रणदीप हुड्डा नई वेब सीरीज ‘इंस्पेक्टर अविनाश’ को लेकर चर्चा में है, जिसमें वह यूपी के रियल और सुपर कॉप अविनाश मिश्रा की भूमिका निभा रहे हैं। नवभारत टाइम्स से बातचीत में रणदीप हुड्डा ने अपनी पर्सनल लाइफ से लेकर प्रफेशनल फ्रंट को लेकर ढेर सारी बातें की हैं।
रणदीप आपने ‘इंस्पेक्टर अविनाश’ पर अपने पूरे दो साल खर्च किए तो अब आपको जब अपने रोल के लिए तारीफ मिल रही है, तो कैसा महसूस हो रहा है?
मैं बहुत शुक्रगुजार महसूस कर रहा हूं। मैंने इस पर अपने पूरे दो साल लगाए, अब इसका अंजाम इतना मीठा है, ये सीरीज और मेरा काम लोगों को पसंद आ रहा है। मैं इसमें लेखक-निर्देशक नीरज पाठक को थैंक्स करना चाहूंगा, जो उन्होंने मुझे इस रोल के लिए चुना। साथ ही मैं इंस्पेक्टर अविनाश जी का धन्यवाद अदा करना चाहूंगा, जो उन्होंने मुझे अपने जीवन, उनके सीनियर्स और घर-परिवार से जोड़ा। जैसा कि आपको पता ही है कि ये यूपी के सुपर कॉप अविनाश मिश्रा की जिंदगी पर आधारित है, तो इस किरदार में आप जो दबंगई और मिठास देख रहे हैं, वो मिश्रा जी की ही देन है। हमने जब इस सीरीज की शूटिंग शुरू की थी, तो इतनी दिक्क्तें आई थीं, कभी कोविड, तो कभी कुछ और, मगर आज जीयो सिनेमा पर जिस तरह से लोगों का रिएक्शन मिला है, उससे मुझे गर्व है कि मेरी ऑडियंस को एक नया रणदीप हुड्डा देखने को मिला है।
आप अपनी भूमिकाओं की रूह में जाने के लिए प्रसिद्ध हैं। कई एक्टर्स का कहना है कि कई बार वे अपनी भूमिका में इतना डूब जाते हैं कि रील और रियल लाइफ के बीच की रेखा ब्लर हो जाती है, आपका अनुभव?
अब मेरे रोल्स में रील और रियल लाइफ की रेखा इतनी धुंधली पड़ जाए कि मैं इंस्पेक्टर अविनाश बनकर लोगों को गोलियां मारता फिरूं, तो ये बकवास है। आपके पास कॉल टाइम, लंच टाइम और यूनिट होती है, लोग होते हैं, तो आप अपने सेन्स में होते हैं। मगर मानसिक प्रभाव पड़ता है, अब जैसे हाईवे के बाद उस रोल का इतना प्रभाव पड़ा कि मैं अवसादग्रस्त हो गया था। अब जैसे सावरकर की भूमिका या उससे पहले सरबजीत की भूमिका के लिए मैंने वजन घटाने के लिए डायटिंग की, तो ऐसे समय में मैं हैंगरी (भूखा और गुस्से वाला) बन जाता हूं। ऐसे समय में मैं बर्दाश्त के बाहर हो जाता हूं। खाना न खाने से जो चिड़चिड़ापन आता है, उससे आपकी बॉडी पर एक अलग ही प्रभाव पड़ता है। मगर इंस्पेक्टर अविनाश के समय मेरी मां बहुत खुश थीं, क्योंकि इस रोल के लिए मैंने वजन बढ़ाया और मैं खूब खा-पी रहा था। मेरी मां बोलीं, ‘बेटा इस बार तूने बहुत अच्छा रोल लिया है। खा -पी रहा है, सो रहा है। खाते -पीते घर का गोल-मटोल लग रहा है। इतना हैंडसम तू कभी लगा ही नहीं।’ हालांकि मेरी तो तोंद-वोंद निकल आई थी, मगर मेरी मां खुश थी। यह किरदार मेरे लिए इसलिए भी अलग था कि जिनकी बायोग्राफी मैंने की, उनसे मुझे निजी जिंदगी में मिलने का मौका नहीं मिला, इसमें मुझे मिश्रा जी ने बहुत समय दिया। चार्ल्स शोभराज से भी मैं जब फिल्म रिलीज पर थी, तब नेपाल में मिला था।
आपके बारे में कहा जा रहा है कि रंग रसिया (राजा रवि वर्मा के जीवन पर आधारित), सरबजीत (सरबजीत सिंह) चार्ल्स (चार्ल्स शोभराज), वीर सावरकर (सावरकर), इंस्पेक्टर अविनाश के बाद आप बायोग्राफी स्पेशलिस्ट बन चुके हैं।
मैं अपने मेकर्स का शुक्रगुजार हूं कि वे मुझे इस तरह की मुश्किल भूमिकाओं के लिए चुनते हैं। मेरे शुभचिंतकों ने बताया है कि तुम अपनी भूमिकाओं में खोकर खुद को ज्यादा बदल देते हो, इसलिए तुम्हारी कोई एक पक्की छवि नहीं बन पा रही है, इसी कारण आपको वो स्टारडम नहीं मिल पा रहा जो मिलना चाहिए। मेरा कहना ये है कि जब मुझे अपने काम में ही मजा नहीं आएगा, तो मैं स्टारडम का अचार डालूंगा। आज 22 साल बाद अगर लोग मेरे काम की इज्जत कर रहे हैं और मैं अपने मन मुताबिक काम कर पा रहा हूं, तो यही मेरे लिए बड़ी नेमत है। न मैं किसी पार्टी या इवेंट में जाता हूं, न मेरी कोई लॉबी है। फिर भी मैं अपने मन की कर पा रहा हूं। मुझे बहुत तकलीफ रहती है, इमोशनली, फिजिकली और फाइनेंशियली, साथ ही मैं बहुत अनिश्चितता से भी गुजरता हूं। अब जैसे मैंने इस प्रॉजेक्ट में अपने दो साल लगा दिए। मेरे पेरेंट्स और दोस्त -यार भी बहुत चिंतित रहते हैं, इस बात को लेकर, मगर अब मेरा काम बोल रहा है। देखिए, जब आप कम काम करते हैं, तो आपकी कमाई भी कम होती है।
तो क्या एक हीरो के रूप में खुद की पब्लिक इमेज बनाए रखने के लिए कभी आर्थिक दबाव से गुजरना पड़ा है? हमारे यहां लोग हीरो को खास गाड़ी या रहन -सहन में देखने के आदी हैं।
मुझे इन सब चीजों का लोभ नहीं है। ऐसा नहीं है, मैं बहुत अच्छी तरह से रहता हूं। मेरे पास गाड़ी-घोड़े सब कुछ हैं। मगर मेरा ऐसा नहीं है कि मैं इसी गाड़ी में जाऊंगा या यहीं खाऊंगा। कई बार मैं ऑटो पकड़ कर भी निकल जाता हूं। कई बार किसी की बाइक पकड़कर चल देता हूं। मुझे मटीरियलिस्ट चीजों से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता और ऐसा भी नहीं है कि मैं भुखमरी से गुजर रहा हूं या स्ट्रगल कर रहा हूं, मगर एक जो कम्फर्ट होता है न कि अब मैं पूरी जिंदगी भर अगर काम न करूं तो भी चल जाएगा, वो मेरे साथ कभी नहीं रहा है। एक बात बताऊं, जिसके पास घोड़े होते हैं, वो घोड़े बेचकर सो नहीं पाता। इसीलिए मैंने अपने घोड़े नहीं बेचे कि कहीं मैं घोड़े बेचकर सो न जाऊं।
ये आपकी क्रिएटिविटी का ही विस्तार है कि आप निर्माता–लेखक-निर्देशक के रूप में वीर सावरकर ला रहे हैं?
सावरकर के रूप में मेरा सफर तो एक अदाकार के रूप में हुआ था, मगर ऊपर बैठे सावरकर जी की रूह में कुछ और चल रहा होगा। ये उन्हीं की मेहरबानी है कि मैं एक्टर से लेखक फिर लेखक से निर्देशक और निर्देशक से निर्माता बन गया। मैंने तो सोचा था कि जब अभिनय करते हुए बूढ़े हो जाएंगे, तब निर्देशन करेंगे। मगर ये पड़ाव मेरे करियर में जल्दी आ गया। मैं इससे हताश भी हूं, क्योंकि अब मुझे हजार लोगों के सवाल सुनने पड़ते हैं। इससे मैं दबाव में भी हूं। मैंने भी जब तक उनके बारे में नहीं पढ़ा था, तब मैं उनके गहरे इतिहास से नावाकिफ था, जिन्हें भुला दिया गया है। हमारे देश में कई विचारधाएं हैं। हमारे स्वंतत्रता संग्राम में किसी एक का ही योगदान नहीं रहा है। बाकियों का क्या? इससे देश में मौजूद विभिन्न विचारधाराओं पर बातचीत होगी।
विभिन्न विचारधाराओं वाली फिल्मों की बात करें, तो आज देश, समाज और राजनीति को लेकर जिस तरह की फिल्में बन रही हैं, क्या आपको नहीं लगता उससे हमारा सेक्युलर फैब्रिक प्रभावित हो रहा है?
फिल्में कोई नई चीज नहीं बता रही है। हमने कहीं न कहीं पढ़ा है या खबरों में देखा है। हां, उसे किस नजरिए से पेश किया जाता है, उस पर ध्यान देना चाहिए। वो इंफॉर्मेटिव, एंगेजिंग और एंटेरटेनिंग हो, फिल्म का माध्यम ही यही है। उसे देखने के बाद उसे कौन किस तरीके से लेता है, उस पर कम ध्यान दिया जाता है और उस पर उठाए गए सियासी मुद्दों पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। मेरा मानना है कि हर तरह की फिल्में बननी चाहिए, जिसे जो देखनी है, वो देखे। जो सहमत हो, वो भी थी, न सहमत हो वो भी ठीक। इससे किसी का कुछ बिगड़ नहीं गया। हां, अगर बनाने वाले की नियत सही नहीं, तो उस पर आप सवाल उठा सकते हैं। उठाना भी चाहिए।
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की बात करें, तो एक समय ये प्रदीप शर्मा, आंद्रे आदि हीरो कहलाते थे, मगर फिर इन पर संगीन आरोप लगे, आप क्या कहना चाहेंगे? आप एनकाउंटर को कितना सही मानते हैं?
पहली बात तो ये है कि अविनाश जी के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्हें तो उल्टा सम्मानित किया गया। बाकियों पर मैं क्या टिप्पणी करूं? वक्त-वक्त की बात है। अब कौन कहां है और किससे किसको क्या चाहिए? जहां तक एनकाउंटर की बात है, तो जब बात हद से ज्यादा आगे बढ़ जाए, तो मामले हाथ में लेने पड़ते हैं। हमारे संविधान में पुलिस ही एक ऐसा महकमा है, जिसे शातिर अपराधियों को डराया जा सके। अब पुलिस इसे कैसे हैंडल करती है, ये उनका काम है, मैं इस पर क्या ही कहूं?
प्यार-मोहब्बत की बात करूं, तो आप जैसे चर्चित और समर्थ अभिनेता का रिलेशनशिप स्टेटस क्या है?
देखिए, मैंने इस बारे में कभी बात नहीं की है। बस इतना कह सकता हूं कि मैं खुश हूं।