हमारे देश में महिलाओं की ड्राइविंग को पुरुषों के मुक़ाबले निम्न दर्जे का माना जाता है. सड़क पर किसी महिला को ड्राइव करते देख आज भी तंज कैसे जाते हैं. लेकिन, महिलाएं भी इस सोच को हर दिन तोड़ रही हैं. अगर आज इतनी सामजिक तरक्की के दावे के बाद महिलाओं को इतना कुछ झेलना पड़ता है, तो इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि आज से 30 -40 साल पहले इस बारे में लोगों की क्या राय रही होगी.
चलिए आपको मिलवाते हैं उस महिला से, जीने 3 दशक पहले ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया, जो आज के साम्य में भी मिसाल है. मिलिए, भारत की नहीं, एशिया की पहली लोको ड्राइवर सुरेखा यादव से.
1988 से शुरू हुआ सफ़र
1988 में सबसे पहले ट्रेन चलाकर सुरेखा देश की पहली महिला लोको पायलट बन गईं. ज़िला सतारा, महाराष्ट्र के एक किसान परिवार में सुरेखा का जन्म हुआ. 5 बच्चों में सबसे बड़ी थी सुरेखा. The Better India के अनुसार, सुरेखा ने Saint Paul High School से पढ़ाई की. वो एक ऑलराउंडर छात्रा थीं. पढ़ाई में और खेल-कूद दोनों में आगे. स्कूल की पढ़ाई के बाद सुरेखा ने Electrical Engineering में डिप्लोमा किया. सुरेखा गणित पढ़ना चाहती थीं और B.Ed कर टीचर बनना चाहती थीं.
टीचर बनने का सपना देख रही सुरेखा की ज़िन्दगी उस दिन बदल गई जब उन्हें भारतीय रेलवे में नौकरी मिली.
सुरेखा ने 1986 में रेलवे की परीक्षा दी. परीक्षा पास कर ली और भारतीय रेलवे बोर्ड ने उन्हें इंटरव्यू के लिए बुलाया. सुरेखा ने इंटरव्यू भी पास कर लिया और उन्हें कल्याण ट्रेनिंग स्कूल में बतौर ट्रेनी असिस्टेंट ड्राइवर (Trainee Assistant Driver) भेजा गया.
“मुझे नहीं लगा था कि मेरा चयन होगा. वो नौकरी के लिए मेरा पहला आवेदन था. मैंने 1986 में सेन्ट्रल रेलवे में बतौर ट्रेनी असिस्टेंट ड्राइवर जॉइन किया और उसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.”
रेलवे के रिटेन और वाइवा में सुरेखा अकेली महिला थी. उन्हें ये भी नहीं पता था कि भारतीय रेलवे में उनसे पहले किसी महिला ने बतौर ट्रेन ड्राइवर काम नहीं किया. “किसी को पहला क़दम उठाना था और समानता लानी थी. मुझे पता था कि देश के लिए, अपने परिवार के लिए और अपने लिए कुछ करने का यही मौका था.”
Connect Gujarat के एक लेख के अनुसार, सुरेखा को टू-व्हीलर या फ़ोर-व्हीलर चलाना नहीं आतास लेकिन वो आसानी से 9-12 कोच की ट्रेन चला लेती हैं!
रेलगाड़ियों से है बेहद लगाव
सुरेखा ने न सिर्फ़ देश की में बिछी पटरियों पर सफ़लतापूर्वक ट्रेनें दौड़ाई बल्कि पितृसत्तामक सोच पर भी हमेशा के लिए ब्रेक लगा दिया. सबसे पहले सुरेखा ने वाडी बंदर से कल्याण के बीच गुड्स ट्रेन चलाई, इस ट्रेन का नंबर था L-50. बतौर फ़्रेशर उन्हें ट्रेन के इंजन की जांच-पड़ताल, सिग्नल आदि ड्यूटी ही दिए गए.
1998 में सुरेखा को गुड्स ट्रेन चलाने की पूरी ज़िम्मेदारी दी गई. 2000 तक सुरेखा को रेलरोड इंजीनियर बना दिया गया. रेलरोड इंजीनियर को ही लोको पायलट, ट्रेनड्राइवर, मोटरवुमन कहते हैं. सुरेखा की ये उपलब्धि आग की तरह फैली. मीडियाकर्मी उनका इंटरव्यू लेने और आम लोग उनका ऑटोग्राफ़ लेने के लिए भी पहुंचे थे.
वेस्टर्न घाट क्षेत्र में भी चला चुकी हैं ट्रेन
भारत के वेस्टर्न घाट रेलवे लाइन पर भी सुरेखा ट्रेन चला चुकी हैं, ये सफ़लता उन्होंने 2010 में प्राप्त की. इस कठिन रास्ते पर ट्रेन चलाने के लिए उनकी स्पेशल ट्रेनिंग हुई. हालांकि ये मक़ाम हासिल करना आसान नहीं था.
“कुछ लोगों को मुझे इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी मिलने से आपत्ति थी. उन्होंने कहा कि अभी तक किसी महिला को ये पोस्ट नहीं मिली हम किसी महिला को इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी नहीं दे सकते.” सुरेखा ने हार नहीं मानी और अपने पैशन के लिए लड़ीं. उन्होंने कहा कि उनकी भी वही ट्रेनिंग हुई है जो अन्य पुरुष ड्राइवरों की होती है. इसके साथ ही ये भी दलील दी की उनका चयन इसलिए हुआ है क्योंकि वो ये काम ठीक से करने की सक्षम हैं.
लेडीज़ स्पेशल ट्रेन की पहली ड्राइवर
पूर्व रेल मंत्री ममता बनर्जी ने अप्रैल 2000 में लेडीज़ स्पेशल ट्रेन की शुरुआत की थी और इस ट्रेन की पहली ड्राइवर थीं सुरेखा. मई 2011 में सुरेखा का प्रमोशन हुआ और उन्हें एक्स्प्रेस मेल ड्राइवर (Express Mail Driver) बनाया गया. इसके साथ ही वो कल्याण के ही ड्राइवर ट्रेनिंग सेंटर (जहां कभी उनकी ट्रेनिंग हुई थी) में बतौर सीनियर इंसट्रक्टर ट्रेनिंग देने लगीं.
8 मार्च, 2011 को सुरेखा ने पुणे से सीएसटी तक Deccan Queen चलाई, ये बेहद कठिन रेल रूट्स में से एक है.
सुरेखा को मिला परिवार, दोस्तों और सहकर्मियों का साथ
सुरेखा का कहना है कि उन्हें महिला होने की वजह से शुरुआत में थोड़ी दिक्कतें आईं, उन पर लोग विश्वास नही दिखाते थे. लेकिन, उनके परिवारवालों, दोस्तों और सहकर्मियों ने उनका साथ दिया. “मुझे महिला होने की वजह से किसी भी तरह के भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा. अगर आप महिला कार्ड इस्तेमाल करतें हैं तो आप विश्वसनीयता खो देते हैं. मैं अपना काम सबसे अच्छे से करना चाहती थी. महिलाओं और पुरुषों के बीच शारीरिक अंतर हैं. जब हम एक ही काम कर सकते हैं तो जेंडर मायने क्यों रखता है?”, सुरेखा ने कहा.
ट्रेन ड्राइवर्स को चेन खिंचना, रेल रोको आदि समस्याओं का सामना करना पड़ता है और इस सबके बावजूद 32 साल से ट्रेन चला रहीं सुरेखा का ट्रेन एक्सीडेंट का कोई रिकॉर्ड नहीं है. उन्होंने टीवी सीरीयल ‘हम भी किसी से कम नहीं’ में भी काम किया है. पहली महिला लोको पायलट होने की वजह से उन्हें कई अवॉर्ड्स और पुरस्कारों से नवाज़ा गया.