साल 1912, महीना अप्रैल और तारीख 10, इंग्लैंड के साउथम्पैटन से एक शिप सैकड़ों यात्रियों के साथ अमेरिका के न्यूयार्क के लिए रवाना हुआ. नाम था टाइटैनिक, वही टाइटैनिक जिसे दुनिया के सबसे बड़े समुद्री हादसे के रूप में जाना गया. हालांकि अधिकतर लोगों ने इस नाम को केवल 1997 में आई एक फिल्म के तौर पर याद रखा.
उस समय कहा गया था कि ये पनिया जहाज कभी डूब नहीं सकता था, ईश्वर भी इसे डूबा नहीं सकता था.
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प्रकृति की ताकत को अनदेखा कर ऐसे दावे किये गए लेकिन उस समय किसी ने ये सोचा तक नहीं था कि भले ही ईश्वर इसे डुबा न सके लेकिन एक आइसबर्ग से हुई टक्कर इसे डुबाने के साथ-साथ 1,517 लोगों की जान भी ले सकती है. हालांकि हमारी आज की कहानी इस टाइटैनिक को लेकर नहीं है. टाइटैनिक के बारे में लोग जितना जान सकते थे उतना जान चुके हैं लेकिन उस समुद्री हादसे के बारे में आज भी बहुत कम लोग जानते हैं जो भारत में हुआ था.
जानने वाले लोग इसे भारतीय टाइटैनिक हादसे के नाम से याद करते हैं. इसके साथ ही ये भारत के आज तक के सबसे बड़े समुद्री हादसे के रूप में जाना गया. सैकड़ों मासूम लोगों की जान लेने वाले इस हादसे के बारे में अभी भी बहुत कम लोग जानते हैं.
स्कॉटलैंड में बना था एस एस रामदास
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इस हादसे की पहली कड़ी जुड़ी स्कॉटलैंड में, यहीं पर एसएस रामदास को बनाया गया था. सन 1936 में क्वीन एलिज़ाबेथ का जहाज बनाने वाली कंपनी स्वान और हंटर ने इसे बनाया. इस 406 टन वजनी जहाज की लंबाई 179 फ़ीट और चौड़ाई 29 फ़ीट थी. 1936 में स्वतंत्रता आंदोलन की लहर ने विदेश में बने 1000 यात्रियों को ले जाने की क्षमता रखने वाले इस जहाज को स्वदेशी बना दिया.
साधु संतों पर रखा गया जहाज का नाम
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बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा रहे राष्ट्रवादी लोगों ने ब्रिटिश शिपिंग कंपनियों को चुनौती देने के लिए कोंकण तट पर ‘सुखकर बोट सेवा’ की शुरुआत की. आगे चल कर ये इंडियन कोऑपरेटिव स्टीम नेविगेशन कंपनी के नाम से मशहूर हुई. इसी कंपनी ने रामदास को खरीदा था. लोग इसे ‘माझी आगबोट कंपनी’ कहने लगे. लोगों का इस कंपनी के प्रति उमड़ता स्नेह देख कंपनी ने अपने जहाजों को साधु संतों और भगवान के नाम दिए. रामदास के अलावा इस कंपनी के पास जयंती, तुकाराम, रामदास, संत एंथनी, संत फ़्रांसिस, संत ज़ेवियर्स आदि जैसे जहाज थे.
कहानी उस भयावह दिन की
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भारत का हो चुका ये जहाज समुद्र की लहरों पर भाग-दौड़ी करने लगा था. इसी भाग-दौड़ी के बीच दिन आया 17 जुलाई 1947 का, देश की आजादी से कुछ दिन पहले ही. उस दिन गटारी अमावस्या थी. सुबह के 8 बजे एसएस रामदास जहाज मुंबई के लोकप्रिय भाउ चा धाक्का से रेवास जाने के लिए तैयार खड़ा था. कुछ यात्री ऐसे थे जो अक्सर पानी के जहाजों पर सफर करते थे, कुछ अपने नए अनुभव को लेकर उत्साहित थे. ये सावन से पहले मनाया जाने वाला गटारी त्योहार का दिन था. इस दिन छुट्टी होने के कारण कई लोग चिकन और ताड़ी का आनंद लेने अपने घर जा रहे थे.
778 लोग थे सवार
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छुट्टी के कारण उस दिन आम दिनों से ज्यादा भीड़ थी. आम यात्रियों के अलावा जहाज पर मछुआरे और व्यापारी भी सवार हो रहे थे. साथ ही कुछ अंग्रेज अधिकारी भी अपने परिवार के साथ जहाज के ऊपरी डेक पर मौजूद थे. रिपोर्ट में बताया गया कि उस दिन जहाज पर कुल 778 लोग सवार हुए. इनमें 48 खलासी, चार अधिकारी, 18 होटल स्टाफ़ और 673 वैध यात्री थे. इसके अलावा जहाज पर 35 ऐसे यात्री सवार होने की भी बात कही गई थी जो बिना टिकट यात्रा कर रहे थे. ये सभी यात्री उस आने वाले बड़े खतरे से बिल्कुल अनजान थे जो इनकी जान लेने वाला था.
साफ मौसम के बावजूद होने लगी बारिश
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एक दिन पहले हुई बारिश के बावजूद 17 जुलाई को मौसम पूरी तरह साफ था. वॉर्फ सुपरिटेंडेंट की सीटी के बाद एसएस रामदास अपने आखिरी सफर के लिए कूच कर गया. 8 बजकर 35 मिनट तक एसएस रामदास ने सामान्य तरीके से आगे बढ़ते हुए अभी मुंबई से करीब 7.5 किलोमीटर आगे तक का ही सफर तय किया था. साफ मौसम के बावजूद ठीक इसी समय अचानक से तेज बारिश शुरू हो गई. बारिश से बचने के लिए यात्रियों के लिए तिरपाल रखे हुए थे. बारिश तक तो ठीक था लेकिन जहाज के लिए काल बना समुद्री लहरों का उफान.
लहरों के उफान में फंसा रामदास
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एस एस रामदास इस ऊफान में ऐसे फंसा जैसे मकड़ी के जाल में चींटी फंसती है. इसके बाद तेज चल रही हवाओं ने लहरों को और बल दिया और लहरों ने जहाज तिरछा कर दिया. जिस वजह से देखते ही देखते जहाज में पानी भरने लगा. कुछ देर पहले तक जो लोग खुश थे, उत्साहित थे अब वे चीख रहे थे, अपने अपने ईश्वर से बचाव की गुहार लगा रहे थे. जहाज पर मौजूद यात्रियों के पास जान बचाने के लिए लाइफ जैकेट का विकल्प तो था लेकिन ये सीमित संख्या में उपलब्ध थे. एक दूसरे के साथ हंस बोल रहे लोग अब अपनी जान बचाने के लिए एक दूसरे के साथ भिड़ चुके थे. जहाज के कप्तान की लगातार शांत रहने की अपील के बावजूद लोग मारा-मारी करने से बाज नहीं आ रहे थे.
लहरों की मार न झेल सका रामदास
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गल्स द्वीप के करीब पहुंचा रामदास जहाज एक तेज लहर के धक्के से संभाल नहीं सका और पूरी तरह से पलट गया. जहाज पलटता देख जिन्हें तैरना आता था वे पानी में कूद गए लेकिन वहीं कुछ लोग जहाज के तिरपाल में ही फंस गए. ज्यादातर लोग रामदास के साथ ही पानी में डूब गए. जिस समय ये हादसा हुआ उस समय सुबह के करीब 9 बज रहे थे और शाम के पांच बजे तक इस हादसे के बारे में किसी को खबर तक नहीं थी.
यह चिंता का विषय था कि आमतौर पर रेवास पहुंचने में करीब 1.30 घंटे का समय लेने वाला रामदास जहाज आखिर 5 बजे तक क्यों नहीं पहुंचा. रामदास के मालिक इंडियन कोऑपरेटिव स्टीम नेविगेशन एंड ट्रेडिंग कंपनी के कर्मचारियों ने इस बात पर चिंता जताई कि जहाज समय पर क्यों नहीं पहुंचा लेकिन वह कुछ कर पाने में असमर्थ थे. उस समय वायरलेस ट्रांसमीटर या तुरंत संपर्क करने का कोई साधन उपलब्ध नहीं था. ऐसे में किसी को नहीं पता था कि बीच समुद्र में रामदास के साथ क्या हुआ.
10 साल के बच्चे की बच गई जान
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जहाज में सवार कुछ भाग्यशाली यात्री लाइफ जैकेट की मदद से मौत के मुंह से बाहर आने में कामयाब हो गए थे. इन्हीं में से एक था 10 साल का बारकू शेठ मुकादम. इस दस साल के बच्चे ने ही मुंबई पहुंच कर लोगों को हादसे की जानकारी दी. उसके बाद ये खबर जंगल की आग की तरह फैल गई कि रामदास 778 लोगों सहित डूब गया. जहाज में सवार अधिकतर लोग गिरगांव और परेल इलाके से थे. खबर को सुनते ही अपनों को बचाने की उम्मीद में लोग भाउ चा धाक्का पहुंच गए, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. जहाज में सवार कई यात्री रामदास के साथ इस तरह डूबे कि न तो कभी रामदास का मालवा मिला और न ही उन यात्रियों के शव.
न शव मिले न जहाज का मालवा मिला
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हादसे के कुछ दिन बाद ही देश आजाद हो गया. एक तरफ जहां पूरा देश आजादी का जश्न मना रहा था वहीं जहाज के साथ डूबे लोगों के परिजन अभी तक उनकी तलाश में लगे हुए थे. जहाज डूबने के समय हो रही तेज बारिश के कारण राहत और बचाव कार्य में बाधा आई. बाद में मुंबई से दूर एलीफेंटा द्वीप और बुचर्स द्वीप पर और शहर के बंदरगाह के किनारे कई यात्रियों के शव मिले. इनमें से एक शव 13 वर्षीय फ्रांसीसी लड़की, मिस ला बाउचर्डियर का था. वह अपने माता-पिता और 14 वर्षीय भाई के साथ जहाज पर सवार हुई थी. लड़की का शव बुचर द्वीप में पाया गया था. वहीं, उसके माता-पिता और भाई के शव कभी नहीं मिले थे. रामदास समुद्र की गहराई में ऐसे डूबा कि उसका मालवा आज तक नहीं मिला.
BBC/Barku Sheth Mukadam
इस जहाज के डूबने की कहानी उस 10 साल के बरकू शेठ मुकादम ने हिंदी-मराठी फिल्म निर्देशक किशोर पांडुरंग बेलेकर को सुनाई थी. 2018 में बारकू शेठ की उम्र 90 साल की थी. उनके साथ ही 12 वर्षीय अब्दुल कैस भी उस डूबते जहाज से जिंदा बच निकले थे. इसके बाद वो 89 साल की उम्र तक जीवित रहे. बीबीसी की रिपोर्ट में बताया गया कि उस समय जहाज़ में कुछ गर्भवती महिलाएं भी थीं.
रामदास से पहले डूबे थे ये जहाज
रामदास से पहले इंडियन कोऑपरेटिव स्टीम नेविगेशन एंड ट्रेडिंग कंपनी का जहाज एस.एस. जयंती और एस.एस. तुकाराम उसी रास्ते पर, उसी दिन और लगभग उसी समय पर डूब गए थे. एस एस जयंती 11 नवंबर 1927 को डूबी, जिसमें खलासी और यात्री सहित 96 लोगों की मौत हुई थी. वहीं तुकाराम जहाज़ से 146 में से 96 लोग किसी तरह जान बचाने में कामयाब रहे थे.
इस भारतीय टाइटैनिक पर भी न जाने कितने रोज और जैक सवार रहे होंगे, कुछ प्रेम करने वाले अपनी प्रेमिका से मिलने जा रहे होंगे. किसी पिता को अपने बच्चे को देखने की जल्दबाजी रही होगी. कुछ तो ऐसे भी रहे होंगे जिन्होंने ने पिछली रात तक इस सफर के बारे में नहीं सोचा होगा. नियति ने इन सबको इकट्ठा किया और वहां ले जा कर धोखा दिया जहां बचाने वाला कोई न था. हम ईश्वर से ये प्रार्थना करते हैं कि पूरे विश्व को ऐसे हादसों से बचाए जहां मासूम बिना किसी कसूर के मारे जाते हैं