हिमाचल के चंबा में पानी नहीं बरसने से आहत कोट जुखराडी क्षेत्र के लोगों ने आज ‘केहलूर नाग देवता’ के द्वार पर दस्तक दी है. उन्होंने वर्षा के लिए गुहार लगाई है. मनन वर्षा के आगमन के लिए सदियों पुरानी परंपरा को क्षेत्र के लोगों ने पुनर्जीवित किया, जिसका निर्वहन वे लगभग 20 सालों से बिसरा चुके थे. कोट जुखराड़ी स्थित प्राचीन कहलूर नागराज के मंदिर से रावी नदी के तट तक नागराज मंदिर के बाहर स्थापित नागराज के वाहन जो त्रिशूल का प्रतिरूप होता है, उसे विभिन्न वाद्य यंत्रों की मंगल ध्वनियों और क्षेत्रवासियों के जयघोष के साथ रावी नदी के किनारे पूरी आस्था और विधि विधान के साथ स्थापित किया गया और इसका असर ये हुआ कि मौसम बदला और इलाके में बूंदाबांदी हो गई.
आधुनिक युग में मानव बेशक चांद पर घर बनाने के लाख दावे कर ले लेकिन वास्तविकता यह है कि, प्रकृति और ईश्वरीय शक्तियों के रुष्ट हो जाने पर उसे सदियों पुरानी मान्यताओं व परंपराओं के आगे नतमस्तक होना ही पड़ता है. विलुप्त होती उन प्राचीन मान्यताओं और परंपराओं की ‘आस्था’ ‘विश्वास को पुनर्जीवित करके मुंह मांगी मुरादों को पूरा होता देखकर नई पीढ़ी के लोग ना केवल अपने पूर्वजों की श्रद्धा और विश्वास की भावना को अनुभव करके हैरान ही होते हैं.
वर्तमान युग में भी प्रकृति और देवताओं के जीवंत अस्तित्व का बोध करके रोमांचित भी होते हैं. लम्बे अरसे से समूचा प्रदेश वर्षा ना होने के कारण भीषण गर्मी से झुलस रहा है. प्राकृतिक जलस्रोत सूख रहे हैं, पीने के पानी की कमी और खेतों में सिंचाई के बिना बंजर होते खेतों की दुर्दशा को देखकर सभी लोग चिंतित हैं. ऐसे में जगह-2 लोग अपनी प्राचीन मान्यताओं और परंपराओं को पुण: पुनर्जीवित करके आसमान की ओर आशा भरी नजरों से देख रहे हैं. एक पहलू ये भी है कि प्रदेश के बहुत से हिस्सों में अब तक ईश्वर कृपा से मेघ बरस रहे हैं.
बहुत से क्षेत्रों में स्थिति पूर्ववत ही बनी हुई है. वर्षा के ना बरसने से आहत जिला चंबा के “कोट जुखराडी” क्षेत्र के लोगों ने “केहलूर नाग देवता” के द्वार पर दस्तक दी है और वर्षा के लिए गुहार लगाई है. मनन वर्षा के आगमन के लिए सदियों पुरानी परम्परा को क्षेत्र के लोगों ने पुनर्जीवित किया, जिसका निर्वहन वे लगभग 20 सालों से करना बिसरा चुके थे.
कोट जुखराड़ी स्थित प्राचीन कहलूर नागराज के मंदिर से रावी नदी के तट तक नागराज मंदिर के बाहर स्थापित नागराज के वाहन जो त्रिशूल का प्रतिरूप होता है उसे विभिन्न वाद्य यंत्रों की मंगल ध्वनियों और क्षेत्रवासियों के जयघोष के साथ रावी नदी के किनारे पूरी आस्था और विधि विधान के साथ स्थापित किया गया.
मान्यता यह है कि इस वाहन को तब तक वापस मंदिर में पुनर्स्थापित नहीं किया जाता है जब तक क्षेत्र में वर्षा का आगमन नहीं होता है. इस प्राचीन मान्यता अथवा परंपरा का एक अन्य सशक्त पहलू यह भी देखने को मिला कि यात्रा में शामिल होने वाले सभी लोग “नाग देवता के वंशजों” का रूप धारण करने के लिए अपने चेहरे पर काला टीका या कालिख पोत कर चल रहे थे और नागराज से वर्षा के लिए गुहार लगा रहे थे.
श्वेत ध्वज और नागराज के वाहन को लेकर कहलूर नाग मंदिर के प्रांगण से आरंभ यह यात्रा क्षेत्र के सभी घरों के बाहर लोगों को न्योता देती हुई निरंतर आगे बढ़ रही थी और लोग अपने घरों से बाहर निकलकर अपनी आस्था व सामर्थ्य अनुसार अन्न व धन अर्पित कर रहे थे. रावी नदी के तट पर नागराज के वाहन के पूजन उपरांत लखदाता पीर की छिंज की रस्म की अदायगी की गई.
शिव भोले शंकर की नगरी में शिव के गुर अथवा चेले द्वारा एंचली के बाद वर्षा का आह्वान किया गया. लोगों की प्राचीन मान्यताओं और परंपराओं की आस्था की पराकाष्ठा उस वक्त देखने को मिली जब इन सभी मान्यताओं के धार्मिक अनुष्ठान पूर्ण होने के पश्चात इंद्रदेव ने हल्की बौछारों से नाग देवता की इस परम्परा को अपनी उपस्थिति का भान करवाया.