आरके धवन संभवत: इंदिरा गाँधी के सबसे नज़दीकी सहयोगी थे. जब तक वो ज़िंदा रहीं, धवन को उनके आसपास ही देखा गया.
नेहरू-गाँधी परिवार का इतना वफ़ादार शायद ही कोई रहा होगा. उनका जलवा ऐसा था कि बड़े से बड़े नेता और रईस जो इंदिरा गांधी से मिलना चाहते थे आरके धवन को धवन साहब कह कर पुकारते थे.
हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘लीडर्स, पॉलिटीशियंस, सिटीज़ेन्स फ़िफ़्टी फ़िगर्स हू इनफ़्लुएंस्ड इंडियन पॉलिटिक्स’ के लेखक रशीद किदवई बताते हैं, “70 के दशक में धवन हरकारे के रूप में मशहूर हो गए. इंदिरा गाँधी अपने मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और पार्टी प्रमुखों से सीधे संपर्क रखने में यकीन नहीं रखती थीं. उन तक जो भी निर्देश पहुंचाने होने थे या उन्हें अच्छी या बुरी ख़बर सुनानी होती थी धवन के ज़रिए पहुंचाई जाती थी. इसका उद्देश्य ये होता था कि अगर सब कुछ ठीक नहीं रहा तो इसकी ज़िम्मेदारी धवन उठाते थे.”
21 सालों में एक दिन भी छुट्टी नहीं ली
कैथरीन फ़्रैंक इंदिरा गांधी की जीवनी में लिखती हैं, “धवन के बाल काले होते थे. वो अपने बालों में तेल लगा कर करीने से काढ़ते थे. उनके चेहरे पर हमेशा कोलगेट मुस्कान रहा करती थी. वो हमेशा सफ़ेद बुर्राक कपड़े पहना करते थे लेकिन उनके जूते हमेशा काले होते थे. वो अपने जीवन के अंतिम पड़ाव तक अविवाहित रहे. उनकी अपनी कोई निजी ज़िंदगी नहीं होती थी.”
इंदिरा गाँधी पर एक और किताब ‘ऑल द प्राइम मिनिस्टर्स मेन’ लिखने वाले जनार्दन ठाकुर लिखते हैं, “धवन ने मुझे खुद बताया था कि वो इंदिरा के साथ सुबह 8 बजे से लेकर रात तब तक रहते थे जब तक वो सोने नहीं चली जाती थीं. साल के पूरे 365 दिनों तक उनकी यही दिनचर्या रहती थी. वर्ष 1963 से जब से उन्होंने इंदिरा गाँधी के लिए काम करना शुरू किया था, उन्होंने कभी एक दिन की भी छुट्टी नहीं ली थी, कोई कैजुअल लीव नहीं, कोई अर्जित अवकाश नहीं, त्योहार पर भी कोई छुट्टी नहीं. घर पर या जब वो यात्रा करती थीं या जब वो विदेश जाती थीं, धवन हमेशा साए की तरह उनके साथ रहते थे.”
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स्टेनोग्राफ़र के रूप में ऑल इंडिया रेडियो से शुरू किया करियर
धवन के बारे में कहा जाता था कि वो इंदिरा गांधी को हर विषय पर सलाह देते थे राजनीतिक नियुक्तियों से लेकर विदेश नीति तक. कुछ लोग तो यहाँ तक कहते थे कि इंदिरा गाँधी के बाद वो ही देश को चला रहे हैं.
प्रणय गुप्ते इंदिरा गाँधी की जीवनी ‘मदर इंडिया अ पॉलिटिकल बायोग्राफ़ी ऑफ़ इंदिरा’ में लिखते हैं, “धवन का जन्म चंयोट में हुआ था जो आज पाकिस्तान में है. वर्ष 1947 में वो और उनका परिवार शरणार्थी के रूप में दिल्ली आए थे. धवन ने एक स्टेनोग्राफ़र के रूप में ऑल इंडिया रेडियो में अपने करियर की शुरुआत की थी.”
“जब 1962 के न्यूयॉर्क वर्ल्ड फ़ेयर में इंदिरा गांधी को भारतीय बूथ का प्रमुख बनाया गया तो धवन उनके साथ काम करने लगे. जब इंदिरा गाँधी सूचना और प्रसारण मंत्री बनीं तब भी धवन उनके साथ रहे. उस ज़माने के घाघ कांग्रेस नेताओं से निपटने में धवन को इंदिरा गाँधी का गुप्त हथियार माना जाता था. बाद में धवन ने यही भूमिका राजीव गांधी और 1991 में प्रधानमंत्री बने नरसिम्हा राव के लिए भी निभाई.”
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संजय गांधी और आरके धवन की जुगलबंदी
आरके धवन को सबसे पहले इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पहचानने का श्रेय दिया जाता है.
रशीद क़िदवाई बताते हैं, “जब संजय गांधी ब्रिटेन में रॉल्स रोईस कंपनी से इंटर्नशिप करके लौटे तो धवन ने ही उन्हें सबसे पहले कांग्रेस के बड़े नेताओं से मिलवाना शुरू किया. उन्होंने कुछ कांग्रेस नेताओं को ये सलाह भी दे डाली कि वो इंदिरा गाँधी के सामने संजय गाँधी की तारीफ़ करें. कुछ महीनों के अंदर ही इंदिरा को अपने बेटे की राजनीतिक समझ का अंदाज़ा लगना शुरू हो गया.”
“आपातकाल लगने तक धवन माँ और बेटे के सबसे अधिक विश्वासपात्र बन गए. धवन ने ही प्रधानमंत्री निवास पर संजय गाँधी के कमरे में एक ख़ास टेलीफ़ोन लाइन लगवाई थी जिससे संजय गाँधी कांग्रेस के शासन वाले राज्यों के मुख्यमंत्रियों को निर्देश दिया करते थे. अधिकतर मामलों में इंदिरा गांधी तक को संजय के बढ़ते ग़ैर संवैधानिक असर का अंदाज़ा ही नहीं था.”
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आरके धवन के रसूख का ज़बरदस्त चित्रण इंदिरा गाँधी के ज़माने में प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव रहे बिशन टंडन ने अपनी ‘पीएमओ डायरी’ में किया है.
टंडन लिखते हैं, “धवन का प्रधानमंत्री पर बहुत असर है. हक्सर साहब के प्रधानमंत्री से तनाव होने में धवन का बहुत बड़ा हाथ था. जब धवन का प्रभाव बढ़ने लगा तो प्रोफ़ेसर पीएन धर ने मुझसे कहा कि वो धवन के असर को कम करवाने की कोशिश करेंगे. लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. एक दिन उन्होंने मुझसे कहा, बिशन मैं पूरी तरह हार गया. प्रधानमंत्री धवन के ख़िलाफ़ एक शब्द भी सुनने के लिए तैयार नहीं हैं. धवन का नौकरशाही पर इस कदर असर था कि दिल्ली के उप राज्यपाल किशन चंद के पास जब धवन का फ़ोन आता था तो वो खड़े होकर फ़ोन पर बात करते थे.”
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इमरजेंसी में धवन की भूमिका
इमरजेंसी लगने से तीन दिन पहले धवन केंद्रीय गृह सचिव के स्थान पर राजस्थान के मुख्य सचिव एसएल खुराना को नया गृह सचिव बनवाने में सफल हो गए.
धवन, गृह राज्य मंत्री ओम मेहता और उस समय हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसी लाल के निर्देशों के तहत ही 25 जून, 1975 की रात इमरजेंसी घोषित होने वाले दिन सभी समाचारपत्रों की बिजली काट दी गई.
इमरजेंसी के बाद आरके धवन ने ज़रूर अपने आप को आपातकाल में होने वाली ज़्यादतियों से अलग करने की कोशिश की.
उन्होंने इमरजेंसी पर किताब ‘इमरजेंसी अ पर्सनल हिस्ट्री’ लिखने वाली कूमी कपूर को बताया था कि “इमरजेंसी के असली विलेन सिद्धार्थ शंकर रे थे.”
आरके धवन ने कूमी कपूर को दिए इंटरव्यू में कहा था, “शाह कमीशन की सुनवाई के दौरान रे ने इंदिरा गाँधी के पास जाकर कहा था, आप बहुत फ़िट दिखाई दे रही हैं. इंदिरा गाँधी ने बहुत ठंडेपन से जवाब दिया था, आप मुझे फ़िट दिखाने के लिए अपनी तरफ़ से पूरा ज़ोर लगा रहे हैं. इसके बाद इंदिरा गाँधी ने सिद्धार्थ शंकर रे से कभी बात नहीं की.”
रे ने अपनी गवाही के दौरान आपातकाल की ज़्यादतियों में किसी भी तरह शामिल होने से इनकार किया और सारा दोष इंदिरा और संजय गाँधी पर मढ़ दिया. आरके धवन ने हमेशा इंदिरा गाँधी का बचाव करते हुए इमरजेंसी लगाने के लिए इंदिरा गांधी को गुमराह करने का दोष सिद्धार्थ शंकर रे और कानून मंत्री एचआर गोखले पर मढ़ा था.
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इंदिरा के ख़िलाफ़ गवाही देने से इनकार
नटवर सिंह का मानना है कि इंदिरा के प्रति धवन की निष्ठा ज़बरदस्त थी. इंदिरा भी सभी मानवीय गुणों में संपूर्ण निजी निष्ठा को सबसे अधिक पसंद करती थीं. इंदिरा के चुनाव हारने के बाद आरके धवन के गिरफ़्तार कर लिया गया.
एक इंटरव्यू में धवन ने कहा, “चरण सिंह चाहते थे कि मैं शाह कमीशन में इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ गवाही दूँ, नहीं तो मुझे कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है. मैंने उन्हें कहलवा भेजा कि मैं समस्याओं का सामना करने के लिए तैयार हूँ लेकिन मैं उनके ख़िलाफ़ गवाही नहीं दूँगा.”
इंदिरा गांधी की मौत के बाद धवन पड़े अलग-थलग
वो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख़बरें जो दिनभर सुर्खियां बनीं.
ड्रामा क्वीन
समाप्त
वैसे तो धवन शुरू से ही धार्मिक थे और सुबह इंदिरा गांधी के निवास पहुंचने से पहले अपनी कार मोड़कर तुग़लक रोड के मंदिर में ले जाया करते थे जहाँ वो सिर झुकाया करते थे. इंदिरा गाँधी की हत्या की जाँच कर रहे ठक्कर कमीशन की रिपोर्ट में जब उनका नाम आया तो वो और अधिक धार्मिक हो गए और बाबा खड़क सिंह मार्ग पर स्थित हनुमान मंदिर पर जाने लगे.
रशीद किदवई बताते हैं, “जब इंदिरा गांधी पर उनके दो सुरक्षा गार्ड्स ने गोली चलाई तो वो उनसे दो कदम पीछे चल रहे थे. एक जगह ये दावा किया गया कि बेअंत सिंह ने सतवंत सिंह को निर्देश दिए थे कि धवन किसी भी तरह गोलियों की चपेट में नहीं आने चाहिए. ठक्कर कमीशन की रिपोर्ट के कुछ अंशों को रिपोर्ट पेश किए जाने से पहले ही इंडियन एक्सप्रेस में छाप दिया गया. इस रिपोर्ट में शक की सुई धवन पर उठी थी. उस समय के प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गाँधी ने आरके धवन से पिंड छुड़ाने में बिल्कुल भी देर नहीं की.”
इंदिरा गांधी की मौत के बाद धवन एक तरह से अनाथ हो गए.
कुमकुम चड्ढा अपनी किताब ‘द मैरीगोल्ड स्टोरी’ में लिखती हैं, “धवन के पीछे सारी जाँच एजेंसियाँ हाथ धोकर पड़ गईं और वो लंबे समय तक राजनीतिक एकांतवास में रहे. एक ज़माने में किंगमेकर की भूमिका निभाने वाले आरके धवन अचानक बिल्कुल अलग-थलग पड़ गए. उनके नज़दीकी लोगों ने भी उनसे मिलना-जुलना छोड़ दिया. कई लोगों का करियर बनाने वाले लोगों में से कोई भी धवन के लिए खड़ा होने के लिए तैयार नहीं हुआ.”
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संगमा से उलझे आरके धवन
करीब दो साल तक धवन शक के दायरे में रहे. लेकिन जब राजीव गांधी बोफ़ोर्स मामले में फँसे और विश्वनाथ प्रताप सिंह और अरुण नेहरू ने विद्रोह किया तो उन्हें धवन की फिर याद आई और उन्होंने 1988 में धवन को बुलवा भेजा. धीरे-धीरे धवन अपने पुराने रंग में आने लगे और उनके दफ़्तर के बाहर एक बार फिर कांग्रेस मुख्यमंत्रियों, केंद्रीय मंत्रियों और पार्टी नेताओं की लाइन लगने लगी.
राजीव गाँधी के जाने के बाद सोनिया गांधी ने भी धवन को वही महत्व दिया. नरसिम्हा राव ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया.
रशीद किदवई बताते हैं, “15 मई, 1998 को जब कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में पीए संगमा ने शरद पवार के समर्थन से सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाया तो कांग्रेस के सभी चोटी के नेता प्रणव मुखर्जी, मनमोहन सिंह, अर्जुन सिंह और ग़ुलाम नबी आज़ाद उनका भाषण सुनते रहे. आरके धवन अकेले शख़्स थे जिन्होंने संगमा के भाषण के बीच में उन्हें टोकते हुए कहा कि आप क्या बकवास कर रहे हैं? सोनिया की तरफ़ मुड़ कर उन्होंने कहा, “मैडम इस लड़ाई में आप अकेले नहीं हैं. हम सब आपके साथ हैं.”
“कांग्रेस के इनसाइडर्स ने मुझे बताया कि सोनिया गाँधी आरके धवन के इस तरह उनके बचाव में उतरने से बहुत प्रभावित हुई थीं. वो ये देख कर दंग थीं कि जो काम माधवराव सिंधिया, प्रणव मुखर्जी और अंबिका सोनी नहीं कर सके, वो आरके धवन ने कर दिखाया था.”
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74 साल की उम्र में विवाह
लगभग पूरी उम्र अविवाहित रहने के बाद धवन ने वर्ष 2011 में 74 साल की उम्र में 59 साल की अचला मोहन से शादी की थी. तब तक वो सक्रिय राजनीति से एक तरह से संन्यास ले चुके थे.
वो और अचला मोहन एक दूसरे को 70 के दशक से जानते थे.
अचला का पहले एक पायलट से विवाह हुआ था और वो कनाडा चली गईं थीं. लेकिन फिर उनका 1990 में अपने पति से तलाक हो गया.
शादी से बहुत पहले धवन और अचला एक युगल के तौर पर शादियों और समारोहों में भाग लेते थे.
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इंडियन एक्सप्रेस की संवाददाता रितु सरीन को दिए इंटरव्यू में धवन ने अचला से शादी करने का कारण बताया था.
एक बार जब उन्हें बहुत तेज़ वायरल बुख़ार हुआ तो उन्हें अस्पताल में भर्ती कराने की नौबत आ गई.
अचला ने उनका बहुत ख़याल रखा लेकिन अस्पताल के अधिकारियों ने ज़ोर दिया कि इलाज के लिए किसी नज़दीकी रिश्तेदार को कनसेंट फॉर्म पर दस्तख़त करने होंगे.
धवन को ये बात बहुत बुरी लगी कि उनका इतना ख़याल रखने के बावजूद वो उस फ़ॉर्म पर दस्तख़त नहीं कर पाईं. उसी दिन उन्होंने इस रिश्ते को औपचारिक रूप देने का फ़ैसला कर लिया.