कुल्लू, 5 अक्तूबर : भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) बुधवार को अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा (International Kullu Dussehra) महोत्सव में भगवान श्री रघुनाथ जी की रथयात्रा के गवाह बने हैं। हालांकि, दशहरा महोत्सव का इतिहास 16वीं सदी से जुड़ा हुआ है। ऐसी धारणा है कि 1660 ईस्वी में पहली बार मेले की शुरूआत की गई थी। लेकिन आजाद भारत में ये पहला मौका है, जब कोई प्रधानमंत्री इस मेले के गवाह बने हों।
प्रधानमंत्री करीब 3ः20 बजे मैदान में पहुंचे। पहुंचते ही सबसे पहले जन अभिनंदन किया। विशेष मंच पर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने हिमाचली टोपी पहनाकर मोदी का इस्तकबाल किया। इसके अलावा भगवान राम के परिवार की खूबसूरत तस्वीर भेंट की
मंच पर राज्यपाल भी मौजूद रहे। लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक कुल्लू दशहरा के इतिहास में नरेंद्र मोदी का नाम भी जुड़ गया है, क्योंकि वो पहले प्रधानमंत्री हैं, जो इसके गवाह बने है। भगवान रघुनाथ के सेवक महेश्वर सिंह ने मंगलवार को इस बात का जिक्र किया था कि प्रदेश प्रभारी रहने के दौरान भी नरेंद्र मोदी इस महोत्सव को लेकर खासे उत्साहित हुआ करते थे।
तकरीबन 3ः36 पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंच से नीचे उतरकर भगवान रघुनाथ जी की पालकी पर शीश नवाजने पहुंच गए। सुरक्षा को पीछे छोड़ प्रधानमंत्री की तस्वीर क्लिक करने को बड़ी संख्या में लोग बेताब नजर आ रहे थे। प्रधानमंत्री ने शानदार आयोजन का गवाह बनने के लिए सुरक्षा के घेरे की भी कोई परवाह नहीं की।
ऐसी भी धारणा है कि भगवान रघुनाथ के दर्शन वही कर सकता है, जिसे भगवान की अनुमति मिले।भव्य रथयात्रा शुरू होने के काफी देर बाद तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नमन करते हुए मंच पर ही डटे रहे। जनसैलाब भी भगवान के दर्शन हेतु आतुर था। करीब 40 मिनट का समय व्यतीत करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनसैलाब की तरफ कुछ इशारा भी किया। शायद, वो पूछ रहे थे कि नीचे आ जाऊं।
दीगर है कि जनता के लिए भी प्रधानमंत्री का करीब से अभिनंदन करना भी दुर्लभ ही होगा। प्रधानमंत्री लौटते वक्त भी बार-बार अभिनंदन कर रहे थे, मानो लौटने का मन न हो।
ढालपुर मैदान (Dhalpur Ground) से भव्य रथयात्रा शुरू हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए मैदान से तकरीबन 10 से 30 मीटर दूर अटल सदन (Atal Sadan) में एक अलग मंच बनाया गया था। गौरतलब है कि भव्य रथयात्रा में हिस्सा लेने लगभग 250 देवी-देवता हिस्सा लेने पहुंचे हुए थे। रथयात्रा से पूर्व देवी-देवताओं ने देव परंपरा का निर्वहन करते हुए भगवान रघुनाथ से सुल्तानपुर स्थित मंदिर में मुलाकात कर शीष नवाजा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करीब पौने 3 बजे भुंतर एयरपोर्ट (Bhuntar Airport) पर लैंड हुए थे। भगवान रघुनाथ की भव्य यात्रा में ढोल नगाड़ों की थाप को कड़ी सुरक्षा के बीच ढालपुर मैदान तक लाया गया। दीगर है कि भुवनेश्वरी भेखली माता का इशारा मिलने के बाद रथयात्रा का आगाज होता है। इस साल दशहरा महोत्सव का आयोजन 5 से 11 अक्तूबर तक किया जा रहा है। इस दौरान भगवान के छड़ी बरदार महेश्वर सिंह विधिवत तरीके से सुबह-शाम पूजा-अर्चना करेंगे।
ये है जुड़ा इतिहास….
समृद्ध संस्कृति का परिचायक दशहरा महोत्सव पहली बार 1660 ईस्वी में मनाया गया था। उस समय राजा जगत सिंह का शासन था। कुष्ठ रोग से मुक्ति मिलने पर मेले के आयोजन का निर्णय हुआ था। मेले का निमंत्रण समीपवर्ती रियासतों के देवी-देवताओं को भी दिया गया। ऐसी किदवंती है कि 365 देवी-देवताओं ने शिरकत की थी। धीरे-धीरे ये मेला हर साल आयोजित किया जाने लगा। 21वीं सदी में इसे दशहरा उत्सव के तौर पर मनाया जाने लगा है।
मेले से जुड़ा एक रोचक वर्णन भी मिलता है। राजा जगत सिंह ने 1637 से 1662 तक शासन किया। कुल्लू रियासत की राजधानी नग्गर हुआ करती थी। मणिकर्ण घाटी (Manikarn Valley) के टिप्परी गांव में एक गरीब ब्राह्मण दुर्गा दत्त रहता था। राजा को झूठी सूचना दी गई कि ब्राह्मण के पास डेढ़ किलो सुच्चे मोती हैं, जो राजभवन में होने चाहिए। तुरंत ही ब्राह्मण को राजभवन में बुला लिया गया।
दरअसल, ब्राह्मण के पास सुच्चे मोती नहीं थे। राजा के डर से परिवार ने आत्मदाह कर लिया। इसकी जानकारी मिलने पर राजा जगत सिंह को बेहद ही अफसोस हुआ।
इतिहासकारों की मानें तो इस दोष के कारण राजा को कुष्ठरोग हो गया था। इसके बाद पयोहारी बाबा किशन दास ने सलाह दी कि आयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से रामचंद्र, माता सीता व रामभक्त हनुमान की मूर्ति लाकर कुल्लू के मंदिर में स्थापित करें। साथ ही राजपाट भगवान रघुनाथ को सौंप दें। उसी सूरत में ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति मिलेगी।
जगत सिंह ने श्री रघुनाथ जी की प्रतिमा लाने के लिए बाबा किशन दास के चेले दामोदर दास को अयोध्या भेजा, वो 1651 में श्री रघुनाथ जी और माता सीता की प्रतिमा लेकर मकडाहं पहुंचे। ये भी माना जाता है कि ये मूर्तियां त्रेता युग में भगवान श्री राम के अश्वमेघ यज्ञ के दौरान निर्मित की गई थी।
1653 में रघुनाथ जी की प्रतिमा को मणिकर्ण मंदिर में रखा गया। 1660 में इसे विधि विधान के बाद कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित किया गया। राजा ने तमाम राजपाठ भी भगवान रघुनाथ जी के नाम कर दिया था, तथा खुद उनके छडी बरदार बने हैं।
कुल्लू के 365 देवी-देवताओं ने रघुनाथ जी को अपना इष्ट मान लिया। राजा को कुष्ठ रोग से मुक्ति मिली। कुष्ठ रोग से मुक्ति मिलने के बाद हर साल उत्सव मनाने की परंपरा शुरू हो गई। श्री रघुनाथ जी के सम्मान में ही राजा जगत सिंह ने 1660 में कुल्लू में दशहरे की परंपरा आरंभ की।
ये आयोजन धार्मिक, सांस्कृतिक व व्यापारिक रूप से भी विशेष महत्व रखता है।