रूस की विजय दिवस परेड में जो कुछ भी दिखाया जाए, ये यूक्रेन पर किसी तरह की जीत तो नहीं ही होगी, भले ही राष्ट्रपति पुतिन और रूस का सत्ता प्रतिष्ठान इसे जो भी रंग देने की कोशिश करें.
पढ़िए रक्षा विश्लेषक माइकल क्लार्क का नज़रिया
2008 के बाद से दुनिया भर में पुतिन को जहाँ भी सैन्य कामयाबी मिली, ये सब उन्होंने विशेष सैन्य दस्तों की छोटी टुकड़ियों, स्थानीय मिलिशिया और भाड़े के लड़ाकों और रूस की वायुसेना की ताक़त के दम पर हासिल की हैं.
इन कामयाबियों के दम पर रूस ने कम ख़र्च पर भारी बढ़त हासिल की. जॉर्जिया, नागोर्नो-काराबाख, सीरिया, लीबिया, माली रौ यूक्रेन में दो बार दख़ल इसके उदाहरण हैं. 2014 में रूस ने पहले अवैध तरीक़े से क्राइमिया को हथिया लिया और फिर उसके पूर्वी क्षेत्र में लुहांस्क और दोनोत्स्क को स्वघोषित रूस समर्थक राज्य बना दिया.
हर मामले में रूस ने बेहद तेज़ी और आक्रामकता से काम लिया और पश्चिमी देश हैरान होने के अलावा कुछ ना कर सके. बाद में उन्होंने धीरे-धीरे रूस पर प्रतिबंध तो लगाए लेकिन इनसे वास्तविकता नहीं बदल सकी. पुतिन ‘ज़मीन पर नए तथ्य गढ़ने’ में सिद्धहस्त दिखे.
इस साल फ़रवरी में उन्होंने इसे ही बेहद बड़े पैमाने पर यूक्रेन में दोहराने की कोशिश की. वो साढ़े चार करोड़ की आबादी वाले देश और यूरोप के दूसरे सबसे बड़े भूभाग की सत्ता पर 72 घंटों के भीतर कब़्ज़ा करना चाहते थे. ये एक हैरान कर देने वाला और लापरवाह दाव था जो अपने पहले ही अहम सप्ताह में विफल हो गया.
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पुतिन के पास अब आगे बढ़ने के अलावा बहुत कम विकल्प हैं और वो सिर्फ़ यूक्रेन में ही आगे नहीं बढ़ेंगे बल्की उसकी सीमाओं से बाहर भी निकल सकते हैं. मौजूदा परिस्थिति में संकट का गहराना निहित है और यूरोप अपने हाल के इतिहास के सबसे ख़तरनाक़ मोड़ पर खड़ा है.
राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की या दुनिया के प्रतिक्रिया देने से पहले ही यूक्रेन की सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की पहली योजना के नाकाम होने के बाद रूस ने प्लान बी लागू किया.
इसके तहत सेनाओं को आगे बढ़ाकर राजधानी कीएव की घेराबंदी कर ली गई और यूक्रेन के चेर्नीहीव, खार्कीएव, सूमी, दोनेत्स्क, मारियोपोल और माइकोलेव दूसरे शहरों में घुसा गया ताकि यूक्रेन के सैन्य प्रतिरोध को समाप्त किया जा सके और राजधानी कीएव पर ध्वस्त होने और बर्बाद होने का ख़तरा मंडराने लगे.
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ड्रामा क्वीन
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लेकिन रूस का ये प्लान बी भी नाकाम हो गया. खेर्सोन यूक्रेन का एकमात्र बड़ा शहर है जो पूरी तरह से रूस के नियंत्रण में आया है और यहाँ भी रूस के प्रशासन का विरोध हो रहा है.
तथ्य ये है कि इतने बड़े देश पर नियंत्रण करने के लिए रूस की सेना की संख्या कम थी. कई कारणों से रूस की सेना का प्रदर्शन बेहद ख़राब रहा. पहले तो सेनाओं का नेतृत्व ख़राब रहा और दूसरे वो चार मोर्चों पर बँट गईं. कीएव से लेकर माइकोलेव तक कोई एक कमांडर नहीं था.
उनका मुक़ाबला प्रशिक्षित और प्रतिबद्ध यूक्रेनी सैन्यबलों से था, जिन्होंने डटकर उनका मुक़ाबला किया. ये ‘डॉयनेमिक डिफेंस’ का एक शानदार उदाहरण है. यूक्रेन की सेनाएं किसी एक बिंदू पर मोर्चा नहीं संभाल रहीं थीं बल्कि जहाँ दुश्मन को सबसे ज़्यादा नुक़सान हो सकता था, वहाँ हमले कर रहीं थीं.
निराश और उलझा हुआ रूस अब प्लान सी पर चल रहा है, जिसके तहत कीएव और उत्तरी यूक्रेन को उसने छोड़ दिया है और अब उसने अपने पूरी सैन्य ताक़त दक्षिणी यूक्रेन और डोनबास क्षेत्र में बड़ा आक्रमण करने पर लगा दी है. संभवतः ये हमला दक्षिण पूर्व में ओडेसा तक चलेगा ताकि यूक्रेन को लैंडलॉक किया जा सके यानी उसका समंदरी रास्ता बंद किया जा सके.
हम रूसी सेनाओं का ऐसा ही अभियान अभी पूर्व में ईज़ियम, पोपासेन, कुरुल्का और ब्राज़किव्का में देख रहे हैं.
रूस की सेनाएं यूक्रेन के जॉइंट फ़ोर्स ऑपरेशन (जेएफ़ओ) की घेराबंदी करने में लगी हैं. इस अभियान में यूक्रेन की क़रीब 40 प्रतिशत सेना लगी है जो यूक्रेन से अलग हो चुके लुहांस्क और दोनेत्स्क क्षेत्र में साल 2014 के बाद से लड़ रही हैं.
इस समय रूस का मुख्य लक्ष्य स्लोव्यांस्क और उससे थोड़ा आगे क्रामतोर्स्क तक क़ब्ज़ा करना है. समूजे डोनबास क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए ये दोनों शहर रणनीतिक रूप से बेहद अहम हैं.
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युद्ध अब अलग सैन्य चरण में आ गया है- बेहतर मौसम में अधिक खुले इलाक़े में संघर्ष, जिसमें टैंक, मेकेनाइज़्ड इंफेंट्री और इस सबके ऊपर हथियारबंद सेनाओं के आमने-सामने आने से पहले ही दुश्मन को तबाह करने के लिए डिज़ाइन किए गए तोपखाने का इस्तेमाल होगा.
लेकिन ये प्रक्रिया बहुत सरल नहीं हैं.
रूस की आक्रमणकारी सेना शुरुआत में ही उलझ गई और यूक्रेन की जेएफ़ओ ने रूस की सेनाओं को उन इलाक़े से पहुंचने तक रोक दिया, जहाँ अब तक पहुँच जाने की कल्पना रूसी कमांडरों ने की होगी.
इससे यूक्रेन को अपने लिए बहुमूल्य समय भी मिल गया. भारी सैन्य साज़ों सामान की दौड़ चल रही है, हर पक्ष ये चाहता है कि मोर्चे पर आमने-सामने आने से पहले वो भारी सैन्य हथियारों को मैदान में ले आए. हम इस दिशा में अगले कुछ सप्ताह में बहुत कुछ होता हुआ देंखेंगे.
हालांकि डोनबास में जो होगा उससे पुतिन के पास सिर्फ़ अलग-अलग तरह की हार के ही विकल्प होंगे.
यदि युद्ध सर्दियों तक खिंचता है और गतिरोध बना रहता है तो उनके पास इतने बड़े नुक़सान और विनाश के बदले मे दुखाने के लिए बहुत कुछ नहीं होगा.
यदि सैन्य परिस्थितियां बदलती हैं और पुतिन की सेनाओं को पीछे हटना पड़ता है, तो उनके सामने और मुश्किल हालात होंगे. और यदि रूसी सेनाएं समूचे डोनबास क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने में कामयाब भी हो जाती हैं तो इस क़ब्ज़े को अनिश्चितकालीन भविष्य तक बनाए रखना आसान नहीं होगा, वो भी तब जब दसियों लाख यूक्रेनवासी उनकी उपस्थिति वहाँ नहीं चाह रहे होंगे.
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रूस की कोई भी बड़ी सैन्य कामयाबी खुले और व्यापक विद्रोह को जन्म लेगी और जैसे-जैसे रूस यूक्रेन के शहरों पर क़ब्ज़ा करता जाएगा, ये विद्रोह बढ़ता जाएगा.
पुतिन ने फ़रवरी में अपने प्लान ए को कामयाब बनाने में ही अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी. उस योजना के नाकाम होने का मतलब ये है कि रूस का प्लान बी या सी या आगे कोई और प्लान में भी रूस को पूरी ताक़त झोंकनी पड़ेगी. एक बड़े देश के कुछ हिस्से या पूरे इलाक़े को दबाने के लिए ये ज़रूरी भी होगा.
पश्चिमी देश यूक्रेन को हथियार और पैसा भेजते रहेंगे और रूस पर लगाए गए सख़्त प्रतिबंधों को जल्द ही नहीं हटाएंगे. एक बार जब रूस पर यूरोप की ऊर्जा निर्भरता बहुत हद तक कम हो जाएगी तब रूस के पास यूरोप के लिए बहुत कुछ नहीं होगा और अमेरिका और यूरोप रूस की अर्थव्यवस्था को कमज़ोर करने वाले प्रतिबंधों को जारी रखेंगे, इसका उनकी अपनी अर्थव्यवस्था पर सीमित असर ही होगा.