सागू डाबर: दूसरों के घरों में झाड़ू-पोंछा किया, टहनी से खेलना सीखा और हॉकी टीम का हिस्सा बन गई

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प्रेरणा लेने के लिए हमारे आसपास कितनी चलती फिरती कहानियां होती हैं. बस उन पर ध्यान नहीं जाता है. कोई नहीं सोचता है उनके घर काम करने वाली नौकरानी के बच्चे टैलेंटेड भी हो सकते हैं. जरूरी नहीं हमारे ड्राइवर का बेटा भी हमारे घर की कार ही चलाए, वो हवाई जहाज भी उड़ा सकता है! पर कहां जी, हम तो यही सोचते हैं कि हर आदमी की अपनी क्षमता है, जगह है और वो उससे बाहर नहीं निकल सकता.

पर जब ऐसे भ्रम टूटते हैं तो सामने दिखाई देती हैं सागु जैसी बेटियां. जो मुश्किल हालातों से लड़ती हैं, अपने सपनों को जिंदा रखती हैं और फिर उन्हें पूरा करके मिसाल बन जाती हैं. सागु की बात बस इसलिए नहीं की जानी चाहिए क्योंकि वो लड़की है, गरीब परिवार से है, मध्यप्रदेश राज्य की हॉकी टीम का हिस्सा है, राष्ट्रीय स्तर की हॉकी खिलाड़ी है. बल्कि उसकी बात इसलिए हो रही है क्योंकि वो उन लोगों के लिए प्रेरणा हैं जो आगे ना बढ़ पाने के लिए अपने हालातों को दोष देते हैं. तो चलिए सागु के जीवन को जानते हैं और कुछ सीखने की कोशिश करते हैं.

सागु! पूरा नाम है सागु डाबर. मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले की सागु को प्रदेश की हॉकी टीम में जगह दी गई है. उसने पिछले साल रांची में हुई जूनियर हॉकी चैंपियनशिप में प्रदेश टीम का हिस्सा बनकर अपना जलवा दिखाया है. इसके बाद हॉकी चैंपियनशिप के लिए हिमाचल और ओडिशा में प्रदेश का नेतृत्व किया. सागु 7 राष्ट्रीय मैचों में हिस्सा ले चुकी हैं. देश में केरल, असम, रांची, भोपाल में नेशनल मैच का हिस्सा बन चुकी हैं. 

अब वो चाहती है कि हॉकी विश्वकप में भारतीय हॉकी टीम का हिस्सा बनकर देश के लिए मैडल लाए. वैसे सागु के यहां तक पहुंचने का सफर इतना आसान भी नहीं था. वो शहर के पक्के मकान में नहीं बल्कि मंदसौर की झुग्गी बस्ती में रहा करती थीं. परिवार में कमाई का कोई खास जरिया नहीं था इसलिए बाकी भाई-बहनों के साथ वह भी स्कूल के बाद अपनी मां के साथ काम में हाथ बंटाती रही. 

सागु अपनी मां मेघा डाबर के बहुत करीब हैं. पिता भुवान डाबर की मौत के बाद मेघा ही परिवार की जरूरतें पूरी करती रहीं. सागु पांच बहनों और तीन भाइयों में सबसे छोटी हैं. कुल मिलाकर गरीबी सबने देखी. पिता के जाने के बाद परिवार के बच्चों ने मां का काम में हाथ बंटाया. सागु कहती हैं कि मैं छोटी थी इसलिए मां के साथ घर घर जाया करती थी. मां जूठे बर्तन धोती और मैं उन्हें पोंछकर रखती जाती. वो झाडू लगाती तो मैं पोछा लगाने में मदद कर देती. इस बीच स्कूल जारी रहा. दो बहनों की शादी हो गई, और कुछ साल पहले एक भाई की करंट लगने से मौत हो गई.

इस हादसे के बाद मां बहुत टूट गईं. तब मैंने सोचा कि पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान दूं ताकि कुछ अच्छा काम करके मां को सुख सकूं. मां ने शहर के महारानी लक्ष्मीबाई शासकीय स्कूल में दाखिला दिलवा दिया. सागु के टीचर्स बताते हैं कि वो पढ़ाई में औसत स्टूडेंट रही लेकिन उसका व्यवहार स्कूल में सभी को बहुत पसंद है.

सहेली को देख जागा शौक

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सागु ने इसके पहले कभी किसी खेल में खास रूचि नहीं दिखाई थी, पर कक्षा 7वीं में पहुंचने के बाद उसने स्कूल में अपनी सहेलियों को हॉकी खेलते देखा. ये पहली बार था जब सागु हॉकी देख रही थी. 

अपने एक इंटरव्यू में वो कहती है कि जब मैंने हॉकी को हाथ में लिया तो ऐसा लगा कि सबसे ताकतवर चीज है. मुझे पढ़ना था पर उस दिन के बाद से मैं खेलना चाहती थी. वो भी हॉकी. लेकिन दिक्कत ये थी कि स्कूल में हॉकी उन्हीं बच्चों को मिलती थी जो टीम का हिस्सा हैं और सागु को तो हॉकी खेलना आता ही नहीं था. उसने अपनी मां से कहा कि वो हॉकी खेलना चाहती है. पर मां के पास इतने पैसे नहीं थे. 

मेघा कहती हैं कि सागु बहुत जिद कर रही थी, उसका बहुत मन भी था इसलिए मैंने उसे एक मोटी टहनी लाकर दी. फिर सागु और मैंने उस टहनी को साफ किया, और खेलने लायक बनाया. इसके बाद वो स्कूल से आती और उसी टहनी से पत्थरों को मारती. फिर कुछ रद्दी कपडों से एक बॉल बना दी और ऐसे करके सागु को उसकी पहली बॉल मिल गई. 

मेघा आगे कहती हैं कि मैं खुश थी, क्योंकि सागु को एक नया लक्ष्य मिल गया था. मैंने सोचा चलो खेल में ही आगे बढ़ जाए. सागु रोज सुबह 6 बजे उठती है और 7 से 8 बजे तक तीन गाड़ियों की सफाई करती. इसके बाद वो मेरी काम में मदद करती, स्कूल जाती, शाम को स्कूल से आकर घर का काम करती और फिर जब वक्त मिलता तो हॉकी की प्रैक्टिस करती. 

गाड़ियों की सफाई से उसे बाद में 1500 रुपए महीना मिलने लगा.​ जिससे वो खुद ही अपनी पढ़ाई का खर्च उठाने लगी. सागु की मेहनत देखकर उसे स्कूल की हॉकी टीम में शामिल होने का मौका मिला और इसके बाद हॉकी भी. फिर क्या, सागु हॉकी स्कूल में भी खेलती और घर पर भी प्रैक्टिस करती रही.

लोगों से लेना पड़ा उधार

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सागु की मां मेघा अब बहुत खुश हैं. वो कहती हैं कि उनकी बेटी ने वो कर दिखाया है जो उसने कहा था. मेघा के मुताबिक कि सागु ने पैसों के आभाव में भी मेहनत करना बंद नहीं किया. कई बार पैसे नहीं होते थे तो मोबाइल में बैलेंस की डलवा पाते थे, फिर भी वो बना किसी डर के 3 किमी पैदल चलकर हॉकी की प्रैक्टिस के लिए जाती थी. ऐ

सा एक दिन भी नहीं रहा जब सागु ने हॉकी की प्रैक्टिस मिस की हो. कभी पैदल कभी लोगों से लिफ्ट मांगकर, वो बस कैसे भी करके मैदान पहुंच जाया करती थी. सागु के स्कूल कोच उसकी मेहनत से बहुत खुश थे. स्कूल स्तर पर सागु ने बहुत से मैच खेले और टीम को जीत भी दिलाई. इसके बाद हॉकी कोच अविनाश उपाध्याय और रवि कोपरगांवकर की नजर उस पर पड़ी. 

उन्होंने सागु की प्रतिभा को और निखारा और फिर उसे जिला स्तर से राज्य और राज्य से राष्ट्रीय स्तर पर की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने का मौका दिया. सागु बताती हैं कि जब टूर्नामेंट में जाने के लिए पैसों की जरूरत होती थी तो मां, लोगों से उधार मांगती थीं. जिन घरों में वो काम करती थीं वहां से कभी खाना, कभी पैसे, कभी कपडे मिल जाते थे. 

कुछ लोगों ने पहनने के लिए जूते दिए, कुछ ने पुराने बैग और ऐसे करके मैं टूर्नामेंट में हिस्सा लेने दूसरे शहरों में जाती रही. जब बहुत से मैडल सागु की झोली में आ गिरे तब जिला हॉकी एसोसिएशन ने सागु की मदद करन शुरू किया फिर भी बहुत सी जरूरतें सागु और उसकी मां मिलकर पूरी करते रहे और आज भी कर रहे हैं. 5 साल से हॉकी में अपनी किस्मत अजमा रही सागु कक्षा 12वीं में है. वो पढ़ रही है और खेल भी रही.

साथ में हम सबको ये बता भी रही है कि हालात कभी भी सपने पूरे करने के रास्ते में रोड़ा नहीं  बनते!