देश की महान महिला एथलीट पीटी उषा को राज्यसभा में मनोनीत किया गया है. उनके साथ ही संगीतकार इलैयाराजा, वीरेंद्र हेगड़े और वी. विजयेंद्र प्रसाद को भी राज्यसभा में मनोनीत किया गया है. बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर इसकी जानकारी दी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पीटी उषा को बधाई देते हुए ट्विटर पर लिखा, “पीटी उषा जी हर भारतीय के लिए एक प्रेरणा हैं. खेलों में उनकी उपलब्धियों को व्यापक रूप से जाना जाता है, लेकिन पिछले कई सालों में नए एथलीटों का मार्गदर्शन करने के लिए भी उनका काम उतना ही सराहनीय है.”
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पीटी उषा की कहानी
दुनिया उसे ही याद रखती है, जो विजेता होता है. हारने वाले को कोई याद नहीं रखता.
खेल की दुनिया में चमकने की कोशिश करने वाले खिलाड़ियों के साथ आम तौर पर यही होता आया है. लेकिन, पीटी उषा खेल की दुनिया की ऐसी मिसाल हैं, जिन्होंने इन सभी नियमों को उलट कर रख दिया.
ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने हिंदुस्तान में एक महिला होने की सभी सामाजिक बंदिशों को तोड़ा. 1984 के लॉस एंजेलेस ओलंपिक खेलों में चौथे नंबर पर आने के बावजूद, आज भी हिंदुस्तान में पीटी उषा का नाम एथलेटिक्स का पर्याय बना हुआ है.
वो भारत की महानतम खिलाड़ियों में से एक मानी जाती हैं. पीटी उषा, न केवल खिलाड़ियों की कई पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनीं, बल्कि वो आज भी कई युवा एथलीटों के करियर को संवारने में अहम भूमिका निभा रही हैं. पीटी उषा का सफ़र उसी बाधा दौड़ जैसा रहा है, जैसी बाधा दौड़ में वो 1984 के ओलंपिक खेलों में शामिल हुई थीं.
उनके जीवन और करियर में भी कई उतार-चढ़ाव आए.
अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए पीटी उषा कहती हैं, “असल में 1980 के दशक में हालात बिल्कुल अलग थे. जब मैं खेल की दुनिया में आई, तो मैंने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन मैं ओलंपिक में भी भाग लूंगी.”
पय्योली में आरंभ था प्रचंड
पीटी उषा का शुरुआती जीवन उनके अपने गांव पय्योली में बीता था, जो भारत के दक्षिणी राज्य केरल का एक तटीय ज़िला था.
इसीलिए बाद के दिनों में पीटी ऊषा को पय्योली एक्सप्रेस के नाम से भी जाना जाता था.
पीटी उषा ने दौड़ने की शुरुआत तब से की थी, जब वो चौथी कक्षा में पढ़ती थीं. उनके शारीरीक शिक्षा के अध्यापक ने उषा को ज़िले की चैंपियन से मुक़ाबला करने को कहा.
वो ज़िला चैंपियन भी पीटी उषा के स्कूल में ही पढ़ती थी. उषा ने उस रेस में ज़िला चैंपियन को भी हरा दिया था. अगले कुछ वर्षों तक वो अपने स्कूल के लिए ज़िला स्तर के मुक़ाबले जीतती रही थीं.
लेकिन, पीटी उषा का असल करियर तो 13 बरस की अवस्था में शुरू हुआ, जब उन्होंने केरल सरकार द्वारा लड़कियों के लिए शुरू किए गए स्पोर्ट्स डिविज़न में दाख़िला लिया था.
दौड़ना अच्छा लगता था…
वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.
ड्रामा क्वीन
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उषा बताती हैं, “मेरे एक चाचा उस स्कूल में टीचर थे. इसलिए मुझे खेल की दुनिया में जाने की इजाज़त देने के लिए मेरे माता-पिता को मनाना आसान रहा था.”
उषा के परिवार ने केवल उनका समर्थन किया, बल्कि ट्रेनिंग के दौरान उनका हौसला भी बढ़ाया था. पीटी उषा उन दिनों के बारे में बताती हैं, “मेरे पिता उस मैदान में आया करते थे जहां मैं अभ्यास करती थी. वो मैदान में छड़ी लेकर आते थे. क्योंकि जब मैं तड़के दौड़ने के लिए जाती थी, तो वहां बहुत से कुत्ते आते थे.”
कई बार वो रेलवे लाइन के साथ-साथ एक धूल भरे रास्ते पर भी दौड़ने जाती थीं और वहां से गुज़रती हुई गाड़ियों के साथ रेस लगाया करती थीं. पीटी उषा को समंदर किनारे दौड़ना भी अच्छा लगता था.
वो कहती हैं, “मैं समंदर किनारे ट्रेनिंग करना पसंद करती थी. वहां कई तरह के अभ्यास किए जा सकते थे. कोई ओर-छोर नहीं हुआ करता था. आप चढ़ाई वाली दौड़ भी कर सकते थे और ढलान पर भी दौड़ लगा सकते थे. आपकी मर्ज़ी.”
उषा बताती हैं, “शुरुआत में तो लोग उन्हें देख कर हैरान हुआ करते थे. वो साल 1978 या 79 का था. मैं शॉर्ट पहन कर समंदर किनारे दौड़ लगाती थी. मुझे दौड़ते देखने के लिए बहुत से लोग बीच पर आया करते थे.”
वो कोच जिन्होंने पीटी उषा की ज़िंदगी बदल दी
लेकिन आख़िर में उन लोगों ने भी उषा की मदद की और उनका हौसला बढ़ाया. वो कहती हैं, “मैं तैरना नहीं जानती थी. मुझे पानी के भीतर जाने में डर लगता था. बच्चे और आस-पास के लोग समुद्र किनारे आया करते थे. उन्हें तैरना आता था और वो मेरी हिफ़ाज़त किया करते थे.”
हालांकि पीटी उषा, राज्य सरकार के प्रशिक्षण अभियान में शामिल थीं. फिर भी उन्हें बहुत कम सुविधाएं मिला करती थीं.
वो बताती हैं, “वहां हम चालीस खिलाड़ी थे, जिनमें एथलीट भी शामिल थे. हमारे लिए गिने-चुने बाथरूम हुआ करते थे. तमाम मुश्किलों के बावजूद हमें सख़्त नियमों का पालन करना पड़ता था. मेरा दिन सुबह पांच बजे शुरू होता था. दौड़ने की प्रैक्टिस करने के साथ-साथ हमें पढ़ाई का कोर्स भी पूरा करना होता था.”
स्कूल की इसी स्पोर्ट्स डिवीज़न में पीटी उषा की मुलाक़ात मशहूर कोच ओएम नांबियार से हुई थी. नांबियार से मिलना, ऊषा के करियर का निर्णायक मोड़ साबित हुआ था.
नांबियार को पीटी उषा में एक अलग ही चमक दिखी. उन्होंने ऊषा को और बेहतर करने के लिए प्रोत्साहित किया और उन्हें प्रशिक्षण देकर एक ज़बरदस्त एथलीट के रूप में तैयार किया.
जब सबसे अच्छा प्रदर्शन भी नाकाफ़ी साबित हुआ
उषा कहती हैं, “नांबियार सर सभी खिलाड़ियों को एक गोले में खड़ा करते थे और फिर हमसे वर्ज़िश कराते थे. जो सबसे अच्छा करता था उसे वो इनाम दिया करते थे.” और उषा हर बार सबसे अच्छा करना चाहती थीं.
पहले ज़िला स्तर, फिर राज्य स्तर और आख़िर में राष्ट्रीय स्तर पर, पीटी उषा का प्रदर्शन दिनों-दिन निखरता गया. 1980 में केवल 16 बरस की उम्र में पीटी उषा ने मॉस्को में हुए ग्रीष्मकालीन ओलंपिक खेलों में हिस्सा लिया था. चार साल बाद वो किसी ओलंपिक खेल के फ़ाइनल में पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला एथलीट बन गई थीं.
लेकिन, बस एक मामूली से फ़ासले से उषा ओलंपिक का मेडल जीतने से चूक गई थीं. 1984 के लॉस एंजेलेस ओलंपिक खेलों में महिलाओं की 400 मीटर की बाधा दौड़ का धुंधला सा वीडियो आज भी भारतीय खेल प्रेमियों के रोंगटे खड़े कर देता है और उनके दिल टूट जाते हैं.
इस फुटेज की शुरुआत में आप एक लंबी और दुबली भारतीय एथलीट को शुरुआती लाइन पर खड़ा होते देखते हैं. कमेंटेटर उसके बारे में बात कर रहे हैं.
“जब ये लड़की लॉस एंजेलेस आई थी, तो किसी ने इसका नाम नहीं सुना था. बीस बरस की ये लड़की एशियाई रिकॉर्डधारी एथलीट है. लेकिन, ओलंपिक से पहले इसके बारे में कोई चर्चा नहीं कर रहा था. और यहां उसके पास शायद ओलंपिक का गोल्ड मेडल जीतने का मौक़ा है.”
शानदार शुरुआत
शायद ओलंपिक का गोल्ड मेडल जीतने का मौक़ा. क्वॉलिफ़ाइंग राउंड और सेमीफ़ाइनल में अपने शानदार प्रदर्शन से पीटी उषा ने इसी की उम्मीदें जगाई थीं.
जैसे ही मुक़ाबला शुरू करने के लिए बंदूक दाग़ी गई, तो उषा दौड़ पड़ीं. उन्हें लगा कि ये एक शानदार शुरुआत थी. लेकिन, कुछ ही सेकेंड बाद रेस को रोकना पड़ा क्योंकि ऑस्ट्रेलिया की एथलीट डेबी फ्लिंटॉफ़ केवल एक क़दम चल कर गिर पड़ी थीं.
पीटी उषा उस मुक़ाबले को याद करते हुए कहती हैं, “जब दोबारा रेस शुरू हुई तो मैं बहुत नर्वस थी. मेरा ध्यान बिल्कुल बंट चुका था. मैं डरी हुई थी और मेरे हाथ कांप रहे थे. आख़िरी मुक़ाबला तभी शुरु हुआ और मैं बहुत धीमा दौड़ रही थी. सेमीफ़ाइनल से भी धीमा.”
लड़खड़ाती हुई शुरुआत के बावजूद, पीटी उषा आख़िर के तीन खिलाड़ियों में शामिल थीं. लेकिन, वो बस बाल बराबर दूरी से मुक़ाबला हार गई थीं.
पीटी उषा कहती हैं, “मेरा पांव आगे था. लेकिन मैं अपने सीने को आगे नहीं झुका सकी. अगर मैं अपने सीने को आगे की तरफ़ झुका पाती तो मैं निश्चित रूप से मेडल जीत लेती.” लेकिन, उस रेस में पीटी उषा चौथे नंबर पर रही थीं. वो कहती हैं, “मुझे बहुत बुरा लग रहा था. मेरी आंखों में आंसू आ गए थे. यहां तक कि नांबियार सर भी रो रहे थे.”
प्रदर्शन में गिरावट और फिर वापसी
उस मुक़ाबले में पीटी उषा के हारने पर ऐसा लगा कि देश के सभी 75 करोड़ लोगों की हार हुई है. लेकिन, चौथे नंबर पर रहने के बावजूद, पीटी उषा अपने देश की नज़र में एक नायिका थीं. क्योंकि यहां ओलंपिक मेडल जीतना एक दुर्लभ ख़्वाब था.
अगले कुछ मुक़ाबलों में पीटी उषा अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर सकीं. लोगों ने उनकी आलोचना शुरू कर दी. लेकिन, उन्हें ख़ुद पर ये यक़ीन था कि वो वापसी ज़रूर करेंगी.
और ऐसा हुआ 1986 के सिओल एशियाई खेलों गोल्ड मेडल की बरसात के साथ. उन खेलों में पीटी उषा ने चार गोल्ड मेडल जीते थे. 400 मीटर की बाधा दौड़, 400 मीटर की रेस, 200 मीटर और 4 गुणा 400 की रेस में उषा ने स्वर्ण पदक जीते. 100 मीटर की रेस में वो दूसरे नंबर पर रहीं.
पीटी ऊषा कहती हैं, “सोल एशियाई खेलों में भारत ने पांच गोल्ड मेडल जीते थे और इनमें से चार स्वर्ण पदक अकेले मैंने जीते थे. ये न सिर्फ़ मेरे लिए बल्कि हर भारतीय के लिए गौरव का पल था. और कम से कम मैंने वो तो किया जो मैं अपने देश के लिए कर सकी थी. जब भी मैं मेडल लेने के लिए विक्ट्री मंच पर जाती तो जन गण मन की धुन बजती. वो मेरे लिए सबसे ज़्यादा ख़ुशी का मौक़ा होता था.”
पीटी उषा को 1983 में अर्जुन अवॉर्ड दिया गया था. 1985 में उन्हें देश के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित किया गया.
शादी, मातृत्व और वापसी
केरल के पय्योली गांव में, जहां पीटी उषा आज भी रहती हैं, वहां पर नारियल और ताड़ के पेड़ों से घिरे रंग-बिरंगे मकान देखने को मिलते हैं. जब आप गांव में घुसते हैं, तो आपको दक्षिण भारत के किसी भी गांव जैसा ही एक सुकूनभरी शांति का एहसास होता है.
गांव की एक गली का नाम पीटी उषा के नाम पर रखा गया है. उससे होते हुए आप पीटी ऊषा के घर तक पहुंचते हैं. ये सिर्फ़ ऊषा का घर नहीं है. बल्कि ये उनकी उपलब्धियों का ख़ज़ाना भी है और उनकी यादों का स्मारक भी. घर की कलात्मक सरलता ठीक वैसी ही है, जैसी ख़ुद पीटी उषा हैं, विनम्र, शुक्रगुज़ार और ज़मीन से जुड़ी.
ऊषा के पति वी श्रीनिवासन हमें घर की सैर कराते हैं. मेन हॉल में उषा की जीती हुई सभी ट्रॉफ़ियां और मेडल रखे हुए हैं. दूसरी तरफ़ सीढ़ियों के साथ पुरानी तस्वीरें करीने से लगाई गई हैं. पीटी उषा की प्रधानमंत्रियों, नोबेल विजेताओं और अन्य एथलीटों के साथ.
इन दोनों को जोड़ने वाली दीवार पर ओलंपिक की रेस में चौथे नंबर रहने का उनका प्रमाणपत्र है, अर्जुन और पद्मश्री पुरस्कार हैं. और घर में प्रवेश के द्वार के ठीक ऊपर पीटी उषा के कोच ओएम नांबियार की तस्वीर लगी हुई है.
उषा के पति श्रीनिवासन कहते हैं, “जब आप घर में घुसते हैं, तो आप को उनकी सारी उपलब्धियां दिखाई देती हैं. और वापस जाते हुए आप उस शख़्स को देखते हैं, जिनकी वजह से ये सब मुमकिन हो सका.”
ओलंपिक का अधूरा ख़्वाब
लेकिन, जिस तरह कोच नांबियार ने उषा का करियर संवारा, उसी तरह पति श्रीनिवासन का भी पीटी उषा के जीवन में अहम रोल रहा है. 1991 में शादी के कुछ ही दिनों बाद उषा ने एथलेटिक्स से ब्रेक ले लिया था. तभी उन्होंने अपने बेटे को जन्म दिया.
पीटी उषा अपने पति वी श्रीनिवासन के बारे में कहती हैं, “उन्हें खेलों में दिलचस्पी थी. वो ख़ुद एक खिलाड़ी थे. वो पहले कबड्डी खेला करते थे. उन्होंने हर काम में मेरा हौसला बढ़ाया. वो चाहते थे कि मैं हमेशा अच्छा प्रदर्शन करूं. इसीलिए केवल उन्हीं की वजह से मैंने खेल की दुनिया में वापसी की.”
पीटी उषा खेलों की दुनिया में दोबारा आईं. और जब उन्होंने 1997 में अपने खेलों के करियर को अलविदा कहा, तब तक वो भारत के लिए 103 अंतरराष्ट्रीय मेडल जीत चुकी थीं. अब पीटी उषा ने ओलंपिक में मेडल जीतने की चाहत रखने वाले युवा खिलाड़ियों को ट्रेनिंग देने के लिए एक एकेडमी शुरू की है.
ऊषा स्कूल ऑफ़ एथलेटिक्स, केरल के कोझीकोड ज़िले में किनालुर की पहाड़ियों के बीच स्थित है. आज ये एकेडमी युवा एथलीटों की ट्रेनिंग के एक बेहतरीन संस्थान के तौर पर चर्चित हो चुकी है. इस स्कूल की शुरुआत करना, उषा का एक ख़्वाब था. इसके ज़रिए वो खेलों के लिए कुछ करना चाहती थीं, जिसने उन्हें जीवन में इतना कुछ दिया था.
लक्ष्य के लिए अभ्यास
पीटी उषा कहती हैं, “लॉस एंजेलेस ओलंपिक खेलों में नाकामी के बाद मैं ट्रेनिंग करने के लिए हर साल तीन महीने के लिए लंदन जाया करती थी. मैंने वहां जो सुविधाएं देखीं, वो दिलचस्प थीं. मेरे दिमाग़ में ये बात थी अगर मैंने अपना स्कूल खोला तो उसमें ऐसी ही सुविधाएं होंगी. तो उषा स्कूल ऑफ़ एथलेटिक्स का विचार वहीं से आया था.”
अपने पति श्रीनिवासन के साथ उषा इस एकेडमी में आने वाली खिलाड़ियों की निगरानी करती हैं. उन्हें क़ुदरत की छांव में गाइड करती हैं. वो सभी एथलेटिक्स ट्रैक पर ट्रेनिंग करते हैं. और वहां से कुछ किलोमीटर दूर स्थित समुद्र तट पर भी दौड़ लगाती हैं.
वो कहती हैं, “हमारा लक्ष्य ओलंपिक मेडल जीतना है. हमने उसी लक्ष्य के लिए अभ्यास करना शुरू किया, और हमने एशियाई खेलों में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है. एकेडमी के टिंटू लुका ओलंपिक खेलों में ग्यारहवें नंबर पर रहे थे.” और देश की अन्य महिलाओं को पीटी उषा ये मंत्र देती हैं.
“मुझे लगता है कि अगर मैं 1980 के दशक में वो सब कर सकी. ओलंपिक मेडल के इतने क़रीब तक पहुंच सकी और बिना सुविधाओं के 103 अंतरराष्ट्रीय मेडल जीत सकी, तो हर एक में ख़ूबियां हैं. फिर चाहे वो खेल की दुनिया हो या पढ़ाई. उन सब में ख़ूबियां हैं. लेकिन, शायद उन्हें बहुत सी बाधाओं से पार पाना पड़े.”