सच्चिदानंद जोशी बोले- प्रधानमंत्री नेहरू ने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद पर दबाव बनाकर 1951 में संविधान में जुड़वाया राजद्रोह

शिमला में अंतरराष्ट्रीय साहित्य उत्सव ‘उम्मेष’ के दूसरे दिन शुक्रवार को गेयटी थियेटर के मुख्य सभागार में चर्चा में शामिल होते हुए सच्चिदानंद जोशी ने साहित्य और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन विषय पर बेबाकी से शब्द बाण छोड़े।

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव और लेखक सच्चिदानंद जोशी।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव और लेखक सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद पर दबाव बनाकर वर्ष 1951 में संविधान में राजद्रोह जुड़वाया था। शिमला में अंतरराष्ट्रीय साहित्य उत्सव ‘उम्मेष’ के दूसरे दिन शुक्रवार को गेयटी थियेटर के मुख्य सभागार में चर्चा में शामिल होते हुए सच्चिदानंद जोशी ने साहित्य और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन विषय पर बेबाकी से शब्द बाण छोड़े।
जोशी ने राजनेताओं पर अपने स्वार्थ के लिए संविधान में इस संशोधन को करने का आरोप भी लगाया। उन्होंने कहा कि मई 1951 तक नेहरू राजद्रोह कानून के खिलाफ थे। जून में उन्होंने राष्ट्रपति पर दबाव बनाते हुए संविधान में संशोधन करवा दिया। 18 जून को यह संशोधन हुआ था। बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट की ओर से राजद्रोह कानून पर रोक लगाने का फैसला होने के बाद देश भर चर्चित इस मामले का उल्लेख करते हुए जोशी ने कहा कि वर्ष 1870 में स्वाधीनता आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने राजद्रोह कानून लागू किया था।

कई लेखक भी इस कानून के तहत जेल गए थे। उन्होंने कहा कि वर्ष 1950 में जब भारत का संविधान बना था, तब राजद्रोह उसका हिस्सा नहीं था। एक वर्ष के भीतर ही संविधान में संशोधन कर इसे जोड़ा गया। उन्होंने कहा कि अभिव्यक्ति के दायरे को जानना बहुत जरूरी हो गया है। अभिव्यक्ति में अनाचार नहीं होना चाहिए। सोशल मीडिया पर राष्ट्र विरोधी प्रचार ना हो, इस पर मंथन करने की आवश्यकता है।

लेखक अनंत विजय ने चर्चा में शामिल होते हुए कहा कि इतिहास को वामपंथियों ने लिखा है। साम्यवाद को राष्ट्रवाद से जोड़ा गया। अब आजादी के 75वें वर्ष में इस पर विचार करना चाहिए। तमिल और अंग्रेजी भाषा के लेखक मालन, विक्रम संपत और विश्वास पाटिल ने भी स्वतंत्रता आंदोलन के समय के साहित्य पर अपने विचार रखे। कन्नड लेखक एसएल भैरप्पा की अध्यक्षता में यह सत्र चला।

प्रकाशक, वित्तीय मदद न मिलने का आदिवासी लेखकों को मलालअंतरराष्ट्रीय साहित्य उत्सव के दूसरे दिन शिमला के ऐतिहासिक गेयटी थियेटर के मुख्य सभागार में आदिवासी लेखकों के समक्ष चुनौतियां विषय पर चर्चा हुई। आदिवासी लेखकों का प्रकाशक और वित्तीय सहायता नहीं मिलने का दर्द छलका। लेखकों ने स्कूल और घर की भाषा अलग-अलग होने को भी एक बड़ी चुनौती माना। आदिवासी लेखक मदन मोहन सोरेन ने कहा कि आदिवासी लेखकों को साहित्य के क्षेत्र में आगे बढ़ाने के लिए प्रकाशक सहयोग नहीं करते हैं। उन्होंने साहित्य अकादमी से आदिवासी भाषाओं को भी प्राथमिकता देने की मांग उठाई। कवि चंद्रकांत मुरा सिंह ने कहा कि हमारे साहित्य को पढ़ने वाले लोगों की संख्या काफी कम होती है। पाठक तलाशने के लिए अंग्रेजी या हिंदी भाषा में अपने साहित्य का अनुवाद करना पड़ता है।

खासी कवयित्री, नाटककार और आलोचक स्ट्रीमलेट दखार ने कहा कि जब तक साहित्य अकादमी उनकी भाषा को मान्यता नहीं देती, तब तक उनकी समस्या ऐसे ही रहेगी। उन्होंने आदिवासी भाषाओं को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने की मांग की। उन्होंने कहा कि असली साहित्य स्थानीय भाषाओं में ही लिखा जाता है, लेकिन विडंबना यह है कि आज के समय में साहित्य सिर्फ  ग्लोबल भाषा अंग्रेजी में ही बिक रहा है। इस सत्र की अध्यक्षता बोडो लेखक अनिल बर ने की। उन्होंने कहा कि आदिवासी भाषा साहित्य के पाठक बहुत कम है। इन्हें बढ़ावा देने के लिए साहित्य अकादमी और सरकार को कदम उठाने चाहिए। आदिवासी लेखक उर्मिला कुमरे और ज्योति नायक राठौर ने भी विचार रखे।