मेरी पहली प‍िक्‍चर: क‍िसी के चाचा से पड़ा थप्‍पड़, दादाजी की सेवा करने पर देखी थी ‘नगीना…’

आज नेशनल सिनेमा-डे (National Cinema Day) है. सोसाइटी जब सेल्युलाइड के पर्दे पर उतरकर इठलाती, ठुमकती या इतराती है, तो सिनेमा बनता है. इसलिए रुपहले पर्दे पर लहराते पाजामे जैसे पतलून पहनने वाले कलाकार को देख हम बेल-बॉटम पहनने लगते हैं. केश को माथे पर हल्का सा कट देकर ‘साधना-कट’ बना लेते हैं. मधुबाला जिस पहनावे में ‘प्यार किया तो डरना क्या…’ गाती हैं, उसे देख ‘अनारकली’ सूट बनवाते हैं. या फिर सलमान की स्टायलिश हाफ-जैकेट के लिए दुकानों की खाक छान लेते हैं. संक्षेप में बस इतना कि सिनेमा जो देखता है, वह दिखाता है, वही हम चलन में ले आते हैं…, फिर भी कुछ बचा रह जाए तो कह देते हैं- ‘पिक्चर अभी बाकी है…’. सिनेमा-डे इसी उल्लास के सेलिब्रेशन का दिन है. न्यूज 18 हिंदी इस खास मौके को अपने साथियों के साथ आपके सामने ‘मेरी पहली पिक्चर’ के रूप में पेश कर रहा है.

अमृत शर्मा: पहली बार अकेला गया पिक्‍चर हॉल तो चाचा के दोस्‍त से खाया जोरदार तमाचा
मैं उत्‍तर प्रदेश के रामपुर जिले के छोटे से कस्‍बे मिलक में पैदा हुआ. कस्‍बा छोटा जरूर था, लेकिन वहां सिंगल स्‍क्रीन सिनेमा हॉल या उस दौर के प्रचलन के मुताबिक कहें तो पिक्‍चर हॉल अपनी पूरी शान के साथ आसमान की ओर मुंह उठाए खड़ा दिखाई देता था. ये मैं बात कर रहा हूं उस दौर की जब हमारे कस्‍बे में हर 70 या 100 परिवारों में किसी एक के घर ब्‍लैक एंड व्‍हाइट टीवी सेट्स होते थे. ऐसे में उस सिंगल स्‍क्रीन थियेटर जाने वालों के मुंह से सुनी कहानियां अनायास ही मेरे जैसे कच्‍ची उम्र के छौनों को बातों में ही नहीं सपनों में भी अपनी ओर खींचती थीं.

तब पूरी फैमिली के साथ पिक्‍चर जाने का चलन कम ही था. तब हमारी उम्र के बच्‍चे छुपते-छुपाते, नजरें चुराते ही सिनेमा हॉल में घुस पाते थे. बात साल 1986 की है, तब बड़े
शहरों में कौतुहल पैदा करती हुई ‘राम तेरी गंगा मैली’ हमारे कस्‍बे के पिक्‍चर हॉल में भी पहुंच गई थी. इस फिल्‍म को लेकर बड़ों के बीच इतनी बातें हो रही थीं कि हम खुद को रोक नहीं पाए और एक दिन मैं अपने दो दोस्‍तों के साथ दोपहर 12 से 3 का शो देखने पहुंच गया. ये दोस्‍तों के साथ थियेटर में अकेले देखी गई मेरी पहली फिल्‍म थी.

तब हम जैसे छौनों को टिकट चेक करने वाले चाचा या भइया कभी 1 रुपया तो कभी अठन्‍नी लेकर हॉल में कहीं भी बैठा देते थे. उस दिन हमें जगह मिली बालकनी के ठीक नीचे की सीढ़ी पर. फिल्‍म की नंबरिंग (कास्टिंग) चल ही रही थी कि तभी कहीं से जोरदार तमाचा आया और हमारा गाल गर्म हो गया. दरअसल, लाल हुआ या नहीं इसका अंधेरे की वजह से पता नहीं चल पाया. अपनी दायीं ओर देखा तो तमाचा रसीद करने वाले चाचा के दोस्‍त हमें कुछ सम्‍मानजनक शब्‍दों से संबोधित करते हुए तुरंत घर जाने को बोल रहे थे और मेरी पहली फिल्‍म मेरे लिए शुरू होने से पहले ही खत्‍म हो गई थी. हालांकि, बाद में मैंने और मेरे दोस्‍तों ने इस फिल्‍म को पूरा का पूरा देखा.

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बालकोनी की सीट…, मूंगफली वाला भूंजा और खानदान
‘नीलगगन में उड़ते बादल आ…आ…आ…’, यह एक गाने की लाइन थी और साल था 1985-86. छोटा सा शहर सीतामढ़ी और सिनेमाहॉल का नाम था किरण टॉकीज. घर से ज्यादा दूर नहीं था. रिक्शे के चारों तरफ फिल्म के पोस्टर लगाकर लाउडस्पीकर पर यह गाना सुन-सुनकर छोटी उम्र में भी जी ऊब गया था. घर में रखा रेडियो भी एक दिन यही गाना बजाने लगा, तब लगा कि कुछ अच्छा वाला सिनेमा है. पहले मम्मी से कहा गया, फिर बाबूजी तक अर्जी गई और हम तीनों भाई कल के इंतजार में लग गए. शाम का शो था 6 से 9 बजे. सुबह 6 बजे से तैयारी शुरू. सिनेमाहॉल में खरीद कर कुछ नहीं खाना है, मम्मी ने शर्त रखवा ली. रखवा क्या ली, ठीक से समझा दिया सबको कि ‘कुछो मांगे…, तो बस पड़ जाएगी…!’ लेकिन इंटरवल तो होगा, इसलिए मम्मी ने मूंगफली का भूंजा बना लिया. छोटी-छोटी पुड़िया बना ली गई. खैर, सूरज चढ़ा, दिन ढला और फिर सवारी चली. सवारी क्या थी, पैदल-पैदल ही पहुंच गए. 3 रुपया 25 का टिकट, बालकोनी (बालकनी) का. हॉल में घुसकर बैठे ही थे कि ये लो…, घुप्प अंधेरा हो गया. हाथ को हाथ न सूझे. अचानक पीछे से तेज रोशनी पड़ी और सामने ये बड़ा सा स्क्रीन चमकने लगा. इंतजार था तो बस एक बार ‘नीलगगन में उड़ते बादल…’ का. आ जाए बस! वह घड़ी भी आई. गाना सुनकर मन गदगद हो गया. इंटरवल हुआ तो पूरे हॉल में आ….लू….चिप्स….. के हरकारे आ गए. हमें छोटी पुड़िया पकड़ा दी गई. ढाई-तीन घंटे कब और कितनी जल्दी बीत…, उसका ‘खानदान’ समझ ही नहीं सके. बरसों बाद जब टीवी पर दोबारा सुनील दत्त और नूतन दिखे……., तो लैपटॉप पर इसे देखकर किरण टॉकीज याद आ गई.

श्रीराम- जब दादाजी के साथ देखी ‘नगीना’
सिनेमा को लेकर बचपन की यादों को कुरेदने पर एक वाक्या याद है- दादाजी को पहली पिच्चर दिखाने का. हम दोनों भाई बहुत छोटे था..शायद चौथी-पांचवीं में पढ़ते होंगे थे. उन दिनों एक पिच्चर की धूम में थी और वह थी नगीना. ऋषि कपूर, श्रीदेवी और अमरीश पुरी की इस पिच्चर से सफलता के तमाम रिकॉर्ड तोड़ दिए थे. मैं नागिन तू सपेरा….गीत हर गली-महौल्ले में गूंजा करता था. गीत से पहले बीन की लंबी धुन सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र हुआ करती थी.

उन दिनों गांव से दादाजी का आगमन हुआ. हम दोनों भाई दादाजी की सेवा-चाकरी में लग जाते थे. क्योंकि, दादाजी के साथ समय बिताने पर कुछ देर पढ़ाई से छुटकारा मिल जाता था. दोनों भाइयों ने पिताजी से जिद पकड़ ली कि दादाजी के साथ नगीना पिच्चर देखने जाएंगे.

एक दिन तय हुआ कि सभी लोग पिच्चर देखने चलेंगे. मम्मी-पापा, दादाजी और हम दोनों भाई. पिच्चर हॉल के अंदर की सीन आज भी याद है. चूंकि मम्मी दादाजी के सामने घूंघट करती थीं. वह पिताजी के साथ दो लाइन छोड़कर पिछली सीट पर बैठीं और हम दोनों भाई दादाजी के साथ आगे की सीट पर. सांप देखकर आज भी पसीना छूट जाता है फिर तो वह उम्र ही कुछ और थी. जैसे ही श्रीदेवी नागिन की रूप धारण करती मैं दादाजी की बाजू को कसके पकड़ लेता. हालांकि, दादाजी को सांपों से बिल्कुल भी डर नहीं लगता था. उन्हें तीन-चार बार सांप डस चुके थे. उनके घुटने के नीचे कई निशान थे जो सांपों के डसने की गवाही देते थे. पिच्चर में जब-जब श्रीदेवी और अमरीश पुरी का सामना होता हॉल में खूब तालियां और सीटियां बजतीं. पिच्चर देखने के बाद काफी दिनों तक पिच्चर का बुखार चढ़ा रहा और दिन-रात बस सांपों और सपेरा बने अमरीश पुरी की चर्चा करते थे. हालांकि, इस बात पर माताजी की खूब फटकार भी पड़ती थी.

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दीपिका शर्मा- मम्‍मी-पापा की ‘मोहरा’ देखने की प्‍लान‍िंग और मेरी एंट्री
मैं स्‍कूल में थीं. स्‍कूल का नाम था बी.एस. पब्‍ल‍िक कॉन्‍वेंट स्‍कूल. दूसरी या शायद तीसरी क्‍लास में, अच्‍छे से याद नहीं. पर र‍िसेज का टाइम था और अपनी दोस्‍त के पीछे भागने के चक्‍कर में मैंने अपने घुटने में बुरी तरह चोट लगा ली. चोट का दर्द तो पता नहीं, लेकिन ये याद है कि खून देखकर मैं बहुत रोई थी. ये देखकर मेरी मैडम ने आया को घर इस संदेश के साथ भेजा (तब मोबाइल या लैंडलाइन का ऐसा दौर नहीं था) कि मुझे चोट लग गई है और वह मुझे ले जाएं. मुझे लगा अरे वाह, अब आधे द‍िन में ही घर जाने को म‍िलेगा. देखा मम्‍मी-पापा दोनों आए हैं स्‍कूटर पर मुझे लेने. मैं चौंक गई कि घर ही ले जाना था (जो स्‍कूल से चार घर छोड़कर ही था) इतना तैयार होकर क्‍यों आए. स्‍कूटर चला, पर घर की तरफ नहीं, कहीं और… मैं बस यूं ही खुश थी कि चलो स्‍कूल नहीं है, अब कहीं भी ले जाओ.

थोड़ी देर बाद पता चला कि हम स‍िनेमाहॉल आए हैं और पापा-मम्‍मी जो अक्षय कुमार, रवीना टंडन और सुनील शेट्टी की ‘मोहरा’ देखने की डेट पर न‍िकले थे, मुझे उस डेट में जबदस्‍ती घुसने का मौका म‍िला था. मैंने इस फिल्‍म में क्‍या देखा मुझे याद नहीं, मम्‍मी-पापा ने कुछ फिल्‍म के दौरान कुछ ख‍िलाया या नहीं कुछ याद नहीं… बस इतना याद है कि वो फिल्‍म मोहरा था और बीच में ही पापा ने मुझे चोट का बहाना देकर सुला द‍िया था. मेरे भरतपुर शहर में स‍िनेमा देखने का ये मेरा पहला और शायद आखिर अनुभव था. इसके बाद तो सारी फिल्‍में भोपाल, द‍िल्‍ली, मुंबई, रतलाम और न जाने क‍िस क‍िस शहर में जाकर देखीं पर ‘मोहरा’ स‍िनेमा की मेरी पहली मुलाकात थी.