OPINION: दूसरे कार्यकाल में कुंद हो गई धार, आखिर 2019 के बाद ‘इतनी उदार’ क्यों हो गई मोदी सरकार?

बीजेपी के विरोधियों ने हमेशा इस पार्टी के ऊपर धर्म की राजनीति करने का आरोप लगाया। बीजेपी को खास वर्ग की पार्टी बताया। अब ऐसा लगता है कि पार्टी ने सत्तावादी, अलोकतांत्रिक और अनुदार होने के कुछ बुनियादी आरोपों को अपने अंदर समाहित कर लिया है। ऐसा लगता है कि इन आरोपों ने भाजपा को उन पर विश्वास करने के लिए मजबूर कर दिया है।

 

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नई दिल्ली: बीजेपी के हालिया कुछ फैसलों के बाद राजनीतिक पंडितों के अंदर भी बेचैनी है। बेचैनी इस बात को लेकर है कि कैसे इस पार्टी का ट्रैक बदलता रहा है। प्रधानमंत्री मोदी की छवि एक बोल्ड नेता जो बिना किसी डर के बड़े फैसला लेता है इस तरह की है। 2014 लोकसभा चुनाव से पहले इसी छवि और गुजरात मॉडल को लेकर देश में मोदी नाम की ऐसी सुनामी बही की विरोधी कहां सिमट गए पता ही नहीं चला। चाहे कोई कुछ भी कहे मगर सच्चाई यही थी कि पीएम मोदी की तेजतर्रार नेता की छवि के कारण ही जनता ने उनको दिल खोलकर वोट किया था। उसका असर भी दिखाई दिया। मोदी सरकार पार्ट 1 में बड़े-बड़े फैसले लिए गए। लेकिन 2019 आते-आते ऐसा क्या हो क्या कि ये पार्टी अपनी प्रकृति के विपरीत चली गई। इसका नतीजा ये हुआ कि बीजेपी की सहयोगी पार्टियां बीजेपी से ही बार्गनिंग करने लगी। बिहार में बीजेपी के साथ जो हुआ ये एक नया अध्याय है। ज़रा धैर्य के साथ पूरी बात समझिए।

राजनीति के इतिहास की प्रमुख घटनाएं
राजनीतिक इतिहास में कुछ घटनाएं हमेशा किस्सों के रूप में जानी जाती हैं। दशकों तक उनकी चर्चाएं होती हैं। आजादी के बाद दो घटनाएं हमेशा राजनीतिक पंडितों के लिए पहेली बनी रहीं। सबसे पहले 1975 के आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार बनना और दूसरी घटना 2014 का लोकसभा चुनाव। पहली वाली घटना के बारे में हम चर्चा फिर कभी करेंगे लेकिन अभी मौजू है 2014 में नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना। 1999 से लेकर 2004 तक एनडीए की सरकार रही और उसके बाद 10 साल तक बीजेपी के लिए सूखा रहा। बीजेपी संघर्ष करती रही मगर सफलता हासिल नहीं हुई। 2014 से पहले पार्टी के भीतर आवाज उठी और तत्कालीन गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को पीएम पद का चेहरा बनाया गया। उसके बाद बीजेपी अकेले दम पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। मोदी पार्ट-1 यहीं से शुरू हुआ।

विरोधियों से बचने के लिए बैकफुट में बीजेपी
बीजेपी के विरोधियों ने हमेशा इस पार्टी के ऊपर धर्म की राजनीति करने का आरोप लगाया। बीजेपी को खास वर्ग की पार्टी बताया। अब ऐसा लगता है कि पार्टी ने सत्तावादी, अलोकतांत्रिक और अनुदार होने के कुछ बुनियादी आरोपों को अपने अंदर समाहित कर लिया है। ऐसा लगता है कि इन आरोपों ने भाजपा को उन पर विश्वास करने के लिए मजबूर कर दिया है। इतना ही नहीं, या तो वाम-उदारवादी मीडिया जो लगातार कह रहा है या अपनी गिरती वैश्विक छवि के बारे में आशंका से पिछले दो वर्षों में भाजपा अपनी उदार साख में सुधार करने के लिए एक तेज गति से आगे बढ़ रही है। इस बात का थोड़ा सा भी एहसास नहीं है कि जितना अधिक वह पीछे की ओर झुक रही है उतना ही वह अपने राजनीतिक-वैचारिक विरोधियों को सही साबित कर रही है।

मोदी सरकार पार्ट-2 का अलग रवैया
पिछली बार बीजेपी ने अगस्त 2019 में सत्ताधारी पार्टी की तरह व्यवहार किया था। मोदी सरकार पार्ट-1 में ऐसे-ऐसे फैसले लिए गए जो लगता था कि ये असंभव है। कश्मीर से धारा-370 को हटाना, तीन तलाक बैन, नोटबंदी, जीएसटी ये सारे फैसले बड़े थे। पीएम मोदी ने अपने स्वभाव के अनुरूप काम किया उसका नतीजा ये हुआ कि कुछ गलत फैसलों के बावजूद 2019 में बीजेपी फिर से सत्ता पर काबिज हुई। पहले से और मजबूती के साथ। लेकिन 2019 के बाद से लगातार बीजेपी बैकफुट पर नजर आ रही है। सीएए और शाहीन बाग से लेकर कृषि कानूनों और चुनाव के बाद बंगाल तक के मुद्दों पर यू-टर्न की एक लंबी श्रृंखला रही है।

बीजेपी के सामने एक तरफ कुआं खाई
कश्मीर में भी बीजेपी एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई जैसी स्थिति में है। अनुच्छेद 370 तो हटा दिया मगर अब क्या? विधानसभा चुनाव पर कोई फैसला नहीं, लगातार कश्मीर में आतंकी मारे जा रहे हैं मगर अब टारगेट किलिंग शुरू हो गई। कश्मीरी पंडित वहां से भाग रहे हैं मगर कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया। मतलब अगर कहा जाए तो मोदी 1.0 की ताकत हुआ करती थी राजनीति। यह अब इनकी सबसे कमजोर कड़ी बन गया है। मोदी 2.0 में चमकने वाली दो चीजें पूरी तरह से गैर-राजनीतिक प्रकृति की हैं। पहली है कोविड -19 महामारी से निपटना और विदेशी मामलों का प्रबंधन, जिसमें मौजूदा यूक्रेन युद्ध भी शामिल है।

क्यों बनाया नीतीश को सीएम
बिहार बीजेपी की सियासी घमासान का ताजा मामला है। देखते ही देखते ही बीजेपी को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। पार्टी फिर से अपने राजनीतिक सहयोगियों के साथ उदारवादी बनने के लिए बार-बार उनके सामने गिरती रही। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव परिणामों के तुरंत बाद नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जनता दल (यूनाइटेड) के साथ एक अति-सतर्क रवैया अपनाया। चुनावों से पहले नीतीश कुमार ने जद (यू) को 115 सीटें देने के लिए भगवा पार्टी को मना लिया। जिसमें से वह सिर्फ 43 सीटें जीत सकी। दूसरी ओर भाजपा ने 110 में से 74 सीटों जीत हासिल की। यहां से एक बात तो साफ हो गई थी कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के साथ अगर पार्टी अकेले चुनाव लड़ती तो शायद अकेले दम सरकार बना सकती थी। केवल 43 पार्टी विधायकों के साथ नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने, जबकि लगभग दोगुनी ताकत वाली भाजपा किंगमेकर बनकर खुश थी।

बिहार चुनाव के बाद बीजेपी की नासमझी
परिणामों के बाद नीतीश कुमार खुश नहीं थे और उन्होंने सोचा कि कम से कम एक दर्जन सीटों पर जद (यू) की चुनावी संभावनाओं को चोट पहुंचाने के लिए भाजपा ने चिराग पासवान के साथ हाथ मिलाया था। उन्होंने मौके की नजाकर को परखते हुए विनम्रता दिखाई क्योंकि तब गठबंधन नहीं छोड़ सकते थे। उन्हें पहले से ही पलटू कुमार का उपनाम मिल रहा था। बीजेपी ने कमजोर नीतीश को घेरने की बजाय गठबंधन की राजनीति के नियम कायदे पढ़कर पृथ्वीराज चौहान मोड में चली गई। जबकि ये तय था की नीतीश कुमार तय वक्त पर पलटी मारेंगे मगर आश्चर्य ये है कि बीजेपी ये कैसे नहीं देख पाई। यह है कि भगवा पार्टी ने इसे स्पष्ट रूप से देखा लेकिन दूसरी तरफ देखने का नाटक किया?

भाजपा लड़खड़ा गई
यह पहली बार नहीं है जब भाजपा अपने सहयोगियों से निपटने में लड़खड़ा गई है। शिवसेना से लेकर अकाली दल तक इनकी लंबी फेहरिस्त है और हर बार भगवा पार्टी धोखा खाकर सामने आती है. लेकिन कब तक और कितनी बार? मिन्हाज मर्चेंट सहित कई राजनीतिक टिप्पणीकार हैं, जो सहयोगी दलों को साथ ले जाने में विफल रहने के लिए भाजपा को दोषी ठहराते हैं। मंगलवार को अपने ट्वीट में, मर्चेंट ने लिखा, “बीजेपी नीतीश कुमार द्वारा दिए गए कड़े थप्पड़ की हकदार है। मोदी-शाह ने लंबे समय से एनडीए के सहयोगियों को हल्के में लिया है, जिसकी शुरुआत नायडू से हुई, फिर बादल, सेना और अब जद (यू) से हुई। सालों से एनडीए की कोई बैठक नहीं हुई।

महाराष्ट्र में फडणवीस का डिमोशन
महाराष्ट्र में जब बीजेपी ने एकनाथ शिंदे को सीएम बनाने का फैसला किया तो बीजेपी कार्यकर्ता से लेकर हर कोई हैरान रह गया। पूर्व सीएम महाराष्ट्र में बीजेपी का चेहरा देवेंद्र फडणवीस को खुद एक घंटे पहले पता चला कि उनको डेप्युटी सीएम का पद संभालना है। हैरत की बात है कि उन्होंने मुश्किल से घंटे भर पहले साफ कर दिया था कि वो सरकार में कोई पद नहीं लेंगे। बीजेपी आलाकमान नेताओं या फिर पीएम मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने महाराष्ट्र की राजनीति में बीजेपी के कदम बढ़ाने के लिए ये फैसला किया हो। इससे भी बड़ी हैरत की बात है कि बीजेपी के इतिहास में पहली बार पार्टी अध्यक्ष ने एक बड़े राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री के कद के नेता को सार्वजनिक मंच से आदेश देता है। सोचिए, फडणवीस ही नहीं, महाराष्ट्र बीजेपी के अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं पर क्या असर हुआ होगा? शिंदे को सीएम बनाने को जो लोग बीजेपी का मास्टर स्ट्रोक बताते हैं, वही फडणवीस को उनका डेप्युटी बनाने का निर्णय समझ से परे बता रहे हैं।

नीतीश की ये पुरानी आदत
अब जरा अतीत की बात कर लेते हैं। नीतीश कुमार का राजनीति में आगमन जेपी आंदोलन से हुआ। 1999 में एनडीए की सरकार बनी। अटल बिहारी वाजपेयी पीएम बने। जॉर्ज फर्नांडीस ने 1994 में नीतीश कुमार समेत कुल 14 सांसदों के साथ जनता दल से नाता तोड़कर जनता दल (जॉर्ज) बनाया जिसका नाम अक्टूबर 1994 में समता पार्टी पड़ा। 1995 में समता पार्टी अपने दम पर बिहार विधानसभा चुनाव लड़ी लेकिन लालू के सामने समता पार्टी फिसड्डी साबित हुई उसे सिर्फ 7 सीटें ही मिलीं। लेकिन दोनों वक्त को भांप गए थे। फिर जॉर्ज ने 1996 में बीजेपी के साथ गठबंधन के लिए हाथ बढ़ाया। उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी। सब सहयोगियों को सरकार में शामिल किया गया तब वाजपेयी ने जॉर्ज को रक्षा मंत्री बनाया था। 1996 में हुए लोकसभा चुनाव में समता पार्टी को 8 सीट मिलीं, वहीं 1998 में 12 सीट।

जॉर्ज फर्नांडिस के साथ क्या हुआ
जॉर्ज रक्षा मंत्री के तौर पर कभी सियाचिन में तो कभी दिल्ली की हवा में थे लेकिन इस दौर में नीतीश कुमार बिहार में अपनी जमीन मजबूत करते रहे थे। क्या पता था कि नीतीश कुमार अपनी जमीन तैयार करने के साथ फर्नांडिस की जमीन बंजर कर देंगे। ये जॉर्ज का ही साथ था कि नीतीश कुमार 2003 में बीजेपी से गठबंधन तोड़कर जनता दल यूनाइटेड बना सके. और देखते देखते जॉर्ज फर्नांडिस की छवि ने नीतीश को 2005 में बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया। लेकिन 2007 में ऐसा वक्त आया जब नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडिस को ही पार्टी अध्यक्ष पद से हटा दिया और शरद यादव को जेडीयू का अध्यक्ष बना दिया। यहीं से जॉर्ज राजनीति में किनारे होने लगे। जिस पार्टी को जॉर्ज ने बनाया था उसी पार्टी में अध्यक्ष का चुनाव वो अप्रैल 2006 में शरद यादव के हाथों हार गए।