इतिहासकारों ने जब भी मुगलों के बारे में लिखा, राजाओं के शौर्य से पन्नों को भरा और जब भी उनकी रानियों का जिक्र हुआ तो कहा गया ‘वह बहुत ही खूबसूरत थी’. लेकिन रानियां खूबसूरती से आगे भी बहुत कुछ थीं, जिन्हें कम ही दर्शाया गया… शायद इसलिए, ताकि राजाओं का मान बना रहे. खूबसूरती और शातिर दिमाग का ऐसा ही एक तालमेल थी नूरजहां! इतिहासकारों की बेरूखी का शिकार नूरजहां के बारे में अगर बस एक लाइन कही जाए तो इतना कहेंगे कि छह महान मुग़लों और एक मुग़लिया रानी ने दुनिया भर में सल्तनत का परचम लहराया. और वो रानी कोई और नहीं, नूरजहां थी.
16 साल तक उसने जहांगीर के नाम पर हिंदुस्तान की गद्दी संभाली. पुरूषों से भरे समाज में जहां महिलाएं पर्दे में रहा करती थीं, उन्हें नुमाइश की चीज से ज्यादा कभी कुछ समझा नहीं गया.. वहां एक औरत का देश संभालना इतना आसान नहीं था
प्यार की राह ने बदल दी नूरजहां की किस्मत!
बात तब की है जब दिल्ली के तख्त पर अकबर की बादशाहत थी. ईरान का ग्यास्बेग अपनी बेगम और दो बेटों के साथ दिल्ली की ओर रवाना हुआ, ये सोचकर कि शायद यहां कोई ठौर ठिकाना मिल जाए. रास्ते में कंधार में बेगम ने एक बेटी को भी जन्म दिया हालांकि ग्यास्बेग उस बच्ची को अपने साथ ले जाने के मूड में नहीं था तभी एक राहगीर ने उन्हें सलाह दी कि अपनी औलाद वो भी बेटी के साथ ऐसा ना करे. उस राहगीर की बात मान ग्यास्बेग अपने परिवार को लेकर दिल्ली आ गया.
कुछ ही दिनों में अकबर के दरबार में ग्यास्बेग को नौकरी मिल गई. दिन अच्छे गुजरने लगे. परिवार सम्हल गया और वो बच्ची जिसे ग्यास्बेग फेंक आने वाला था उनका नाम रखा गया मेहरुन्निसा. बेहद खूबसूरत, जादुई आवाज की मालिक मेहरुन्निसा अकबर के बेटे सलीम यानी जहांगीर का दिल आ गया.
अकबर नहीं चाहते थे कि एक नौकर की बेटी उनके बेटे की दुल्हन बने इसलिए ग्यास्बेग को आदेश दिया गया कि वह अपनी बेटी की शादी दिल्ली से कहीं बहुत दूर कर दे. अपने राजा का हुक्म मानकर ग्यास्बेग ने मेहरुन्निसा का निकाह शेर अफ़ग़ान से करवा दिया, अकबर ने वर्धवान की जागीर तोहफे में दे दी. लेकिन कहते हैं ना कि इश्क इतनी आसानी से कहां मरता है.
अपने परिवार को बनाया मुगलों का खास
जहांगीर जब दिल्ली के तख्त पर बैठे तो उन्होंने शेर अफ़ग़ान की हत्या करवा दी. हालांकि इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं पर इतिहास की किताबें तो यही कहती हैं कि यह अधूरे इश्क की सजा थी. इस हत्या के बाद जहांगीर ने मेहरुन्निसा को दिल्ली वापस बुलाकर 25 मई, 1611 को उससे निकाह कर लिया. निकाह के बाद मेहरुन्निसा को नाम दिया गया. नूरजहां यानि संसार की ज्योति. इस नाम के साथ ही नूरजहां के जीवन में उजाला हो गया. 1616 में लंदन से भारत आने वाले ब्रिटिश अफ़सर थॉमस रो ने जहांगीर के शासनकाल को तीन साल तक नज़दीकी से देखा. उन्होंने नूरजहां को भी परखा. उन्होंने अपने नोट में लिखा है कि 1620 के आसपास जहांगीर शराब और अफ़ीम की लत के चलते दमे का रोगी हो गए.
तख्त संभालना मुश्किल हो गया तब नूरजहां ही थीं, जिसने सब थाम रखा था. मल्लिका-ए-हिंदुस्तान बनने के बाद महज एक साल में नूरजहां ने ईरान से आए अपने परिवार को मुगलों को सबसे करीबी बना दिया. इसके लिए उसने 1612 में अपने भाई असफ़ ख़ान की बेटी अर्जुमंद बानो जिसे मुमताज महल के नाम से जाना जाता है, का निकाह शाहजहां से करवाया. अपनी पहली शादी से नूरजहां की एक बेटी थी, जिसका नाम लाड़ली बेगम था.
1620 में नूरजहां ने लाड़ली बेगम का निकाह जहांगीर के चौथे बेटे शहरयार से करवाया. यानि कल की मां बेटी आगे चलकर सास-बहू बन गई. जहांगीर ख़ुद अपने बेटे की बारात लेकर नूरजहां के मायके गया था. अकबर के काल में काबुल के दीवान रहे नूरजहां के पिता को एतमाउद्दौला का ख़िताब दिलवाया गया. ये भी नूरजहां की ही पहल थी. इतना ही नहीं 1625 में उसने अपने भाई असफ़ ख़ान को लाहौर का गवर्नर नियुक्त करवाया.
बाद में उसे शाहजहां का मुख्यमंत्री बनवाया और उसके बेटे शाइश्ता ख़ान को औरंगज़ेब का मुख्य सलाहकार बनवा दिया. ये सारा खेल 70 सालों का था. विडंबना देखिए कि मुग़लकाल के दो सबसे खूबसूरत मक़बरे किसी मुग़ल के नहीं बल्कि ईरान से आये इस परिवार के लोगों के हैं- एक, नूरजहां के वालिद एत्मादुदौला का और दूसरा उसकी भतीजी मुमताज महल का. एत्मादुदौला का मक़बरा नूरजहां ने बनवाया था और ताजमहल इसी मक़बरे की तर्ज़ पर बना है.
फिर शुरू हुई असली राजनीति
ख़ुर्रम जिसे शाहजहां के नाम से जाना जाता था, वह जहांगीर का सबसे काबिल बेटा था. वह हर तरह से तख्त का सही हकदार था लेकिन वह जहांगीर का बेटा था ना कि नूरजहां का. ये बात और है कि जहांगीर को नूरजहां ने मनाया था कि वह शाहजहां को दक्कन की जंग के लिए भेजे.
जब शाहजहां ने दक्कन में अपनी जीत का परचम लहराया तब जहांगीर ने उसका सिंहासन अपने बगल में लगवा लिया. पर क्या वाकई नूरजहां यही चाहती थी? नहीं, असल में नूरजहां अपनी बेटी को अपने बाद मल्लिका-ए-हिंदुस्तान बनते देखना चाहती थी.
इसके लिए जरूरी था जहांगीर के दूसरे बेटे और अपने दामाद शहरयार का तख्त पर काबिज होना. 1620 में जब शाहजहां लाहौर में था तो दक्कन में दोबारा विद्रोह उठ गया. नूरजहां ने जहांगीर को एक बार फिर से शाहजहां को दक्कत भेजने का सुझाव दिया.
जब यह आदेश शाहजहां के पास पहुंचा तो उसने मानने से इंकार कर दिया. असल में शाहजहां दक्कन की चढाई बरसात गुरजने के बाद करना चाहता था पर नूरजहां ने इसके पहले ही जहांगीर को यह समझा दिया कि शाहजहां बगावत के मूड में हैं..
जहांगीर ने कभी भी नूरजहां की नियत पर शक नहीं किया था, इसलिए उसकी बात मान वह अपने बेटे के खिलाफ ही जंग के लिए लाहौर पहुंच गया. अपनी जीत पक्की करने के लिए नूरजहां ने अपने धुर विरोधी मुग़ल सेनापति महाबत ख़ान से हाथ मिला लिया.
उधर, शाहजहां ने दक्कन में अपने दुश्मन मलिक अम्बर, उदयपुर के राणा करण सिंह और असफ़ ख़ान (नूरजहां का भाई और उसका ससुर) को अपनी ओर कर लिया. यानी बहन और भाई अब मुग़लों को मोहरा मानकर शह और मात का खेल खेल रहे थे. जहांगीर अपनी पिता और मुगल सेना की ताकत से परिचित था इसलिए दोनों के बीच संधि हो गई. लेकिन संधि की शर्त में नूरजहां ने जहांगीर के दोनों बेटों औरंगज़ेब और दारा शिकोह को आगरा दरबार में बुलवा लिया.
जब खत्म हुआ सारा चक्रव्यूह
नूरजहां ने ये सारा चक्रव्यूह अपने परिवार, भाई और दामाद को सत्तापरस्त बनाने के लिए रचा था. जब तक शाहजहां आगरा से दूर था जब तक नूरजहां ने जहांगीर की कई रियासतें, संपत्तियां शहरयार के नाम करवा ली थीं. इसी बीच जहांगीर के दूसरे बेटे परवेज़ की मौत हो गई.
वह अब निश्चिंत थी कि शहरयार के बादशाह बनने में सारे रोड़े हट गए हैं. पर ऐसा न हो सका. राजौरी में जहांगीर की मौत हो गई. यह वो वक्त था जब तख्त पर ना तो शाहजहां था ना ही शहरयार. शाहजहां दक्कन में ताकत का लोहा मनवा रहा था और शहरयार लाहौर में काबिज था. पिता की मौत के बाद शहरयार ने खुद को लाहौर में ही सम्राट घोषित करवा कर संपत्ति पर कब्जा कर लिया. लेकिन शाही सेना के ज़्यादातर सिपहसलार शाहजहां की तरफ थे.
इसलिए जंग होना तय थी. लाहौर से 15 किलोमीटर दूर दोनों खेमों में कई दिनों तक खूनखराब चला. शाही सेना की कमान असफ़ ख़ान हाथ थी, जिसके सामने शहरयार ने हथियार डाल दिए. अब शाहजहां हिंदुस्तान का नया मुगल बादशाह बना और उसने शहरयार को कैद करवा कर मौत की सजा दे दी.
शहरयार की मौत के साथ ही नूरजहां का सपना ध्वस्त हो गया. शाहजहां ने अपनी सौतेली मां से कोई दुश्मनी नहीं निभाई ना ही कोई सजा दी. ऐसा लगता है कि वह जानता था कि पिता और दामाद को खोने के गम से ज्यादा सख्त और कोई सजा नूरजहां के लिए बनी ही नहीं थी.
बिना किसी बदसलूकी के शाहजहां ने नूरजहां को उनके कहने पर लाहौर भेज दिया. नूरजहां की आखिरी ख्वाहिश थी कि उनकी कब्र जहांगीर के बगल में हो…नूरजहां ने अपनी जिंदगी के आखिरी दिन लाड़ली बेगम के साथ लाहौर में गुजारे. उनके पास सिर छिपाने के लिए जगह थी और जहांगीर की यादें…वह इकलौती मुगलिया रानी थी, जिसके नाम से सिक्के चलवाए गए थे.
इतिहास में नूरजहां की खूबसूरती के चर्चे लिखे गए हैं पर ये जो पूरा खेल था वो केवल उसकी शातिर सोच का नतीजा था. यह वही बच्ची थी, जिसे उसके माता-पिता लावारिस छोड़ आने वाले थे… सोचिए अगर उस रोज वो हुआ होता… तो भारत और मुगलों का इतिहास ही कुछ और होता!