इस विरोधाभासी दौर में किसी भी व्यक्ति का मत सबका मत नहीं होता, हर मुद्दा समर्थन और विरोध के बीच बंट जाता है. उस दौर में भी जब किसी इंसान के जाने पर हर शख़्स आंसू बहाये, हर हाथ दुआ में उठ जाए तो समझ लीजिए कि उसने ज़िंदगी में प्रेम कमाया है. हम यहां बात कर रहे हैं हरदिल अज़ीज़ अटल बिहारी वाजपाई की.
संसद में भले ही वो सबसे पीछे बैठते थे, लेकिन इसके बावजूद देश की सबसे बड़ी पार्टी के सबसे बड़े नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहलाल नेहरु उनके वक्तव्य से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाए. अटल जी की पार्टी जन संघ मात्र 6 प्रतिशत वोट पाकर बेहद कमजोर पार्टी थी, लेकिन इसका उनके सशक्त भाषणों और तीखी आलोचनओं पर खभी असर नहीं पड़ा.
जब ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री भारत दौरे पर आए, तो पंडित नेहरु ने अटल जी का परिचय कुछ इस तरह कराया था: “इनसे मिलिए ये विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता हैं. वैसे तो ये मेरी हमेशा आलोचना करते हैं किन्तु मैं भविष्य में इनकी बहुत संभावनाएं देखता हूं.” जब सत्तधीन पार्टी का कोई नेता और देश का प्रधानमंत्री इस तरह से किसी का परिचय करवाए, तो उसकी प्रतिभा का अंदाज़ा हो ही जाता है.
जन्म पर आतिशबाज़ियां छूटी थीं
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अटल जी राजा महाराजा घराने से नहीं थे, लेकिन फिर भी उनके जन्म पर अतिशबाज़ियां छूटी थीं. सन था 1924, तारीख थी 25 दिसंबर, स्थान था मध्यप्रदेश, ग्वालियर का ‘शिंके का बाड़ा मुहल्ला’. सूर्य अभी अपनी कुटिया से पूरी तरह निकला नहीं था, लेकिन किरणों ने रात के अंधरों को समेटना शुरू कर दिया था. हर तरफ़ आतिशबाज़ियां हो रही थीं, घंटों का गगनभेदी स्वर ऐसा जान पड़ रहा था.
ये भले ही क्रिसमस के उपलक्ष में हो रहा हो, लेकिन लग रहा था जैसे कि किसी युगपुरुष के इस धारा पर अवतरित होने की पूर्वसूचना दी जा रही हो. इसी समय पंडित कृष्ण बिहारी जो कि एक शिक्षक थे और कृष्णा देवी के घर उनकी सातवीं संतान के रूप में जन्म हुआ उस बच्चे का, जिसने भारत के सबसे पहले गैर कांग्रेसी नेता के रूप में अपना कार्यकाल पूरा करने का कीर्तिमान स्थापित किया.
बच्चे का नाम रखा गया अटल, अटल बिहारी वाजपेयी. बच्चे ने अपना व्यक्तित्व भी अपने नाम के अनुसार ही गढ़ा. कई कठिनाइयां आयीं, कई बार लगा कि अब आगे रास्ता बंद है किन्तु न उस बच्चे ने अपने जीवन में कभी हार मानी और न कभी रार ठानी. अपने सिद्धांतों से कभी टला नहीं. पिता का व्यवसाय शिक्षण का था इसीलिए समय समय पर स्थानांतरण होते रहे.
अटल जी के पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा के अच्छे वक्ता थे. संस्कृत के अनेक नीति श्लोक, हिंदी के छंद और तुलसी कृत ‘रामचरितमानस की चौपाइयां उन्हें अच्छी तरह कंठस्थ थीं. ये उनके पिता का ही असर था जो वो रामचरितमानस को अपना प्रेरणा स्रोत मानते थे. अटल जी के पिता को कवि-सम्मेलनों में सम्मान सहित आमंत्रित किया जाता था.
वे ‘कवि कृष्ण’ के नाम से कविता पाठ किया करते थे. पिता के सभी गुण पा कर अटल जी का व्यक्तित्व और अधिक निखर कर सामने आया.
जब भाषण को लेकर की प्रतिज्ञा!
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अटल जी की प्रारंभिक शिक्षा बड़नगर के गोरखी विद्यालय से हुई. इनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी इसी स्कूल में अध्यापक थे. बाद में वह इस स्कूल के प्रधान अध्यापक बने. यहीं पर अटल जी ने अपने जीवन का पहला भाषण दिया था. तब वे पांचवीं कक्षा में पढ़ रहे थे. ये अवसर था वार्षिकोत्सव. उनके मन में एक तरह का संकोच था. वजह थी कि सामने हेडमास्टर के रूप में उनके पिता जी बैठे हुए थे.
फिर भी बालमन में कुछ नया करने की इच्छा और एक अलग तरह का डर लिए बाल अटल हिम्मत करते हुए मंच पर चढ़े. तैयारी थी नहीं, नतीजन वे बीच में ही लड़खड़ा गए जिस वजह से उन्हें भाषण बंद करना पड़ा. बड़नगर से आठवीं कक्षा तक पढ़ने के बाद अटल जी आगे की पढ़ाई के लिए ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेजिएट स्कूल चले गए.
यहीं से इन्होंने इंटर पास की तथा इसके बाद विक्टोरिया कॉलेज (अब रानी लक्ष्मीबाई महाविद्यालय) में बी.ए. में दाखिला लिया. बी.ए. में हिंदी साहित्य संस्कृत साहित्य और अंग्रेजी साहित्य उनके विषय थे. कॉलेज जीवन में ही इन्होंने राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना आरम्भ कर दिया था. शुरू में वह ‘छात्र संगठन’ से जुड़े. नारायण राव तरटे ने इन्हें काफ़ी प्रभावित किया, जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख कार्यकर्ता थे.
कॉलेज जीवन में ही अटल जी ने अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरो कर कविताएं रचने का शौक पाला. इनके कॉलेज में अखिल भारतीय स्तर के कवि सम्मेलनों का भी आयोजन होता था. इस कारण से कविता की गहराई समझने में इन्हें काफ़ी मदद मिली. 1943 में वाजपेयी जी कॉलेज यूनियन के सचिव रहे और 1944 में उपाध्यक्ष भी बने. अटल जी ने प्रथम श्रेणी से बी.ए. की परीक्षा पास की.
इन्हीं दिनों ग्वालियर में उन्होंने अपना दूसरा भाषण दिया. वे भाषण रट कर आए थे. जब स्टेज पर भाषण देने पहुंचे तो बीच में ही रटा हुआ भूल गए. ऐसे में बाकी छात्र इनका मज़ाक उड़ाने लगे. लोग ठहाके लगाते हुए सीटियां बजाते हुए कहने लगे “रट कर आया था, रट कर आया था.”
ये अपमान अटल जी सह ना सके और ऐसी शर्मिंदगी झेलने के बाद उन्होंने प्रण लिया कि वह अब कभी भी रट कर भाषण नहीं देंगे. अपने ग्वालियर के कॉलेज से छात्रवृत्ति प्राप्त कर वह कानपुर चले गए. यहां उन्होंने डी. ए. वी. महाविद्यालय से कला में प्रथम श्रेणी के साथ स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की.
वो प्रेम, जो आजीवन बना रहा
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अटल जी ने ताउम्र शादी नहीं की. कईयों ने इस पर अपने अपने विचार बनाए, लेकिन इसकी असल वजह 2014 में सामने आई. इसी साल राजकुमारी कौल का निधन हुआ था. इंडियन एक्सप्रेस ने उसके जीवन पर एक स्टोरी की. इस स्टोरी का डायरेक्ट कनेक्शन जुड़ा अटल जी से. जब अटल जी कॉलेज में थे तब उसी दौरान लिखी गई राजनीति की सबसे बड़ी प्रेम कहानी.
सब जानते हैं कि अटल जी ने अपना पूरा जीवन राजनीति को समर्पित कर दिया किन्तु बहुत कम लोग ये जानते थे कि इस राजनीतिक हृदय में कभी प्रेम भी पनपा था जिसकी जड़ें ताउम्र उनके मन में गड़ी रहीं. ग्वालियर के कॉलेज में पढ़ते हुए अटल जी के मन को भा गयी थीं राजकुमारी कौल. राजकुमारी के पिता उन दिनों सिंधिया रियासत में अफसर थे. राजकुमारी और अटल जी साथ पढ़ते थे.
ये वक्त ऐसा था, जब मोहब्बत की हद सिर्फ आंखों के इशारों तक ही सीमित थी. इसकी महक से लोगों को चरित्र हनन की बू आने लगती थी. न ही ज्यादा बात करने के अवसर मिलते थे. लेकिन अटल जी का मन बेचैन था. वे अपने अहसासों को व्यक्त करने के लिए आकुल थे और इसके लिए उन्होंने वही रास्ता निकला, जो उन दिनों का इकलौता माध्यम था.
उन्होंने लाइब्रेरी में बैठ कर प्रेम पत्र लिखा और उसे एक किताब में रख कर राजकुमारी को दे दिया. किताब राजकुमारी के हाथ में पड़ी नहीं कि इधर अटल जी उत्तर की प्रतीक्षा में व्याकुल होने लगे. प्रेम बड़ा सरल है, ये किसी भी दृढ़ इंसान को अपनी तरह सरल बनाने की क्षमता रखता है. प्रतीक्षा होती रही, मगर जवाब नहीं आया. या यूं कहें कि नियति ने उस जवाब को अटल जी तक पहुंचने ही नहीं दिया.
इधर राजकुमारी की शादी तय हो गई. राजकुमारी के सरकारी अधिकारी पिता ने उनकी शादी युवा कॉलेज टीचर ब्रज नारायण कौल से तय कर दी. इधर उनकी राजकुमारी की शादी हुई. उधर अटल जी का सपना टूट गया. इसके बाद अटल जी के मन को कोई रास न आया. आगे चल कर जब वे संघ और राजनीति से जुड़े तो उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और राजनीतिक सेवा के लिए आजीवन अविवाहित रहने का प्रण ले लिया.
अब दूसरा पहलू भी जान लीजिए, ऐसा नहीं था कि राजकुमारी ने जवाब नहीं दिया था. वे अटल जी से शादी करना चाहती थीं, किन्तु उनके घर में इसका जबरदस्त विरोध हुआ. वजह वही थी जो आज भी कई प्रेम कहानियों के ख़त्म होने की वजह होती है. अटल जी भी ब्राह्मण थे, लेकिन कौल अपने को कहीं बेहतर कुल का मानते थे.
राजकुमारी ने उसी किताब में अटल जी के लिए जवाबी चिट्ठी छोड़ी थी, किन्तु वो किताब अटल जी को मिली ही नहीं. इसका पता उन्हें वर्षों बाद चला. कई वर्षों बाद दोनों फिर मिले और फिर दोस्ती हुई. बाद में ये दोस्ती तब तक रही जब तक 2014 में राजकुमारी का निधन नहीं हो गया. राजकुमारी कौल अटल जी की सब कुछ थीं, जिस तरह उन्होंने उनकी सेवा की, वह शायद ही कोई कर पाता.
वह हमेशा उनके साथ रहीं, जब तक उनका हार्ट अटैक से निधन नहीं हो गया.
विरोधियों का भी जीत लेते थे दिल
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जब संघ को सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया, तब जनसंघ नाम से पार्टी का गठन हुआ. अध्यक्ष हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी. अटल जी इस पार्टी के मुख्य सदस्यों में चुने गए. इसी पार्टी से अटल जी ने सबसे पहले 1955 में लोकसभा का चुनाव लड़ा, लेकिन उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा. बाद में वह 1957 में गोंडा की बलरामपुर सीट से जनसंघ उम्मीदवार के रूप में जीत कर लोकसभा पहुंचे.
उन्हें मथुरा और लखनऊ से भी लड़ाया गया, लेकिन वह हार गए. अटल जी ने बीस साल तक जनसंघ के संसदीय दल के नेता के रूप में काम किया. ये एक तरह की धारणा बन चुकी है और कई जगह ये बात सत्य भी साबित होती है कि चुनावी मैदान में उम्मीदवार एक-दूसरे के प्रति द्वेष की भावना रखते हैं.
मगर अटल जी के साथ ऐसा कभी नहीं रहा. अटल जी राजनीतिक मतभेद को शुरू से ही व्यक्तिगत तौर पर नहीं लेते थे. इसका एक उदाहरण 1957 में हुए का चुनाव में देखा गया. अटल जी ने इस चुनाव में बलरामपुर के आलावा दो अन्य जगहों लखनऊ और मथुरा से भी नामांकन भरा था. लेकिन लखनऊ और मथुरा से वे चुनाव हार गए थे.
लखनऊ में उनके सामने थे कांग्रेस से पुलिन बिहारी बनर्जी ‘दादा’. बनर्जी चुनाव जीते और अटल जी हार गए. दूसरा कोई होता तो अपनी हार के गम से ज्यादा सामने वाले की जीत का शोक करता मगर अटल जी ने तो बनर्जी के घर पहुंच कर सबको चौंका दिया. उन्होंने मुस्कुराते हुए बैनर्जी से कहा , ‘दादा जीत की बधाई. चुनाव में तो बहुत कंजूसी की लेकिन अब न करो, कुछ लड्डू-वड्डू तो खिलाओ.’
अटल जी को लेकर 1957 के चुनाव का एक और किस्सा है. बात कुछ यूं थी कि लखनऊ में चुनाव लड़ने के दौरान अटल जी ने अपने सहयोगी चंद्र प्रकाश अग्निहोत्री जी से फूलकुमारी बुआ के बारे में पूछा. फूलकुमारी शुक्ल ग्वालियर में अटल जी के गुरु रहे त्रिवेणी शंकर वाजपेयी जी की बहन थीं. संजोग से वो अग्निहोत्री जी के घर के पास ही रहती थीं.
अटल जी ने रात में बिना किसी को बताए अग्निहोत्री जी के साथ पहुंच गए बुआ के घर. पहुंचते ही उन्होंने बुआ के पैर छुए और हालचाल पूछा. फूलकुमारी बुआ ने अटलजी की बातों का जवाब तो बाद में दिया, पहले वहां मौजूद सभी के पैर छूने का आदेश दिया. अटल जी ने लाइन से सबके पैर छुए चाहे बच्चा हो या बड़ा. कुछ लोगों ने उनका हाथ बीच में रोका तो बोले, ‘बुआ का आदेश है, पालन तो होगा ही.’
इंदिरा गांधी के खिलाफ जब विपक्ष एक हुआ और बाद में जब देश में मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो अटल जी को विदेशमंत्री बनाया गया. इस दौरान उन्होंने अपनी राजनीतिक कुशलता की छाप छोड़ी और विदेश नीति को बुलंदियों पर पहुंचाया. बाद में 1980 में जनता पार्टी से नाराज होकर पार्टी का दामन छोड़ दिया.
इसके बाद बनी भारतीय जनता पार्टी के संस्थापकों में वह एक थे. उसी साल उन्हें भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष की कमान सौंपी गयी. इसके बाद 1986 तक उन्होंने भाजपा अध्यक्ष पद संभाला. उन्होंने इंदिरा गांधी के कुछ कार्यों की तब सराहना की थी, जब संघ उनकी विचारधारा का विरोध कर रहा था.
जब हवाई जहाज़ में सवार लोगों की बचाई थी जान
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अटल जी का नाम उन नेताओं में शीर्ष पर आता है जिन्होंने आम जनता के दिल में अपनी जगह बनाई. लोग उनके किस तरह से दीवाने थे, इसका अंदाज़ा आप इस घटना से लगा सकते हैं. ये घटना है उस समय की जब श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के वक्त समूचे उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा हुआ था. अटल जी मीराबाई मार्ग स्थित स्टेट गेस्ट हाउस में भोजन कर रहे थे. इसी रात उन्हें दिल्ली लौटना था.
इतने में लखनऊ के जिलाधिकारी और तत्कालीन राज्यपाल के सलाहकार अचानक कमरे में आ गए. लालजी टंडन ने उन्हें बताया कि अटल जी अभी भोजन कर रहे हैं. तत्कालीन जिलाधिकारी ने हाथ जोड़ते हुए बताने लगे कि अमौसी हवाई अड्डे पर एक लड़का दिल्ली जाने वाले हवाई जहाज में चढ़ गया है.
उसके हाथ में हथगोला जैसी कोई वस्तु है. कह रहा है कि अटल बिहारी वाजपेयी को बुलाओ, नहीं तो इस जहाज़ को उड़ा दूंगा. लालजी टंडन मना करते तब तक अटल जी खाना बीच में छोड़कर खड़े हो गए और बोले कि चलो चलते हैं. आखिर कइयों के जीवन का सवाल है. अटल जी एयरपोर्ट पहुंचे और लगभग हठ करते हुए उन्हें हवाई जहाज के पास ले चलने को कहा. सबकी हालत खराब थी, कुछ भी हो सकता था.
जैसे-तैसे डीएम के साथ सब लोग जहाज के पास पहुंचे. लड़के ने अटल जी को अंदर बुलाया. वह अटल जी के पैर छूने झुका कि सुरक्षा बलों ने उसे दबोच लिया. लड़के ने हाथ में ली वस्तु को फेंकते हुए कहा कि यह कुछ नहीं, सिर्फ़ सुतली का गोला है. अटलजी ने भाजपा के लोगों से कहा कि इसने नादानी में इस तरह की घटना को अंजाम दे दिया. इसकी ज़मानत ज़रूर करा देना, जिससे इसका भविष्य न खराब हो.
हवाई जहाज़ में अंदर कांग्रेस के बड़े नेता और लंबे समय तक कोषाध्यक्ष रहे सीताराम केसरी भी बैठे हुए थे. अटलजी को देखकर बोले, ‘जब हमें मालूम हुआ कि आप लखनऊ में हैं, तो मेरी जान में जान आ गई थी कि आप जरूर आ जाएंगे. हम लोग बच जाएंगे.’
लखनऊ की वर्तमान मेयर संयुक्ता भाटिया के पति और तत्कालीन कैंट विधायक सतीश भाटिया की मृत्यु पर लखनऊ आए अटल बिहारी वाजपेयी जी शवयात्रा के साथ पैदल ही आलमबाग श्मशान घाट तक गए. अधिकारियों के लाख कहने पर भी उन्होंने सुरक्षा और गाड़ी लेने से इनकार कर दिया. अटल जी बोले, ‘शवयात्रा में कोई गाड़ी से नहीं चलता.’ वे तब तक श्मशान घाट पर भी बैठे रहे जब तक अंत्येष्टि पूरी नहीं हो गई
…और हो गया राजनीति के एक युग का अंत
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उन्होंने भले ही उन्होंने अपना सारा जीवन एक विशेष विचारधारा से जुड़ी पार्टी को समर्पित कर दिया. इसके बाद भी वो सभी के प्रिय रहे. विपक्ष ने भी उनकी बातों पर सहमति जताई. सभी धर्मों के लोगों ने उन्हें प्रिय माना. वे किसी पार्टी के न हो कर पूरे देश के हुए. उनके अंतिम समय में हर धर्म, हर वर्ग के लोगों ने उनके लिए प्रार्थना की.
मन ही मन हर कोई जानता था कि उनका जाना राजनीति के एक पूरे युग का अंत है लेकिन मृत्यु को भी भला कोई रोक पाया है. वो 16 अगस्त 2018 को हमारे बीच से चले गए. एक सच्चे प्रेमी, जुनूनी कवि, प्रखर वक्ता, लोकप्रिय प्रधानमंत्री, हिंदी गौरव स्व. श्री अटल बिहारी वाजपयी जी को हमेशा यूं ही याद किया जाएगा.