख आदि स्थानों पर भी मनाया गया। 1662 में अयोध्या से लाई गई रघुनाथ की मूर्ति कुल्लू से सुल्तानपुर मोहल्ले में स्थापित की गई और दशहरा पर्व ढालपुर मैदान मे आयोजित किया गया, जो आज तक इसी स्थान पर मनाया जा रहा है। आज भी परंपरा के अनुसार सर्वप्रथम धार्मिक नगरी मणिकर्ण में रघुनाथ जी की रथ यात्रा का आयोजन होता है, उसके पश्चात कुल्लू के ढालपुर मैदान में अंतरराष्ट्रीय दशहरा पर्व मनाया जाता है। जगतसुख में भी रघुनाथ जी की रथ यात्रा होती है।
दशहरा पर्व के इतिहास के मुताबिक राजा जगत सिंह ने श्रीराम की स्वयं बनाई गई मूर्ति सर्वप्रथम मणिकर्ण में ही पहुंचाई और यह मूर्ति 1651 में मणिकर्ण पहुंची थी, जहां राजा जगत सिंह ने कुल्लू रियासत का राजपाट रघुनाथ जी के चरणों में अर्पित किया था तथा खुद छड़ीबरदार बनकर राज्य चलाया था। राजा जगत सिंह की मृत्यु भी धार्मिक नगरी मणिकर्ण में हुई थी और उनकी पाषाण मूर्ति आज भी हनुमान मंदिर में स्थापित है। कुल्लू रियासत में पहले शैव धर्म को माना जाता था, लेकिन रघुनाथ जी की मूर्ति के लाने के बाद वैष्णव धर्म का बोलबाला हुआ तथा इस मूर्ति के मणिकर्ण पहुंचाने पर कुल्लू घाटी के सभी देवता स्वागत के लिए रघुनाथ जी की हाजरी देने पहुंचते थे। जो परंपरा के अनुसार दशहरा की रघुनाथ यात्रा में भाग लेते हैं। कुल्लू घाटी के देवताओं का संगम,नरसिंह भगवान की घोड़ी व राजा के जलेब आज के दशहरा पर्व में पुरानी परंपरा का प्रतीक हैं।