सरकार देश में सरकारी बैंकों की संख्या कम से कम करना चाहती है। सरकार ने 2020 में 10 राष्ट्रीयकृत बैंकों का चार बड़े बैंकों में विलय कर दिया था। इससे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की संख्या घटकर 12 रह गई है, जो 2017 में 27 थी। लेकिन आरबीआई का कहना है कि इसके फायदे कम और नुकसान ज्यादा हो सकते हैं।
मुंबई: सरकार देश में सरकारी बैंकों की संख्या कम करना चाहती है लेकिन आरबीआई (RBI) का कहना है कि इससे फायदे से अधिक नुकसान हो सकता है। आरबीआई ने अपने एक लेख में आगाह करते हुए सरकार को इस मामले में ध्यान से आगे बढ़ने की सलाह दी है। उसका कहना है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बड़े पैमाने पर निजीकरण से फायदे से अधिक नुकसान हो सकता है। आरबीआई के बुलेटिन में प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि निजी क्षेत्र के बैंक (पीवीबी) लाभ को अधिकतम करने में अधिक कुशल हैं जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने वित्तीय समावेशन (financial inclusion) को बढ़ावा देने में बेहतर प्रदर्शन किया है। मोदी सरकार की सबसे सफल योजनाओं में डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT) शामिल है। इस स्कीम के तहत नागरिकों को केंद्र सरकार की ओर से कई चीजों पर अलग-अलग रूपों में सब्सिडी दी जाती है। इसकी सफलता का श्रेय सरकारी बैंकों को जाता है।
लेख में कहा गया, ‘निजीकरण कोई नई अवधारणा नहीं है और इसके फायदे और नुकसान सबको पता है। पारंपरिक दृष्टि से सभी दिक्कतों के लिए निजीकरण प्रमुख समाधान है जबकि आर्थिक सोच ने पाया है कि इसे आगे बढ़ाने के लिए सतर्क दृष्टिकोण की आवश्यकता है।’ लेख में कहा गया है कि सरकार की तरफ से निजीकरण की ओर धीरे-धीरे बढ़ने से यह सुनिश्चित हो सकता है कि वित्तीय समावेशन और मौद्रिक संचरण के सामाजिक उद्देश्य को पूरा करने में एक ‘शून्य’ की स्थिति नहीं बने। डीबीटी योजना की सफलता में सरकारी बैंकों की अहम भूमिका है। इसकी शुरुआत साल 2013 में एक जनवरी को की गई थी। इस स्कीम को लाने का मकसद था पारदर्शिता और सब्सिडी वितरण में होने वाली धांधलियों को रोकना था। भारत में यह स्कीम काफी सफल रही जिसकी वजह से इसे दुनिया की सबसे बड़ी स्कीम के रूप में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में जगह मिली।