मुफ्त की योजनाओं को भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए त्रासदी बताते हुए केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से इसके खिलाफ गाइडलाइंस जारी करने की मांग की है। एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान केंद्र ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट से कहा कि जबतक इसे लेकर कानून बनता है तबतक वह अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर गाइडलाइंस जारी करे।
नई दिल्ली : राजनीतिक दलों के लोकलुभावन वादे और सरकारों की मुफ्त वाली योजनाएं अगर यूं ही चलती रहीं तो भारतीय अर्थव्यवस्था जल्द ही इस दलदल में फंस सकती है। यही वजह है कि केंद्र सरकार ने मुफ्त की रेवड़ियों पर लगाम के लिए सुप्रीम कोर्ट से अपना ब्रह्मास्त्र चलाने की गुहार लगाई है। केंद्र ने शीर्ष अदालत से कहा है कि जबतक मुफ्त की योजनाओं पर रोक के लिए संसद में कोई कानून बनता है तबतक कोर्ट संविधान में मिले अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए इसे लेकर गाइडलाइंस जारी करे। सरकार ने साथ में चेतावनी भी दी कि कुछ राजनीतिक पार्टियां चुनाव में मुफ्त वाली लोकलुभावन वादों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर रही हैं जो देश को आर्थिक त्रासदी की तरफ ढकेल रहा है।
केंद्र सरकार ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में कहा कि चुनाव लड़ने के लिए ‘मुफ्त उपहार संस्कृति’ को ‘चरम’ के स्तर तक बढ़ा दिया गया है। अगर कुछ राजनीतिक दल यह समझते हैं कि जन कल्याणकारी उपायों को लागू करने का यही एकमात्र तरीका है तो यह ‘त्रासदी’ की ओर ले जाएगा। तीन अगस्त के आदेश के जवाब में केंद्र सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि जबतक विधायिका या निर्वाचन आयोग कोई कदम नहीं उठाता, तबतक शीर्ष अदालत को ‘व्यापक राष्ट्रीय हित’ में यह दिशानिर्देश जारी करना चाहिए कि राजनीतिक दलों को “क्या करना है, क्या नहीं।”
सरकार ने चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों की तरफ से किए गए मुफ्त के लोकलुभावन वादों के मुद्दे की समीक्षा के लिए एक एक्सपर्ट पैनल की स्थापना पर सीजेआई एन. वी. रमण की अध्यक्षता वाली बेंच के सामने अपनी सिफारिशें पेश कीं। मेहता ने कहा, ‘हाल ही में कुछ पार्टियों की तरफ से मुफ्त उपहारों के वितरण के आधार पर चुनाव लड़ा जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के चुनावी परिप्रेक्ष्य में कुछ दल समझते हैं कि मुफ्त उपहारों का वितरण ही समाज के लिए ‘कल्याणकारी उपायों’ का एकमात्र तरीका है। यह समझ पूरी तरह से अवैज्ञानिक है और इससे आर्थिक त्रासदी आएगी।’
सरकार ने राय दी कि केंद्रीय वित्त सचिव, राज्यों के वित्त सचिवों, मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के एक-एक प्रतिनिधि, 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष, भारतीय रिजर्व बैंक के एक प्रतिनिधि और नीति आयोग के सीईओ को प्रस्तावित पैनल का हिस्सा बनाया जा सकता है। केंद्र ने कहा कि पैनल में राष्ट्रीय करदाता संगठन के एक प्रतिनिधि या भारत के पूर्व नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को शामिल किया जा सकता है। मेहता ने कहा कि फिक्की और सीआईआई जैसे वाणिज्यिक संगठनों के प्रतिनिधियों और बिजली क्षेत्र की वितरण कंपनियों के प्रतिनिधियों को भी इस समिति का सदस्य बनाया जा सकता है।
शीर्ष अदालत वकील अश्विनी उपाध्याय की तरफ से दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें चुनाव के दौरान मुफ्त उपहार का वादा करने वाले राजनीतिक दलों को इससे रोकने और चुनाव आयोग से उनके चुनाव चिह्नों को छीन लेने और उनका पंजीकरण रद्द करने के लिए अपनी शक्तियों के इस्तेमाल की मांग की गई है। शीर्ष अदालत ने तीन अगस्त को केंद्र, नीति आयोग और वित्त आयोग जैसे हितधारकों को मुफ्त के मुद्दे पर विचार-मंथन करने के लिए कहते हुए संकेत दिया था कि वह इस मुद्दे से निपटने के लिए सरकार को उपाय सुझाने के वास्ते एक तंत्र स्थापित करने का आदेश दे सकती है।
अनाप-शनाप मुफ्त सौगातें बांटने का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई जनहित याचिका में जो आंकड़े दिए गए हैं, वे आंखें खोलने वाले हैं। याचिका में कहा गया है कि 31 मार्च, 2021 को राज्यों पर 59,89,360 करोड़ रुपये की देनदारी थी और गैर-जरूरी मुफ्त सुविधाओं पर बढ़ता खर्च एक नया खतरा बन गया है। याचिकाकर्ता ने कहा कि उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र पर क्रमशः 6,62,891 करोड़ रुपये और 5,36,891 करोड़ रुपये की देनदारी हैं और वे इस मामले में शीर्ष पर हैं। वहीं पंजाब ऋण एवं सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) अनुपात में सबसे ऊपर है।
सीजेआई एन. वी. रमण की अध्यक्षता वाली बेंच के सामने याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय की तरफ दायर लिखित दलील में दावा किया गया है कि 2,49,187 करोड़ रुपये की देनदारी के साथ, पंजाब में चालू वित्त वर्ष में कर्ज एवं जीएसडीपी अनुपात सबसे खराब 53:3 है। सर्वोच्च न्यायालय में दायर इस याचिका में चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों की तरफ से मुफ्त सौगातों का वादा करने के चलन का विरोध करने के साथ ही निर्वाचन आयोग से ऐसे राजनीतिक दलों के चुनाव चिह्नों पर रोक लगाने तथा उनका पंजीकरण रद्द करने के लिए अपनी शक्तियों का उपयोग करने का अनुरोध किया गया है।
बेंच ने केंद्र, नीति आयोग और वित्त आयोग जैसे पक्षों के विचार मांगे हैं और उनसे मुफ्त सुविधाओं के मुद्दे पर विचार करने को कहा है। न्यायालय ने संकेत दिया था कि वह इस मुद्दे से निपटने के लिए सरकार को उपाय सुझाने की खातिर एक प्रणाली स्थापित करने का आदेश दे सकता है। उपाध्याय ने वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया और वकील अश्विनी कुमार दुबे के जरिए सुझावों के साथ लिखित दलील दी है। दलीलों में भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट का भी हवाला दिया गया है।