बतौर विपक्षी नेता देवेंद्र फडणवीस कभी घर नहीं बैठे। यहां तक कि जब कोरोना महामारी के कारण अनिच्छा से मुख्यमंत्री पद स्वीकार करने वाले उद्धव ठाकरे माताश्री से बाहर ही नहीं निकलते थे, वहीं फडणवीस राज्य का दौरा करते रहे और लोगों का दुख-दर्द बांटते रहे।
महाराष्ट्र की राजनीति में 10 जून से 29 जून 2022 के दौरान जो कुछ भी हुआ या आगे दो तीन दिन होने वाला है, उसे देखकर यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि विपक्ष के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ही छत्रपति शिवाजी महाराज की धरती के असली चाणक्य हैं और निःसंदेह मराठा क्षत्रप शरद पवार का युग लगभग समाप्त हो चुका है।
जाहिर है इसे पवार साहब को स्वीकार करके सक्रिय राजनीति से अलग हो जाना चाहिए, क्योंकि यह भी साबित हो गया है कि बालासाहेब ठाकरे के अयोग्य उत्तराधिकारी उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाकर उनकी आड़ में राज्य में सत्ता के संचालन की उनकी कोशिश अंततः नाकाम हो गई।शरद पवार की इमेज जहां आज भी वर्ष 1978 के उस राजनेता की है, जिसने मुख्यमंत्री वंसतदादा पाटिल के साथ कपट किया और उनके विधायकों को तोड़कर राज्य की सत्ता हथिया ली थी। पवार आज भी उस तिकड़मी छवि से बाहर नहीं आ सके हैं। लेकिन दूसरी ओर फडणवीस की इमेज मौजूदा राजनीतिक बवंडर के दौरान जेंटलमैन नेता की बनी रही।
एकनाथ शिंदे से बगावत करवाई, लेकिन इसे शिवसेना का अंदरूनी मामला करार दे दिया। शिवसेना विधायकों की बगावत करवा करके फडणवीस ने पवार और उद्धव दोनों को उन्हीं की स्टाइल में करारा जवाब दिया है। चतुर राजनेता की चतुर नीति से सांप भी मर गया और लाठी भी अक्षुण्ण रही।
एक तरह से यह 2019 का भूल-सुधार भी कहा जाएगा।
वैसे सोशल मीडिया पर रविवार से ही हैशटैग मी पुनः येईन मतलब मैं फिर से आ रहा हूं, ट्रेंड करने लगा है। यह वर्ष 2019 में फडणवीस का चर्चित स्लोगन था, जो उन्होंने अपनी जनादेश यात्रा के दौरान लगाया था। उस समय वह ओवर कॉन्फिडेंट के शिकार हो गए थे और उद्धव ठाकरे के चक्रव्यूह में फंस गए थे, इसीलिए नवंबर 2019 में जब बाल ठाकरे की ठाकरे परिवार के चुनाव की राजनीति से दूर रखने की परंपरा को तोड़ते हुए शरद पवार ने शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे राज्य को राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलवाई तो फडणवीस के स्लोगन मी पुनः येईन का मज़ाक उड़ाया जाने लगा था।
सक्रीय फडणवीस की वापसी और सियासी सीखें
कहा जा सकता है कि नवंबर 2019 के बाद देवेंद्र फडणवीस को लग गया कि ठाकरे परिवार और पवार परिवार पर भरोसा करना उनके राजनीतिक जीवन के दो ब्लंडर थे। पहला 2019 में चुनाव से पहले भाजपा के विन-विन पोज़िशन में रहने के बावजूद शिवसेना से गठबंधन करना और दूसरे चुनावी नतीजे आने के बाद अजित पवार पर भरोसा करना और एकदम सुबह राजभवन में उनके साथ मुख्यमंत्री पद की शपथ लेना, उनकी राजनीतिक भूल थी।
विधानसभा में विपक्ष का नेता बनने के बाद फडणवीस राजनीति रूप से अधिक परिपक्व हुए। उन्हें शिद्दत से एहसास हुआ कि कौन उनका असली साथी है और कौन हाथ में कटार लेकर उनके साथ है।
बतौर विपक्षी नेता देवेंद्र फडणवीस कभी घर नहीं बैठे। यहां तक कि जब कोरोना महामारी के कारण अनिच्छा से मुख्यमंत्री पद स्वीकार करने वाले उद्धव ठाकरे माताश्री से बाहर ही नहीं निकलते थे, वहीं फडणवीस राज्य का दौरा करते रहे और लोगों का दुख-दर्द बांटते रहे।
कोंकण जैसी आपदा समेत कई जगह तो फडणवीस या उनके लोग सरकार से पहले पहुंच जाते थे। इससे राज्य की जनता का फडणवीस में भरोसा बढ़ता ही गया। राज्य के लोग भी मानने लगे कि 2019 के चुनाव में जिसे उन्होंने मुख्यमंत्री बनाने के लिए गठबंधन को वोट दिया था, उसे राजनीतिक साजिश के तहत भले सत्ता नहीं मिल पाई लेकिन वह नेता उनसे कटा नहीं है।
देश की राजनीति में फडणवीस का ग्राफ बहुत तेज़ी से बढ़ा है। राजनीतिक पंडित मानने लगे हैं कि फडणवीस में भाजपा की अगली पीढ़ी के शीर्ष नेता बनने की पूरी कूव्वत है और जब नरेंद्र मोदी राजनीति से संन्यास की घोषणा करेंगे तो उनके उत्तराधिकारियों की फेहरिस्त में फडणवीस प्रमुख तीन लोगों में होंगे।
उद्धव ठाकरे को ना माया मिली ना राम
उद्धव को 10 जून 2022 को राज्यसभा चुनाव में एहसास हो गया था कि शिवसेना पर से उनकी पकड़ ढीली पड़ गई है और बगावत के दूसरे दिन यानी 22 जून से ही उद्धव को पता चल गया था कि बग़ावत करने वाले शिवसेना विधायक किसी भी कीमत पर वापस नहीं लौटेंगे, क्योंकि उन्हें संदेह है कि सेक्यूलर पॉलिटिक्स से वे दोबारा विधायक चुने जा सकेंगे।
वर्ष 2019 में चुनावी राजनीति में उतरने से पहले उद्धव ठाकरे को जेंटलमैन पॉलिटिशियन माना जाता था। वह अपने पिता की तरह आक्रामक स्वभाव के नहीं, बल्कि विनम्र राजनेता थे। इसीलिए जब बाल ठाकरे ने पुत्र मोह में पड़कर राज ठाकरे की जगह उद्धव को अपना उत्तराधिकारी बनाया तभी राजनीति के टीकाकारों को लगा कि सीनियर ठाकरे ने एक अदूरदर्शी और घातक फैसला ले लिया और कमजोर व्यक्ति एवं अपरिपक्व व्यक्ति को अपना उत्तराधिकारी बना दिया।
इसका नतीजा 2014 के चुनाव में ही देखने को मिला, जब राज्य के भारतीय जनता पार्टी के साथ भगवा गठबंधन में शिवसेना बड़े भाई से छोटी बहन की भूमिका में आ गई। यह शिवसेना के पतन की शुरुआत थी।
दरअसल, उद्धव ठाकरे ने अगर अपने पिता की विरासत को गंवा दी तो उसके लिए वह उसी तरह ज़िम्मेदार हैं, जिस तरह 2014 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा-शिवसेना गठबंधन टूटने के लिए भाजपा नेतृत्व को जिम्मेदार माना था और चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बारे में इस तरह का कमेंट किया था, जिससे आम तौर पर परिपक्व नेता बचता है। 2014 के चुनाव प्रचार में उद्धव के भाषण से साफ हो गया था कि उन्हें भविष्य जब भी मौक़ा मिलेगा, वह भाजपा से बदला ज़रूर लेंगे। यहां फडणवीस उनकी मंशा भांपने में असफल रहे।
भाजपा को सबक सिखाने के चक्कर में उद्धव पवार के चक्रव्यूह में फंस गए। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर महाविकास अघाड़ी का गठन किया। सीनियर ठाकरे की परंपरा से हटकर मुख्यमंत्री बने और बेटे को भी मंत्री बना दिया। सीएम बनने के बाद तो हिंदू हृदय सम्राट बाल ठाकरे की शिवसेना सेक्युलर शिवसेना के रूप में ट्रांसफॉर्म होने लगी।
उद्धव ने शिवसेना को ऐसी सेक्यूलर राजनीतिक दल बना दिया जो हिंदू विरोधी कार्य करती दिख रही थी। जो ज़िंदगी भर शिवसैनिक राग हिंदू आलापता था, वह समझ ही नहीं पाया कि उद्धव साहेब यह क्या कर रहे हैं। वे देख रहे थे कि हिंदूवादी शिवसेना सरकार हिंदुत्व के पैरोकारों की ही ऐसी की तैसी कर रही है।
ढाई साल में शिवसेना हिंदू-विरोधी पार्टी बन गई। इससे शिवसेना विधायकों की हवाइयां उड़ने लगी। उन्हें साफ दिखने लगा कि उद्धव की हिंदू विरोधी नीति से उनका राजनीतिक करियर खत्म हो जाएगा।
यही वजह है कि जब एकनाथ शिंदे ने उद्धव का विरोध करने की पहल की तो तो तिहाई से ज्यादा विधायक उनके साथ हो लिए। अब तो भविष्य में उद्धव के साथ रहने वाले 10-12 विधायक और राज्यभर में शाखा प्रमुख के भी शिंदे खेमे में चले जाएं तो हैरानी नहीं होगी।
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