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संगीत… कला के कई पहलुओं में से एक जिसे किसी-किसी संस्कृति मे ईश्वर तक पहुंचने का साधन बताया गया है. नदी के बहाव से लेकर, पत्तों से उलझने वाली ठंडी हवा तक प्रकृति की हर एक कलाकारी में संगीत छिपा है. हम इंसानों के लिए बोलना जितना स्वभाविक है उतना ही गाना भी. वाद्य यंत्रों का आविष्कार कुछ सदियों पहले हुआ है लेकिन संगीत तो तब से है जब शायद भाषा का भी ढंग से उत्पत्ति नहीं हुई थी.
बदलते दौर के साथ संगीत में भी कई पहलु जुड़ गए. आज बनने वाले गानों पर अगर चर्चा हो तो ज़्यादातर लोग मायूस ही होते हैं क्योंकि आज म्यूज़िक इंडस्ट्री की शक़्ल ले चुका है. यानि जो बिकेगा वही बनेगा. बदलते वक़्त के साथ शास्त्रीय संगीत, गायन, वादन आदि को सुनने वालों की संख्या भी कम हो रही है. जब सुनने वालों की संख्या ही कम हो रही है तो शास्त्रीय संगीत में शिक्षा प्राप्त करने वालों की संख्या कितनी होगी, ये सोच सकते हैं. पंजाब के लुधियाना में है, जहां के लिए ये कहना ग़लत नहीं होगा कि यहां के बच्चे बोलने से पहले राग और रियाज़ करना सीखते हैं.
भारत का ‘संगीतमय’ गांव
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वैसे तो देश में बहुत से माता-पिता हैं जो बच्चों को खेल-कूद, गीत-संगीत, कला से दूर रखते हैं, और कहते हैं कि इन सब से बच्चे बर्बाद होते हैं. आज भी कई माता-पिता मानते हैं कि सिर्फ़ पढ़-लिखकर ही क़ामयाबी हासिल की जा सकती है. लुधियाना, पंजाब के पास एक ऐसा गांव हैं जहां का बच्चा-बच्चा राग और शास्त्रीय संगीत से परिचित है. भैनी साहिब (Bhaini Sahib) नामक इस गांव में बीते 100 सालों से एक रीत चली आ रही है. ये रीत है संगीत की रीत. यहां के हर बच्चे को संगीत की तालीम दी जाती है. ये गांव पूरे देश के लिए मिसाल है.
संगीत है गांववालों की ज़िन्दगी का अहम हिस्सा
The Times of India
भैनी साहिब के रहने वाले चाहे कोई काम-काज करते हों, एक चीज़ जो उन सबको जोड़ती है वो है संगीत. The Better India के एक लेख के अनुसार, भैनी सिहाब के रहने वाले, चाहे वो किसान हों, बैंक में नौकरी करते हों, शिक्षक हों, दुकान चलाते हों हर एक ग्राम निवासी संगीत से जुड़ा हुआ है. राग, वाद्य यंत्रों और शास्त्रीय संगीत के पंडितों के के बारे में बात करते हुए यहां के लोग पलक भी नहीं झपकाते.
स्कूल के बाद संगीत सीखने जाते हैं बच्चे
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भैनी साहिब में रहने वाले बच्चे स्कूल के बाद, गृहकार्य ख़त्म करके, हॉकी प्रैक्टिस आदि करने के बाद अपने वाद्य यंत्र लेकर म्यूज़िक रूम में पहुंचते हैं. The Times of India की एक रिपोर्ट के अनुसार, ये बच्चे संगीत के बड़े-बड़े उस्तादों की तस्वीरों के नीचे बैठकर गाना गाना; तबला, सरोद, सिताबर, दिलरूबा आदि बजाना सीखते हैं. ये बच्चे गुरु नानक, श्रीकृष्ण की कहानियां सुनेत हैं और सबसे ज़रूरी, सुनना सीखते हैं. ये बच्चे चाहे बड़े होकर कुछ भी बनें उनके ज़िन्दगी में संगीत ज़रूर रहता है.
म्यूज़िशियन बनना नहीं, अच्छा इंसान बनना है लक्ष्य
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ग्राम निवासी, बलवंत सिंह नामधारी ने बताया, ‘हमारा मानना है कि संगीत सीखने से कोई भी बच्चा आगे चलकर अच्छा इंसान बनता है. हम में से कुछ आगे चलकर प्रोफ़ेशनल म्यूज़िशियन्स बने हैं लेकिन ये हमारा लक्ष्य नहीं है.’ नामधारी इन बच्चों को राग से जुड़ी अहम जानकारियां देते हैं, जैसे कि कोई राग दिन के तय समय पर ही क्यों गाया जाता है. नामधारी ने बताया कि जब वो छोटे थे तब उन्हें सूर्योदय से पहले उठाकर रियाज़ करने को कहा जाता था, आज उनके बच्चे भी यही कर रहे हैं.
आध्यात्मिक गुरु ने शुरु की थी संगीतमय रीत
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ग्रामनिवासियों का कहना है कि बच्चों को संगीत की शिक्षा देने की रीत एक नामधारी आध्यात्मिक गुरु, सतगुरु प्रताप सिंह ने शुरु की थी. उन्होंने कहा था, ‘मैं चाहता हूं कि संगीत की खुशबू हर बच्चे को छुए.’ सतगुरु प्रताप सिंह का 1959 में निधन हो गया लेकिन उनके बेटे सतगुरु जगजीत सिंह ने पिता की इच्छानुसार ही संगीत की शिक्षा देना जारी रखा.
भैनी साहिब के रहने वाले व्यस्कों ने एक ऐसे दौर में बच्चों को संगीत सीखने के लिए प्रेरित किया जब संगीत को बतौर प्रोफ़ैशन अच्छा नहीं माना जाता था. संगीत को शौक़िया तौर पर लोगों ने ज़िन्दगी का हिस्सा बनाया था. और गाने-बजाने के साथ ही वे दूसरी नौकरियां भी करते थे. भैनी साहिब के बच्चों के लिए संगीत वैसा ही है जैसा किसी दोस्त के साथ खेत घूमने जाना, साइकिल चलाना.