बिहार के दूर गांव की महिलाएं. एक ऐसा राज्य जहां आज भी ‘जाति’ के कई-कई मायने निकाले जाते हैं, वहां महादलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाली. जहां महिला होना मतलब घर का काम करना होता है. वहां की महिलाएं अब अपना ‘म्यूजिकल बैंड’ चलाती हैं. उन्हें दिल्ली-मुंबई सहित देश के कोने-कोने से बुलाया जाता है. बकायदा अप्वाइंटमेंट लेते हैं लोग.
गांव है बिहार के दानापुर जिले का ढिबरा. यहां की महिलाओं ने बहुत सारी समस्याओं का सामना करते हुए और घर से लेकर बाहर वालों के ताने सुनते हुए एक बैंड की शुरुआत की है. पद्मश्री सुधा वर्गीज ने इस बैंड का नाम ‘सरगम’ दिया है. इस बैंड की डिमांड कई राज्यों में है.
कभी स्कूल की दहलीज़ नहीं लांघने वाली ये महिलाएं एक समय ग़रीबी से जूझ रही थीं. पैसे-पैसे के लिए परेशान थीं. खाने तक की व्यवस्था मुश्किल से हो पाती थी. लेकिन, अब चीज़ें बदल गई हैं. उन्हें बुलावा आता है और वे हवाई-जहाज तक से प्रोग्राम करने पहुंचती हैं.
पद्मश्री सुधा वर्गीस ‘नारी गुंजन’ नाम से समाजिक संस्था चलाती हैं. उन्होंने ही इन महिलाओं को सुझाव दिया कि वे अपना बैंड बनाएं. उनके सुझाव पर महिलाएं सीखने को तैयार हुईं और तैयार हो गया ‘सरगम महिला बैंड’.
5 महिलाएं छोड़ दी थीं
बताया जाता है कि बैंड की जब शुरुआत हुई तो गांव की 15 महिलाएं इसके लिए तैयार हुईं. लेकिन, कई तरह के बंधनों की वजह से 5 महिलाओं ने साथ छोड़ दिया. अंत में 10 महिलाएं ही इसे सीख पाईं. इस बैंड का नेतृत्व सविता देवी करती हैं.
साल 2012 में बैंड की शुरुआत के समय महिलाएं काफ़ी घबड़ाती थीं. ड्रम को गले में टांगना उन्हें अज़ीब सा लगता. जब ट्रेनर एक-दो-तीन बोलते तो वह घबड़ा जातीं, क्योंकि उन्हें गिनती नहीं आती थी. इसके बाद ट्रेनर भात-दाल-रोटी कहते तो वे लोग ड्रम पर डंडा मारना शुरू कर देती थीं. इसके बाद रोज दो घंटे अभ्यास करतीं.
एक साथ दो काम
ये महिलाएं एक साथ दो काम करती रहीं. खेत में मज़दूरी और फिर बैंड की प्रैक्टिस. खेत में काम करते हुए बैंड के लिए समय निकालना काफ़ी मुश्किल होता. कई-कई बार खेत मालिक से झगड़ा हो जाता है. लेकिन, खेत में मज़दूरी करके उन्हें 100 रुपये मज़दूरी मिलती और बैंड बजाने में 500 रुपये मिलते.
शुरू में हम लोग घरों की छत पर बैठकर प्रैक्टिस करते. लोग हंसते थे. इससे सारी औरतें शर्मा जाती थीं. लेकिन, जैसे ही उन्हें शर्म करना छोड़ दिया, काम अपने आप आ गया. अब भी वह हर हफ्ते प्रैक्टिस करती हैं. अब लोग मजाक उड़ाने के लिए नहीं, बल्कि हैरानी से हमें देखते हैं.
पहले 500 रुपये मिलता था
बैंड पार्टी को शुरू में एक प्रदर्शन के लिए प्रति महिला 500 रुपये मिलता था. लेकिन, समय के साथ उनकी डिमांड बढ़ती गई. ऐसे में अब हर महिला को 1500 रुपये हर प्रदर्शन के मिलते हैं. महिलाएं 35 से 40 हज़ार रुपये महीना कमा रही हैं. उन्हें दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों से भी बुलावा आता है.
ज्यादातर महिलाओं को अपना बर्थडे नहीं पता. ये भी नहीं पता कि किस साल उनकी शादी हुई थी. लेकिन, अब उन्हें लोग प्रोग्राम के लिए फोन करते हैं और डेट की बुकिंग कराते हैं, जो उन्हें याद रहती है. लोग फोन करके पूछते हैं कि आप लोग उस तारीख़ में खाली हैं या नहीं. ये उन्हें बहुत ही अलग अहसास दिलाता है.
मंगलोर से आया आइडिया
सुधा वर्गीज़ का कहना है, एक बार मंगलोर में मैंने महिलाओं को बैंड बजाते देखा था. उसे देख मुझे लगा कि बिहार की ग़रीब महिलाएं इसे आसानी से कर सकती हैं और उन्हें रोजगार मिल जाएगा. इसके बाद वह ढिबरा गांव की महिलाओं को इसके लिए प्रेरित कीं. बहुत ही कम समय में ये बैंड काफी लोकप्रिय हो गया. शादी समारोह से लेकर राजनैतिक पार्टियों तक के कार्यक्रमों में उन्हें बुलाया जाने लगा. अब यह टीम बिहार के अलावा दूसरे राज्यों में भी बुलाई जाती है.