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रूस ने यूक्रेन में युद्ध की वजह से भारत लौटे मेडिकल छात्रों को अपने यहां पढ़ाई करने का ऑफ़र दिया है. लेकिन पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों की वजह से भारतीय छात्र इस ऑफ़र को लेकर उत्साहित नज़र नहीं आ रहे हैं.
रूसी दूतावास के अधिकारी रोमन बाबुश्किन ने पिछले हफ़्ते केरल में इस मुद्दे पर बयान दिया था जहां यूक्रेन से लौटे मेडिकल छात्रों की संख्या अच्छी-ख़ासी है.
इससे पहले मार्च में भी रूस ने ऐसी ही पेशकश की थी.
इस साल 24 फ़रवरी को रूसी सेनाएं यूक्रेन में दाख़िल हो गई थीं जिसके बाद से दोनों पक्षों में भीषण जंग जारी है.
युद्ध शुरू होने के बाद भारत सरकार यूक्रेन में पढ़ रहे क़रीब 22,000 छात्रों को वापस लेकर आई थी. इन सभी छात्रों की पढ़ाई में तब से ख़लल पड़ा है.
ऑनलाइन क्लासेज़ नहीं होना
पश्चिमी यूक्रेन में स्थित कुछ यूनिवर्सिटीज़ ने ऑनलाइन कक्षाएं शुरू कर दी हैं. लेकिन पूर्वी यूक्रेन पूरी तरह से युद्ध की चपेट में है और वहां के कॉलेजों के लिए ऑनलाइन क्लास देना अब भी संभव नहीं है.
मेडिकल की पढ़ाई में प्रैक्टिकल क्लासेज़ अहम होती हैं और ये छात्र, युद्ध के कारण क्लासेज़ नहीं ले पा रहे हैं.
रूसी दूतावास के अधिकारी बाबुश्किन ने बीबीसी हिंदी से कहा है कि “अगर छात्रों को उनकी पसंद के रूसी कॉलेजों में दाख़िला मिलता है तो हम छात्रों की मदद के लिए तैयार हैं. रूस के शिक्षा विभाग की वेबसाइट पर इस बारे में सारी जानकारी उपलब्ध है. ये जानकारी दिल्ली, तिरुवनंतपुरम, कोलकाता, मुबंई और चेन्नई के रूसी केंद्रों में भी उपलब्ध है.”
केरल के तिरुवनंतपुरम में रूसी फ़ेडरेशन के अधिकारी काउंसल रतीश सी नायर ने बीबीसी हिंदी से कहा है कि “हमें छात्र समुदाय से क़रीब 500 पत्र मिले हैं. छात्र तो प्रश्न पूछ ही रहे हैं पर एजेंट भी सवाल भेज रहे हैं.”
छात्र उत्साहित नहीं
तमाम मुसीबतें झेलकर यूक्रेन से भारत लौटे छात्र रूसी पेशकश के प्रति अधिक उत्साहित नहीं लग रहे हैं. छात्रों को इस बात की आशंका है कि पश्चिमी देशों की पाबंदियों के कारण उनकी रूसी डिग्री को मान्यता मिलेगी या नहीं.
मुकुल चौधरी यूक्रेन की इवानो नेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी में चौथे वर्ष के मेडिकल के छात्र हैं.
उत्तर प्रदेश के रहने वाले मुकुल ने फ़ोन पर बीबीसी को बताया है कि “अगर रूस से पढ़ाई करने के बाद मैं पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए अमेरिका जाऊं तो मेरी डिग्री को मान्यता नहीं मिलेगी. हम पढ़-लिख कर भारत लौटकर अपनी सारी ज़िंदगी यहां व्यतीत नहीं करना चाहते.”
इसके अलावा मुकुल का कहना है कि रूस में फ़ीस भी यूक्रेन से कहीं अधिक है.
वे कहते हैं, “यूक्रेन की यूनिवर्सिटी में औसत फ़ीस सालाना चार हज़ार डॉलर है. कुछ जगह पांच हज़ार डॉलर तक भी फीस है. लेकिन रूस में ये फ़ीस 12 हज़ार डॉलर तक है. हम मध्यम वर्ग से आते हैं. इतने पैसे देना हमारे बूते का काम नहीं है.”
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केरल के रूसी केंद्र के अधिकारी रतीश सी नायर कहते हैं कि ‘ये छात्र रूस में ऐसे कॉलेज खोज सकते हैं जिनकी फ़ीस यूक्रेन के कॉलेजों जितनी हो.’
तमिलनाडु के छात्र एम्सन पश्चिमी देशों की पाबंदियों पर मुकुल चौधरी की राय का समर्थन करते हैं.
वे कहते हैं, “सबसे पहले मेरा ध्यान रूस पर पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों पर ही जाता है. वहां पढ़ना आसान नहीं है.”
एम्सन कीएव मेडिकल यूनिवर्सिटी में पांचवे वर्ष के छात्र हैं. इस यूनिवर्सिटी की शाखा पोलैंड में भी है.
एम्सन कहते हैं, “हमें अपनी यूनिवर्सिटी से सूचना मिली थी कि जो लोग पढ़ना चाहते हैं. वो पोलैंड वाली शाखा में दो महीने की इंटर्नशिप कर सकते हैं.”
लेकिन अन्य संस्थानों के पास ये सुविधा नहीं है. भारतीय छात्राओं के लिए सबसे बड़ी बाधा इंडियन मेडिकल काउंसिल के नियम हैं.
देश से बाहर मेडिकल की पढ़ाई करने वाले हर छात्र को अपनी पढ़ाई के पहले ही वर्ष में मेडिकल काउंसिल को इस बारे में सूचित करना होता है.
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रूस और चीन में मेडिकल की पढ़ाई करने वाले हर छात्र को भारत लौटर मेडिकल काउंसिल की परीक्षा पास करनी होती है. इस परीक्षा में पास करने के बाद ही उनकी डिग्री को मान्यता मिलती है. और पश्चिमी देश भी इसे मान्यता देते हैं.
इसके अलावा एक और नियम है जिसके मुताबिक आप जिस कॉलेज में पढ़ाई शुरू करते हैं उसी में पूरी करनी होती है.
बिहार के छात्र मोहम्मद महताब रज़ा कहते हैं, “दूसरे कॉलेज में एडमिशन से डरने की सबसे बड़ी वजह यही है. अगर हम इस नियम का पालन नहीं करते हैं तो कोर्स पूरा करने के बाद हमें सर्टिफ़िकेट ही नहीं मिलेगा.”
रज़ा सुमी स्टेट यूनिवर्सिटी में चौथे वर्ष के छात्र हैं.
वे कहते हैं, “शायद ही कोई यूनिवर्सिटी हमारे डॉक्यूमेंट रिलीज़ करे. इन डॉक्यूमेंट्स को ट्रांसक्रिप्ट कहते हैं. ये हमारे यहां का ट्रांसफ़र सर्टिफ़िकेट सरीख़ा होता है.”
रज़ा यूक्रेन से लौटने के बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों से मिलने वाले छात्रों के डेलिगेशन का हिस्सा थे. तब छात्रों ने भारत के मेडिकल कॉलेजों में एडमिशन की मांग की थी.
रज़ा बताते हैं, “किसी की ओर से हमारे भविष्य के बारे में जवाब नहीं आया है. कम से कम सरकार को कुछ कहना चाहिए था. सरकार तो बिल्कुल ख़ामोश बैठी है.”
विनित्सिया नेशनल यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले दिल्ली के सत्या भारती कहते हैं, “हमें लगा था कि हम इंडिया में कोई कोर्स कर लेंगे. अब लगता है कि सितंबर तक ऐसे ही ख़िंचेगा. शायद उन्हें लग रहा है कि तब तक यूक्रेन के हालत बेहतर हो जाएं और हम सब वापस लौट सकें.”
दूसरी भाषा सीखने की चुनौती
भारती की सबसे बड़ी दिक्कत है कि चौथे वर्ष की छात्र होने के कारण उन्हें मरीज़ों से उनकी स्थानीय भाषा यूक्रेनी में बात करनी होती है. लेकिन रूस में ये दिक्कत पेश आएगी.
उन्होंने कहा, “रूस में रूसी भाषा बोलनी पड़ेगी. हम अचानक एक नई भाषा कैसे सीख सकते हैं? हममें से अधिकतर ने कम फ़ीस की वजह से यूक्रेन में पढ़ाई करने का फ़ैसला किया था.”
उधर एम्सन को अब भी हालात सुधरने की उम्मीद है.
वे कहते हैं, “अगला सेमेस्टर सितंबर में शुरू हो रहा है तो हमारे पास अंतिम निर्णय लेने के लिए अगस्त तक का वक़्त है. उम्मीद है तब तक यूक्रेन के हालात का भी बेहतर आकलन लगाया जा सकेगा.”
एम्सन कहते हैं, “युद्ध के बाद क्या दो महीनों में हालात नॉर्मल हो सकते हैं?”
वहीं, मुकुल चौधरी कहते हैं कि सरकार हमारी बात नहीं समझ रही है और अब वक़्त भी अधिक नहीं बचा है.