हम डीजल-पेट्रोल की महंगाई पर चर्चा करते हैं, लेकिन क्या कभी यह सोचते हैं कि इसके लिए इतिहास में कितना खून बहा है? तेल के खेल में उन लोगों का नरसंहार होता रहा है जो या तो तेल भंडार के पास या फिर उसके रास्ते में बसे थे। बड़ी खौफनाक है तेल के खेल की कहानी।
तेल और खून का रिश्ता काफी गाढ़ा है। दोनों एक-दूसरे में काफी अच्छे से घुल-मिल जाते हैं। तेल के खेल में खून की बड़ी भूमिका होती है। बल्कि तेल की कहानी लिखी ही खून से जाती है। ब्रिटिश लेखक कीथ फिशर ने अपनी पुस्तक ‘ए पाइपलाइन रन्स थ्रू इट: द स्टोरी ऑफ ऑइल फ्रॉम एनसिएंट टाइम्स टु द फर्स्ट वर्ल्ड वार’ में दुनियाभर की ऑइल इंडस्ट्री के खूनी इतिहास का विस्तृत ब्योरा दिया है। तेल के लिए खौफनाक युद्धों का इतिहास सदियों पुराना है। बाकू और अजरबैजान में तेल का खजाना मिला तो फारस (अब ईरान) के अब्बासी और सीरिया के उमय्यद खलिफाओं के बीच जमकर रक्तपात हुआ। 1813 ईस्वी तक ईस्ट इंडिया कंपनी पर्सिया और मेसोपोटामिया में तेल के अकूत भंडार के वाणिज्यिक और रणनीतिक महत्व पर रिपोर्ट्स तैयार कर रही थी।
1859 में अमेरिका के पेन्सिलवेनिया स्थित ऑइल क्रीक में विशालकाय पेट्रोलियम इंडस्ट्री खड़ी हो गई। उससे कुछ दशक पहले तक वहां से स्थानीय अमेरिकी आबादी का सफाया किया गया था। यह कोई नई बात नहीं थी। तेल का खेल ही कुछ ऐसा है जो खून के बिना पूरा ही नहीं होता है। तेल के खेल में युद्ध, हिंसा, विनाश और जीत-हार तो लगे ही रहते हैं। कीथ की किताब में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ऐंड्र्यू जैक्शन, ब्रिटिश साम्राज्य के यूरोपियन एजेंट्स, वैश्विक तेल कंपनियों के दिग्गज और अखबारों को संपादकीयों से प्रमुख कथनों का संग्रह किया गया है। तेल हमेशा से काफी ताकतवर माफियाओं और कुलीनों के साथ-साथ बड़े पैमाने पर कंपनियों की मिलीभगत की कहानियों का केंद्र बिंदु रहा है। अमेरिका के सिविल वॉर के वक्त कच्चा तेल प्रचूर मात्रा में उपलब्ध था और काफी सस्ता था। जॉन रॉफेलर के वक्त उनके स्टैंडर्ड ऑइल का बोलबाला रहा। 1880 से अगली शताब्दी के आगमन तक अमेरिका की रिफाइनरियों और वहां के बाजार में 80% भागीदारी अकेले स्टैंडर्ड ऑइल की हुआ करती थी।
रूस में भी तेल ने कुछ ऐसा ही खेल किया जहां बाकू और कौकसस से तेल आते थे। इसके लिए वहां की स्थानीय आबादी पर खूब अत्याचार हुए। रूस तेल के खेल में अमेरिका को मात देने की होड़ में था। इसके लिए बड़े पैमाने पर निवेश की जरूरत थी जिसकी पूर्ति नोबेल ब्रदर्स ने की। उन्हें राज्य का सहयोग और समर्थन प्राप्त था। नोबेल ब्रदर्स की प्रतिस्पर्धा रॉथचाइल्ड्स से थी। इधर, अंग्रेजों के अधीन भारत और डचों के अधीन इंडोनेशिया में तेल के लिए खूब संघर्ष हुआ। ऊपरी बर्मा पर अतिक्रमण संभवतः तेल के लिए पहला युद्ध था। डच सैनिकों और उनकी नीतियों ने आसेह में कम से कम एक हजार लोगों की जानें लीं। रॉयल डच शेल नाम की तेल कंपनी की नींव ही नरसंहार पर बनी थी।
1882 में मिस्र पर ब्रिटेन के आक्रमण पर ब्रिटिश मीडिया का उत्साह देखते ही बन रहा था। तब यह समझाया जा रहा था कि कैसे मिस्र के बर्बर मुसलमानों को सबक सिखाया जा रहा है। इसके बाद तो तेल के लिए खून बहाने का सिलिसला जोर पकड़ गया। ईरान से अफगानिस्तान और इराक से लीबिया तक मध्य पूर्व के देशों में तेल भंडार पर कब्जे की होड़ लग गई। हालांकि, इंटरनल कंबशन इंजिन वाले मोटर वाहन आने से पेट्रोल युग का अवसान शुरू हो गया। फिर ब्रिटेन और जर्मनी के बीच नौसैनिक हथियारों की होड़ के कारण तेल महत्वपूर्ण हो गया। यूरोपीय ताकतों की आपसी प्रतिस्पर्धा में मध्य पूर्व में आधिपत्य के अलग-अलग इलाके स्थापित हो गए।
20वीं सदी की शुरुआत में दो विश्व युद्धों के दौरान ब्रिटेन और उसके सहयोगी देश तेल के लिए अमेरिका पर निर्भर हो गए जिस कारण अमेरिका एक महाशक्ति बनकर उभरा। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद लॉर्ड कर्जन ने कहा भी था, ‘ब्रिटेन और उसके सहयोगियों को जीत तेल के दम पर मिली।’ कीथ की यह किताब तथ्यों के साथ बताती है कि तेल का खेल सिर्फ विकास और वाणिज्य या पर्यावरण के विनाश तक सीमित नहीं है बल्कि इसके चलते नस्लवाद, उपनिवेशवाद और हिंसा का तांडव होता रहा है। तेल भंडार के पास या उसके रास्ते में आने वाली आबादी के साथ वो सब हुआ जिसे अमानवीय कहा जा सकता है। कुल मिलाकर कहें कि जब प्रकृति, प्राकृतिक संसाधन में तब्दील हो जाती है तब इंसानों को उसकी कीमत चुकानी पड़ती है।