Opinion: मुझे माफ करना प्यारे जोशीमठ! तेरे इन आंसुओं का मेरे पास कोई इलाज नहीं

Joshimath News : देवभूमि उत्तराखंड के जोशीमठ में जमीन फट रही है। जगह-जगह से दरारें आ रही हैं। नवभारत टाइम्स ऑनलाइन के वरिष्ठ साथी राकेश परमार मौके पर पहुंचे तो मुआयने में जमीन से ज्यादा चौड़ी दरारें वहां के लोगों के सीने में दिखीं। लोगों का कलेजा फट रहा है, अपनी गाढ़ी मेहनत से बने मकानों को यूं फटता देखकर।

फिल्म ‘आनंद’ की शुरुआत में एक भावुक सीन है। डॉक्टर भास्कर बनर्जी का रोल निभा रहे अमिताभ बच्चन लोगों को गरीबी से दम तोड़ते देख रहे हैं। बेबसी और झल्लाहट के सिवा उनके पास कुछ नहीं है। डॉक्टर होते हुए भी वह लोगों को बचा नहीं पा रहे हैं। सिस्टम उनकी पहुंच में नहीं है। झल्लाहट से भरा उनका डायलॉग है- मैं रोग से लड़ सकता था, भूख और गरीबी से कैसे लड़ता? जिस जंग के लिए मैं मैदान में उतरा था, उस जंग के हथियार मेरे पास नहीं थे।

पिछले डेढ़ दिन से जोशीमठ में हूं। दरारें और दर्द इतना ज्यादा है कि यह बेबसी बार-बार महसूस कर रहा हूं। खुद को भास्कर वाली स्थिति में पा रहा हूं। एक पत्रकार के तौर पर आपके हाथ में है क्या? एक माइक या फिर एक पेन! आप ज्यादा से ज्यादा क्या कर लेंगे? खबर लिख लेंगे या उसे दिखा देंगे। सबकुछ ठीक हो जाने की एक झूठी सी सांत्वना जता देंगे। बस! इतना ही। आपके हाथ में कुछ नहीं है। इस जंग के सही हथियार मेरे पास नहीं हैं। सीएम, डीएम, एडीएम, एसडीएम… नहीं हैं आप, जो उनके घावों पर तुरंत मरहम लगा दें। मेरे जरिए शायद इन तक उनका दर्द पहुंच जाए, बस यह धुंधलकी सी उम्मीद है उनके पास। अपनी इस बेबसी पर कई बार झल्लाहट और कोफ्त होती है। साथ ही सिस्टम पर, जो अभी तक सोया हुआ था।

मनोहर बाग, सिंहधार, घिरसी… हर जगह पुरुष खुद को किसी तरह संभाले हुए हैं, लेकिन महिलाएं टूट जा रही हैं। दरारों से दरक रहे जोशीमठ के मोहल्लों में घुसते ही हर कोई आपको अपने घर में खींच ले जाना चाहता है। वे पहले आंगन की दरार दिखाती हैं। फिर बरामदे में आर-पार दिख रही दरार दिखाते-दिखाते आंसुओं में भीग जाती हैं। इसके बाद किचन की दरारें दिखाने लगती हैं। मैं बस उनके आंसुओं को और घर की दरारों को दर्ज कर आगे बढ़ जाता हूं। एक घर से निकलने से पहले ही गेट पर नीचे के मकान की कोई महिला मेरा इंतजार करती खड़ी दिखती है कि कहीं मैं उनका घर देखे बिना चला न जाऊं।

यह सिलसिला सुबह से अंधेरा होने तक पूरे दिन चलता रहता है। मैं एक-एक कर सभी घर की दरारों को दर्ज करता हूं। कुछ तो सिर्फ इसलिए भी कि उनकी उम्मीदें जिंदा रहें। और कर भी क्या सकता हूं मैं। क्या मैं कोई डॉक्टर हूं, जो उनके मर्ज को ठीक कर दूंगा? क्या मैं मिस्त्री हूं, जो उनके दरक रहे मकानों की दरारों को हमेशा के लिए भर दूंगा? कई बार भास्कर वाली बेबसी और झल्लाहट दिमाग में तैरने लगती है।

सिंहधार के पास के सबसे गरीब इलाके घिरसी के पुष्कर लाल मुझे लेने पहुंचे हैं। किसी वजह से नहीं जा पाता हूं तो अगली सुबह फिर आ जाते हैं। बस इसलिए कि मैं उनके घर की दरक रही दीवारों को देख लूं। मुख्यमंत्री हूं क्या मैं? क्या कर लूंगा मैं देखकर? जिन्हें देखना चाहिए, वो आंखें बंद किए हुए हैं। उम्मीदों के बोझ तले दब जाता हूं। घिरसी में जिस भी घर में गया, वहां हर महिला रोते हुए मिली। प्रशासन ने तुरंत ही घर खाली करने को बोला है। अंधेरा होते-होते सभी घरों में ताला लगाकर कुछ गर्म कपड़े लेकर रैन बसेरों का रुख कर रहे हैं। कभी इन दरक रहे घरों में लौट भी पाएंगे क्या? यह सवाल लिए महिलाएं-बच्चियां रो रही हैं। इस दौरान कई बार खुद को संभालते-संभालते मैं भी टूट जाता हूं। गला रुंध जाता है। सवाल खो जाते हैं। पूछते नहीं बन रहा। क्या पूछूं? बस माइक आगे कर देता हूं।

जोशीमठ के लोगों का दर्द और एक पत्रकार की बेबसी।